देश में हर तरफ भ्रष्टाचार का महाशोर है। यह पहला मौका है, जब इस मसले पर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन एक बारगी सामने आकर खड़ा हो गया है। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि नैतिक सिद्धांतों के इस लोकतांत्रिक देश में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी बगावत होगी। भ्रष्टाचार के सवाल पर समूचा भारतीय समाज आज संक्रमण के संकटकालीन दौर से गुजर रहा है। आखिर ये नौबत क्यों आई है? क्या इसके लिए अकेले हमारे सियासतदार और उनके मातहत नौकरशाह जिम्मेदार हैं?
इस सवाल पर विचार करना भी वक्त की एक बड़ी मांग है। असलियत तो यह है कि हमें हमारा गिरेबान भी देखना होगा। दरअसल भ्रष्टाचार की जहरीली जड़ें भारतीय समाज के उसी आम नागरिक जीवन से पोषण पाती हैं, जिस परिवेश में ये बदनामशुदा सियासतदार और उनके नौकरशाह पलते हैं।
कहना न होगा कि चाहे अनचाहे , प्रत्यक्षत या फिर अप्रकट रूप से भ्रष्ट आचरण हमारे आम व्यवहार का हिस्सा बन चुका है। सिर्फ सियासी ही नहीं भ्रष्टाचार हमारी एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है। हम जब तक इस सच्चई को स्वीकार कर इसके समूल खात्मे के लिए अपने आप में कोई ईमानदार संकल्प नहीं लेते हैं तब तक एक क्या हजार अण्णा हजारे भी हमारे हित में खुद को कुर्बान क्यों न कर दें इस देश का भला होने वाला नहीं है।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार किसी शिष्टाचार से कम नहीं रहा। ट्रेन में अनाधिकृत रूप से आरक्षित सीट की सुविधा हो या रसोई गैस के लिए बिनबारी का लाभ। बिजली का मीटर जाम कराने के लिए बतौर घूस लाइन मैन को सुविधा शुल्क का नजराना पेश करने की पेशकश हो या फिर टैक्स चोरी के लिए तरह-तरह के जुगाड़। इन सब के पीछे आखिर कौन होता है? ऐसी घड़ी में हमारी सहज स्वीकार्यता क्यों होती है? प्रत्युत्तर में प्रखर प्रतिकार क्यों नहीं होता है? ऐसे में हम एलानिया अण्णा के साथ तो खड़े हो सकते हैं,लेकिन खुद के साथ पल भर के लिए भी आखिर क्यों नहीं ठहर पाते हैं? घूस देकर अपना काम बना लेने में हम अपनी शान समझते हैं। भ्रष्टाचार हमारी आमधारणा में स्वाभाविक शिष्टाचार है। काली कमाई के सवाल पर हमारी आत्ममुग्धता का सिर्फ एक तर्क है, जिसे अवसर नहीं मिला वही चिल्लाता है मगर यह अर्धसत्य है। जो लोग प्रख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे को करीब से समझते हैं, वो लोग जानते हैं कि 72 वर्ष के इस बुजुर्ग शख्स के पास कभी अवसरों की कमी नहीं रही। अवसर पैदा कर लेने में माहिर इस जादूगर के पास आज भी कुछ नहीं है, मगर आज उम्र के इस नाजुक दौर में खड़ा यह आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ क्यों चिल्ला रहा है? क्योंकि इस इंसान के अंदर लोकतंत्र अभी जिंदा है। आत्मबल उफान पर है। यह देशव्यापी तूफान इसी स्वायत्त और स्वस्फरू त शक्ति का परिणाम है। बेशक राष्ट्रहित में हमें ऐसे निर्विवाद नेतृत्व का अनुसरण करना चाहिए हमें अब तय ही करना होगा कि हम किसके साथ हैं?
इस सवाल पर विचार करना भी वक्त की एक बड़ी मांग है। असलियत तो यह है कि हमें हमारा गिरेबान भी देखना होगा। दरअसल भ्रष्टाचार की जहरीली जड़ें भारतीय समाज के उसी आम नागरिक जीवन से पोषण पाती हैं, जिस परिवेश में ये बदनामशुदा सियासतदार और उनके नौकरशाह पलते हैं।
कहना न होगा कि चाहे अनचाहे , प्रत्यक्षत या फिर अप्रकट रूप से भ्रष्ट आचरण हमारे आम व्यवहार का हिस्सा बन चुका है। सिर्फ सियासी ही नहीं भ्रष्टाचार हमारी एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है। हम जब तक इस सच्चई को स्वीकार कर इसके समूल खात्मे के लिए अपने आप में कोई ईमानदार संकल्प नहीं लेते हैं तब तक एक क्या हजार अण्णा हजारे भी हमारे हित में खुद को कुर्बान क्यों न कर दें इस देश का भला होने वाला नहीं है।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार किसी शिष्टाचार से कम नहीं रहा। ट्रेन में अनाधिकृत रूप से आरक्षित सीट की सुविधा हो या रसोई गैस के लिए बिनबारी का लाभ। बिजली का मीटर जाम कराने के लिए बतौर घूस लाइन मैन को सुविधा शुल्क का नजराना पेश करने की पेशकश हो या फिर टैक्स चोरी के लिए तरह-तरह के जुगाड़। इन सब के पीछे आखिर कौन होता है? ऐसी घड़ी में हमारी सहज स्वीकार्यता क्यों होती है? प्रत्युत्तर में प्रखर प्रतिकार क्यों नहीं होता है? ऐसे में हम एलानिया अण्णा के साथ तो खड़े हो सकते हैं,लेकिन खुद के साथ पल भर के लिए भी आखिर क्यों नहीं ठहर पाते हैं? घूस देकर अपना काम बना लेने में हम अपनी शान समझते हैं। भ्रष्टाचार हमारी आमधारणा में स्वाभाविक शिष्टाचार है। काली कमाई के सवाल पर हमारी आत्ममुग्धता का सिर्फ एक तर्क है, जिसे अवसर नहीं मिला वही चिल्लाता है मगर यह अर्धसत्य है। जो लोग प्रख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे को करीब से समझते हैं, वो लोग जानते हैं कि 72 वर्ष के इस बुजुर्ग शख्स के पास कभी अवसरों की कमी नहीं रही। अवसर पैदा कर लेने में माहिर इस जादूगर के पास आज भी कुछ नहीं है, मगर आज उम्र के इस नाजुक दौर में खड़ा यह आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ क्यों चिल्ला रहा है? क्योंकि इस इंसान के अंदर लोकतंत्र अभी जिंदा है। आत्मबल उफान पर है। यह देशव्यापी तूफान इसी स्वायत्त और स्वस्फरू त शक्ति का परिणाम है। बेशक राष्ट्रहित में हमें ऐसे निर्विवाद नेतृत्व का अनुसरण करना चाहिए हमें अब तय ही करना होगा कि हम किसके साथ हैं?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें