ेAराष्ट्रीय पंचायत दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था को और अधिक शक्तिशाली बनाए जाने की प्रति केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई है। यह प्रतिबद्धता उस वक्त सामने आई है जब देश के ग्राम्य अंचलों में चल रही
खाप पंचायतों जैसी समानांतर सत्ता ने देश के कानून को मानने से इंकार कर दिया है। आदिम युग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित ऐसी स्वयंभू सत्ता की सामाजिक जड़ें आज भी बहुत गहरी हैं।
समाज में नैतिकता के ठेकेदार ऐसे गोलबंद सामाजिक सिद्धांत अकेले हरियाणा का संकट नहीं है। समूचे भारतीय समाज में यह समस्या आज भी किसी न किसी रूप में पोषित हो रही है। विडंबना देखिए,कथित सभ्य समाज में व्याप्त ये रूढ़ियां कानून को दम दिखाने का साहस भी रखती हैं। आदिमयुग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित खाप पंचायतों का खौफ जगजाहिर है। सवाल यह है कि ऐसी समानांतर सत्ता का इस जनतांत्रिक समाज में औचित्य क्या है? इनके फरमान फतवे जैसे हैं। क्या संविधान कानून हाथ में लेने का अधिकार इन्हें देता है? गोत्र पद्धति वस्तुत: झगड़े की बुनियादी जड़ है,पर क्या गोत्र का कोई वैज्ञानिक आधार है? जब वैज्ञानिक आधार ही नहीं है तो इसे संवैधानिक संरक्षण का सवाल ही नहीं उठता है। परिवर्तन प्रकृति की अपरिहार्य प्रक्रिया है। वैश्विकयुग में हमें अपने रूढ़िवादी विचारों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यह जैनेटिक इंजीनियरिंग का युग है। जहां परखनली शिशु के सफलतम प्रयोग हमारे सामने हैं। जहां ब्लड बैंक की तरह सीमेन बैंक हैं। यह वह दौर है जब दुनिया मनुष्य के जन्म की आकस्मिक घटना को पूर्वनियोजित करने के अनुसंधानों पर बहुत आगे जा चुकी है।
आज हम हर बात के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं,मगर मजाक देखिए, मनुष्य और मनुष्यता के विचार के लिए हमारा नजरिया खालिस अवैज्ञानिक है। विज्ञान आज बुद्धिमान,स्वस्थ्य और दीर्घायु भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए नित-नए रिसर्च में जुटा हुआ हैऔर हम कथित सामाजिक नैतिकता के नाम पर सिर्फ अपनी सामाजिक ठेकेदारी की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति,संस्कारों और परंपराओं के अपने वैज्ञानिक आधार हैं लेकिन गोत्र परंपरा का अब तक कोई ऐसा प्रामाणिक आधार नहीं मिला है। क्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बच्चे को जन्म देना विवेकपूर्ण नहीं है?अंधे,बहरे,विक्षिप्तिऔर शारीरिक-मानसिक तौर पर कमजोर बच्चों को समाज में लाने से बेहतर यह नहीं कि भावी भारत के गौरवशाली निर्माण के लिए हम अनुवांशिक अभियांत्रिकी को स्वीकार करें। बुद्धिमान, रचनाशील और प्रेमपूर्ण समाज के निर्माण के लिए हमें क्या अब सामाजिक ठेकेदारी से तौबा नहीं कर लेनी चाहिए। लिव-इन-रिलेशनशिप हो या समलैंगिकता का सवाल कानूनी दृष्टिकोण साफ है। हर किसी को आजादी है कि वह कैसे विक ल्पों को अपनी सहमति देता है। इनके प्रति रजामंदी के मामले में कानून का कोई बाध्यकारी नियम नहीं है,लेकिन असहमति भी नितांत निजी मामला ही है। अत: समाज हित में यही है कि समानांतर सत्ता के इस स्वयंभू सामाजिक सिद्धांत का सामाजिक तौर पर ही बहिष्कार होना चाहिए।
खाप पंचायतों जैसी समानांतर सत्ता ने देश के कानून को मानने से इंकार कर दिया है। आदिम युग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित ऐसी स्वयंभू सत्ता की सामाजिक जड़ें आज भी बहुत गहरी हैं।
समाज में नैतिकता के ठेकेदार ऐसे गोलबंद सामाजिक सिद्धांत अकेले हरियाणा का संकट नहीं है। समूचे भारतीय समाज में यह समस्या आज भी किसी न किसी रूप में पोषित हो रही है। विडंबना देखिए,कथित सभ्य समाज में व्याप्त ये रूढ़ियां कानून को दम दिखाने का साहस भी रखती हैं। आदिमयुग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित खाप पंचायतों का खौफ जगजाहिर है। सवाल यह है कि ऐसी समानांतर सत्ता का इस जनतांत्रिक समाज में औचित्य क्या है? इनके फरमान फतवे जैसे हैं। क्या संविधान कानून हाथ में लेने का अधिकार इन्हें देता है? गोत्र पद्धति वस्तुत: झगड़े की बुनियादी जड़ है,पर क्या गोत्र का कोई वैज्ञानिक आधार है? जब वैज्ञानिक आधार ही नहीं है तो इसे संवैधानिक संरक्षण का सवाल ही नहीं उठता है। परिवर्तन प्रकृति की अपरिहार्य प्रक्रिया है। वैश्विकयुग में हमें अपने रूढ़िवादी विचारों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यह जैनेटिक इंजीनियरिंग का युग है। जहां परखनली शिशु के सफलतम प्रयोग हमारे सामने हैं। जहां ब्लड बैंक की तरह सीमेन बैंक हैं। यह वह दौर है जब दुनिया मनुष्य के जन्म की आकस्मिक घटना को पूर्वनियोजित करने के अनुसंधानों पर बहुत आगे जा चुकी है।
आज हम हर बात के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं,मगर मजाक देखिए, मनुष्य और मनुष्यता के विचार के लिए हमारा नजरिया खालिस अवैज्ञानिक है। विज्ञान आज बुद्धिमान,स्वस्थ्य और दीर्घायु भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए नित-नए रिसर्च में जुटा हुआ हैऔर हम कथित सामाजिक नैतिकता के नाम पर सिर्फ अपनी सामाजिक ठेकेदारी की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति,संस्कारों और परंपराओं के अपने वैज्ञानिक आधार हैं लेकिन गोत्र परंपरा का अब तक कोई ऐसा प्रामाणिक आधार नहीं मिला है। क्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बच्चे को जन्म देना विवेकपूर्ण नहीं है?अंधे,बहरे,विक्षिप्तिऔर शारीरिक-मानसिक तौर पर कमजोर बच्चों को समाज में लाने से बेहतर यह नहीं कि भावी भारत के गौरवशाली निर्माण के लिए हम अनुवांशिक अभियांत्रिकी को स्वीकार करें। बुद्धिमान, रचनाशील और प्रेमपूर्ण समाज के निर्माण के लिए हमें क्या अब सामाजिक ठेकेदारी से तौबा नहीं कर लेनी चाहिए। लिव-इन-रिलेशनशिप हो या समलैंगिकता का सवाल कानूनी दृष्टिकोण साफ है। हर किसी को आजादी है कि वह कैसे विक ल्पों को अपनी सहमति देता है। इनके प्रति रजामंदी के मामले में कानून का कोई बाध्यकारी नियम नहीं है,लेकिन असहमति भी नितांत निजी मामला ही है। अत: समाज हित में यही है कि समानांतर सत्ता के इस स्वयंभू सामाजिक सिद्धांत का सामाजिक तौर पर ही बहिष्कार होना चाहिए।
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