शनिवार, 7 मई 2011

नीति से ज्यादा नीयत का सवाल


लोकतंत्र में विशेषाधिकारों से विभूषित हमारे सियासतदार अगर लोकपाल जैसी किसी स्वायत्त शक्ति की कल्पना मात्र से भयभीत हैं ,तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। ऐसी किसी भी शक्ति का सामना करने के लिए नैतिक बल की जरूरत होती है। नैतिकता हाट-बाजार में नहीं बिकती। यह अमूल्य आत्मबल है। नैतिकता के पतन में हमारा कोई सानी नहीं है। दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र में लोकपाल विधेयक पिछले 45 वर्षो से लंबित है। वर्ष 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोकपाल कानून बनाए जाने की सिफारिश की थी। इस बीच यह विधेयक मंजूरी के लिए 8 बार लोकसभा में आया लेकिन स्वीकृति नहीं मिली। अंतत: अब यूपीए की मनमोहन सरकार लोकपाल विधेयक का जो प्रारूप लेकर आई है, वह राज्यों में लोकायुक्तों जैसा है। देश के कमोवेश सभी राज्यों में लोकायुक्तों की हैसियत किसी से छिपी नहीं है। लोकायुक्त संगठन को सियासी मामलों में अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है। संगठन सिर्फ सरकार से सिफारिश कर सकता है। इसे सजा देने तक का अधिकार नहीं है। कुल मिलाकर लोकायुक्त साधारण संस्था बन कर रह गई है। जांच के लिए वह सरकार पर निर्भर है। आमतौर पर सत्ता तंत्र लोकायुक्त का राजनैतिक इस्तेमाल करता है।
लोकपाल के सवाल पर केंद्र सरकार की नीयत लगभग ऐसी ही है। लोकपाल के लिए तैयार किया खाका भी तकरीबन लोकायुक्त की तरह उसे बेजान बनाए रखने का दस्तावेज है। इस मसले पर सरकारी नीयत कितनी साफ है, अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि विधेयक के लिए गठित मंत्रिमंडलीय समिति के अध्यक्ष कोई और नहीं बल्कि शरद पवार हैं। भ्रष्ट शिष्ट शरद पवार दूध के कितने धुले हैं? यह सारा देश जानता है। यही वजह है कि सरकारी मंशा के खिलाफ प्रख्यात समाजसेवी और छोटे गांधी अन्ना हजारे जंतर-मंतर से सारे देश में अपने विरोध के स्वर मुखर कर जन जागृति का मंत्र फूंक रहे हैं। उनकी एक आवाज का आगाज यह है कि पांच राज्यों के दो सौ शहरों में लाखों लोग इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले आंदोलित हैं।
लोकपाल की स्वायत्त शक्ति के सवाल पर सारा देश एक ऐसा प्रारूप चाहता है जो संयुक्त समिति की सहमति से बने। ऐसी समिति जिसमें कम से कम पचास फीसदी सदस्य अराजनैतिक मगर विशिष्ट सामाजिक लोग हों। वैधानिक पृष्ठभूमि पर लोकपाल यानि जन लोकपाल की हैसियत सुप्रीमकोर्ट,भारत निर्वाचन आयोग और सीएजी जैसी हो। प्रधानमंत्री भी जन लोकपाल की जांच के दायरे में हों । सीबीआई और सीवीसी जैसी सरकारी जांच एजेंसियां देशमें जन लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त के अधीन हों। सवाल यह है कि जिस देश में राजनैतिक दल अपने लिए पूर्ण बहुमत जुटाने की सामथ्र्य नहीं रखते हों? जिस देश के नागरिक जीवन की नस-नस में भ्रष्टाचार के शिष्टाचार का लहू दौड़ रहा हो ,उस देश के सियासी दल क्या जन लोकपाल जैसी स्वायत्त शक्ति के लिए नैतिकसाहस जुटा पाएंगे? वस्तुत: यह मामला नीति से ज्यादा नीयत का है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें