देश में सफेदपोश सियासतदारों के साझा उपक्रम भ्रष्टाचार के काले कारनामों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। बोफोर्स,हर्षद,हवाला,टू-जी,राडियाऔर राष्ट्रमंडल से लेकर आदर्श सोसायटी जैसे महा घोटाले क्या इस देश की अर्थव्यवस्था के लिए आघात नहीं हैं? विदेशी खातों में देशी धन को राजद्रोह की संज्ञा क्यों नहीं दी जा सकती है? एक साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिलसिले में चिंता जताते हुए स्पष्ट कहा था कि देश के कानून और राष्ट्रीय हितों को सबसे ज्यादा नुकसान बड़े आर्थिक अपराधी ही पहुंचाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आगाह करते हुए इस सिलसिले में अविलंब विशेष न्यायालय के गठन का सुझाव भी दिया था।
सर्वोच्च अदालत का कहना था कि केंद्र सरकार चाहे तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श कर ऐसी अदालतों का गठन कर सकती है,लेकिन विडंबना देखिए,भारत में आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए ना तो पर्याप्त कानून हैं और ना ही एक अदद विशेष न्यायाधिकरण। सच तो यह है कि सरकार इस सवाल पर सदैव मुंह चुराती रही है। असलियत तो यह भी है कि समूची भारतीय राजनीति इसी काली अर्थव्यवस्था पर टिकी है और यही कालाधन देश के अर्थतंत्र को तार-तार कर रहा है।
कहने को तो देश में धन कर अधिनियम-1958 से लेकर धन शोधन निवारण अधिनियम-2002 तक तकरीबन दो दर्जन कानून हैं लेकिन इनमें से एक भी कानून अपराधियों में वैसा खौफ नहीं पैदा करता है जैसा भय राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मसले पर देशद्रोह की धारा 124-ए से पैदा होता है। सवाल यहां राजद्रोह के मौजूदा कानून से सहमत होने का नहीं है।
सवाल सिर्फ इतना है कि ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध जो देश की एकता,अखंडता और संप्रभुता के लिए घातक हो उसे देशद्रोह की संज्ञा देकर संज्ञान में लेने से सरकार को आखिर परहेज क्यों है?
वस्तुत: विवाद की जड़ वैश्वीकरण है। उपनिवेशवाद के इस नए अवतार को हम नव उपनिवेशवाद की भी संज्ञा दे सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण के चलते जमीनी स्तर पर आम आदमी में अप्रत्याशित रूप से किस्त दर किस्त बढ़ी क्रय शक्ति से जहां निम्न मध्यमवर्ग में बेहतर जीवन की अभिलाषा से भ्रष्टाचार को पोषण मिला है, वहीं शीर्ष स्तर पर सत्ता के लिए तेजी के साथ बढ़े गलाकाट संघर्ष ने कारपोरेट घरानों के लिए और बड़े दरवाजे खोले हैं। सत्ता से लेकर सड़क तक आज भारी पूंजी निवेश के चलते कारपोरेट घरानों का जोरदार दखल दिखता है। नतीजतन सियासतदार हों या नौकरशाह और या फिर इन सबों को आइना दिखाना वाला मुख्यधारा का मीडिया सबके सब इन्हीं कारपोरेट घरानों के इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को यूं आस्तीन में सांप की तरह पालने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बेहतर हो कि हम दुनिया में तेजी के साथ संभलती भारतीय अर्थव्यवस्था को असंतुलित करने वाले आर्थिक अपराधियों से अब सख्ती के साथ निपटें। इसके लिए हमें न केवल दलीय भावना से बाहर आना होगा अपितु आर्थिक मोर्चे पर निहित स्वार्थो की तिलांजलि भी देनी होगी। वर्ना एक बार यदि यह अर्थव्यवस्था टूटी तो न यह देश रहेगा और न हम सब। यह एक और स्वतंत्रता आंदोलन जैसा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नव उपनिवेशवाद से आजादी ,जैसा..
सर्वोच्च अदालत का कहना था कि केंद्र सरकार चाहे तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श कर ऐसी अदालतों का गठन कर सकती है,लेकिन विडंबना देखिए,भारत में आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए ना तो पर्याप्त कानून हैं और ना ही एक अदद विशेष न्यायाधिकरण। सच तो यह है कि सरकार इस सवाल पर सदैव मुंह चुराती रही है। असलियत तो यह भी है कि समूची भारतीय राजनीति इसी काली अर्थव्यवस्था पर टिकी है और यही कालाधन देश के अर्थतंत्र को तार-तार कर रहा है।
कहने को तो देश में धन कर अधिनियम-1958 से लेकर धन शोधन निवारण अधिनियम-2002 तक तकरीबन दो दर्जन कानून हैं लेकिन इनमें से एक भी कानून अपराधियों में वैसा खौफ नहीं पैदा करता है जैसा भय राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मसले पर देशद्रोह की धारा 124-ए से पैदा होता है। सवाल यहां राजद्रोह के मौजूदा कानून से सहमत होने का नहीं है।
सवाल सिर्फ इतना है कि ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध जो देश की एकता,अखंडता और संप्रभुता के लिए घातक हो उसे देशद्रोह की संज्ञा देकर संज्ञान में लेने से सरकार को आखिर परहेज क्यों है?
वस्तुत: विवाद की जड़ वैश्वीकरण है। उपनिवेशवाद के इस नए अवतार को हम नव उपनिवेशवाद की भी संज्ञा दे सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण के चलते जमीनी स्तर पर आम आदमी में अप्रत्याशित रूप से किस्त दर किस्त बढ़ी क्रय शक्ति से जहां निम्न मध्यमवर्ग में बेहतर जीवन की अभिलाषा से भ्रष्टाचार को पोषण मिला है, वहीं शीर्ष स्तर पर सत्ता के लिए तेजी के साथ बढ़े गलाकाट संघर्ष ने कारपोरेट घरानों के लिए और बड़े दरवाजे खोले हैं। सत्ता से लेकर सड़क तक आज भारी पूंजी निवेश के चलते कारपोरेट घरानों का जोरदार दखल दिखता है। नतीजतन सियासतदार हों या नौकरशाह और या फिर इन सबों को आइना दिखाना वाला मुख्यधारा का मीडिया सबके सब इन्हीं कारपोरेट घरानों के इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को यूं आस्तीन में सांप की तरह पालने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बेहतर हो कि हम दुनिया में तेजी के साथ संभलती भारतीय अर्थव्यवस्था को असंतुलित करने वाले आर्थिक अपराधियों से अब सख्ती के साथ निपटें। इसके लिए हमें न केवल दलीय भावना से बाहर आना होगा अपितु आर्थिक मोर्चे पर निहित स्वार्थो की तिलांजलि भी देनी होगी। वर्ना एक बार यदि यह अर्थव्यवस्था टूटी तो न यह देश रहेगा और न हम सब। यह एक और स्वतंत्रता आंदोलन जैसा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नव उपनिवेशवाद से आजादी ,जैसा..
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