भारत और पाकिस्तान के बीच क्या वाकई एक और युद्ध की आशंका है? क्या यह न्यूक्लियर युद्ध होगा? दोनों देशों के बीच तनाव के जो हालात बने हैं उससे समूचे दक्षिण एशिया में तनाव पूर्ण हालात के बीच सिर्फ एक इसी सवाल पर अटकलें चल रही हैं। पाकि स्तान को कोई नसीहत देने वाला हो या नहीं हो,लेकिन हिंदुस्तान में तो जैसे सुझावों का सिलसिला ही शुरू हो गया है। हर सुझाव का सिर्फ एक ही मकसद है कि पाक के साथ अब एक बार आर-पार हो ही जाना चाहिए मगर सवाल यह है कि आखिर इससे हासिल क्या होगा? अव्वल तो यह कि दोनों देशों के बीच दूर-दूर तक अब युद्ध जैसी नौबत नहीं आने पाएगी। फुटकर सैन्य संघर्ष दीगर बात है।
दोनों राष्ट्र परमाणु हथियारों से लैस हैं और यही वजह है कि 1999 के अगर कारगिल के सैन्य संषर्घ को छोड़ दें तो दोनों देशों के बीच चार दशक के दौरान हालात कुछ भी रहे हों मगर युद्ध जैसी नौबत कभी नहीं आई। दोनों परमाणु संपन्न देश इस असलियत से वाकिफ हैं कि अगर युद्ध हुआ तो दो दोनों पाषाण युग में चले जाएंगे और सिवाय तबाही के किसी को कुछ भी हासिल नहीं होगा। कुछ भी हो लेकिन न्यूक्लियर हथियारों के खौफ ने कम से कम सुरक्षा की इतनी गारंटी तो दी है। बड़ा सवाल यह भी है कि बावजूद इसके दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ बदस्तूर जारी क्यों है? दरअसल, यह मान लिया गया है कि दुनिया में जिंदा रहने के लिए ताकत जरूरी है।
यहां यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि जब युद्ध नहीं तो युद्ध जैसी बातें क्यों ? वस्तुत: पाकिस्तान में लादेन के मारे जाने से शर्मसार और भीतर से भयभीत पाकिस्तान की भारत पर निशानेबाजी और यह बौखलाहट पूरी तरह से प्रायोजित है। भारत के उकसाने की उसकी संयमित रणनीति का सीधा सा अर्थ यह है कि वह भारत के अंदर अपनी आतंकी गतिविधियों की पैठ को फिर से सक्रिय करने की रणनीति पर काम कर रहा है। संभवत:उसे घाटी में बर्फ पिघलने का इंतजार है। कश्मीर के साथ-साथ उसका पूरा ध्यान भारत की तेजी के साथ मजबूत हो रही अर्थव्यवस्था को तोड़ने पर भी है। भारत में आईएसआई के जरिए जाली करेंसी का जाल फैलाने की रणनीति हो या फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में 26-11 का अटैक। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के बढ़ते दखल ने अमेरिका और चीन का भी चैन चुरा लिया है। पाकिस्तान की ईष्र्या स्वाभाविक है। भारत की यही चुनौती है कि वह इन तीनों पर भरोसा नहीं करे और पगलाए पाकिस्तान की किसी भी सामरिक और कू टनीतिक रणनीति के प्रति सतर्क रहे।
वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि आज पाकिस्तान में लोकतंत्र का वजूद महज कपोल कल्पना रह गई है। हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि पाक जहां दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन बन चुका है। वहीं वह अरब देशों के लिए परमाणु हथियारों से लैस एक कट्टर स्लामिक राष्ट्र से ज्यादा कुछ भी नहीं है। भारत की नजर में उसका पड़ोसी पाकिस्तान सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों का पनाहगाह है। दुनिया के दो दादा देशों के बीच ब्लैकमेल होते भूखे और नंगे पाकिस्तान को यह समझना चाहिए कि उसकी भलाई सिर्फ भारत पर भरोसा करने में ही है लेकिन अंतरराष्टीय आतंकवाद के हाथों की कठपुतली बन चुकी पाकिस्तान की सैन्य सत्ता इस तथ्य को कभी नहीं समझ सकती। यह तथ्य भी जग जाहिर है कि पाकिस्तान में सत्ता के केंद्र गिलानी-जरदारी नहीं कियानी और पाशा हैं और जब तक यह स्थिति रहेगी तब तक पाक को सिर्फ खोना ही है।
दोनों राष्ट्र परमाणु हथियारों से लैस हैं और यही वजह है कि 1999 के अगर कारगिल के सैन्य संषर्घ को छोड़ दें तो दोनों देशों के बीच चार दशक के दौरान हालात कुछ भी रहे हों मगर युद्ध जैसी नौबत कभी नहीं आई। दोनों परमाणु संपन्न देश इस असलियत से वाकिफ हैं कि अगर युद्ध हुआ तो दो दोनों पाषाण युग में चले जाएंगे और सिवाय तबाही के किसी को कुछ भी हासिल नहीं होगा। कुछ भी हो लेकिन न्यूक्लियर हथियारों के खौफ ने कम से कम सुरक्षा की इतनी गारंटी तो दी है। बड़ा सवाल यह भी है कि बावजूद इसके दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ बदस्तूर जारी क्यों है? दरअसल, यह मान लिया गया है कि दुनिया में जिंदा रहने के लिए ताकत जरूरी है।
यहां यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि जब युद्ध नहीं तो युद्ध जैसी बातें क्यों ? वस्तुत: पाकिस्तान में लादेन के मारे जाने से शर्मसार और भीतर से भयभीत पाकिस्तान की भारत पर निशानेबाजी और यह बौखलाहट पूरी तरह से प्रायोजित है। भारत के उकसाने की उसकी संयमित रणनीति का सीधा सा अर्थ यह है कि वह भारत के अंदर अपनी आतंकी गतिविधियों की पैठ को फिर से सक्रिय करने की रणनीति पर काम कर रहा है। संभवत:उसे घाटी में बर्फ पिघलने का इंतजार है। कश्मीर के साथ-साथ उसका पूरा ध्यान भारत की तेजी के साथ मजबूत हो रही अर्थव्यवस्था को तोड़ने पर भी है। भारत में आईएसआई के जरिए जाली करेंसी का जाल फैलाने की रणनीति हो या फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में 26-11 का अटैक। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के बढ़ते दखल ने अमेरिका और चीन का भी चैन चुरा लिया है। पाकिस्तान की ईष्र्या स्वाभाविक है। भारत की यही चुनौती है कि वह इन तीनों पर भरोसा नहीं करे और पगलाए पाकिस्तान की किसी भी सामरिक और कू टनीतिक रणनीति के प्रति सतर्क रहे।
वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि आज पाकिस्तान में लोकतंत्र का वजूद महज कपोल कल्पना रह गई है। हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि पाक जहां दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन बन चुका है। वहीं वह अरब देशों के लिए परमाणु हथियारों से लैस एक कट्टर स्लामिक राष्ट्र से ज्यादा कुछ भी नहीं है। भारत की नजर में उसका पड़ोसी पाकिस्तान सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों का पनाहगाह है। दुनिया के दो दादा देशों के बीच ब्लैकमेल होते भूखे और नंगे पाकिस्तान को यह समझना चाहिए कि उसकी भलाई सिर्फ भारत पर भरोसा करने में ही है लेकिन अंतरराष्टीय आतंकवाद के हाथों की कठपुतली बन चुकी पाकिस्तान की सैन्य सत्ता इस तथ्य को कभी नहीं समझ सकती। यह तथ्य भी जग जाहिर है कि पाकिस्तान में सत्ता के केंद्र गिलानी-जरदारी नहीं कियानी और पाशा हैं और जब तक यह स्थिति रहेगी तब तक पाक को सिर्फ खोना ही है।
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