शनिवार, 7 मई 2011

अमेरिकी थाने में भारत की फरियाद


पाकिस्तान की पनाह में आतंक के आका ओसामा की मौत के बाद अब शक नहीं कि देश की एकता,अखंडता और संम्प्रभुता के दुश्मन हमारा चैन चुरा कर कहीं और नहीं बल्कि पड़ोसी के घर पर ही चैन की बंसी बजा रहे हैं । कहने को तो देश के दुश्मन नंबर वन लश्कर-ए-तैयबा के प्रति भारत का रुख कंट्रोल,ऑल्ट और डिलीट से ज्यादा नहीं है पर असल में हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम और विदेश मंत्री एमएस कृष्णा के इरादे लकीर के फकीर ही हैं। भारत अभी भी चाहता है कि या तो पाकिस्तान स्वयं 26/11 के गुनहगारों को हमारे सुपुर्द कर दे या फिर अमेरिका ओसामा के खिलाफ चलाए गए अपने आतंकवाद विरोधी अभियान को जारी रखते हुए ठीक उसी तरह ढेर कर दे, जैसे ओसामा को मारा गया।
भारत ने एक ओर जहां साफ कर दिया है कि वह आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका जैसी कार्रवाई के पक्ष में नहीं है वहीं उसका मानना है कि ओसामा के खिलाफ इस आपरेशन से पाकिस्तान की संम्प्रभुता का अतिक्रमण नहीं हुआ है। भारत का यह भी मानना है कि पाक के साथ हमेशा युद्ध की बातें करना तो आसान है, लेकिन पड़ोसी होने के नाते सीधे सैन्य कार्यवाही आखिरी रास्ता नहीं है। भारत की नजर में सिर्फ बातचीत ही एक मात्र विकल्प है पर सवाल यह है कि दशकों से हम समझाइश के जिस अंतहीन रास्ते पर चल रहे हैं, उससे यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या हम कभी अपने दुश्मनों के खिलाफ अंजाम तक पहुंच पाएंगे? दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में मस्ती काट रहे भारत के दुश्मनों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। 1993 में मुंबई सीरियल ब्लास्ट का गुनहगार और 26/11 के हमलों का मददगार दाऊद इब्राहिम करांची के क्लिफ्टन इलाके में ठाठ से रहता है, लेकिन 25 साल बाद भी हम उस पर खरोंच तक नहीं मार पाए हैं। उसके अल-कायदा से रिश्ते हैं और वो लश्कर ए तैयबा के हाथों का खिलौना है। यह अकेला गुनहगार नहीं है। मुंबई हमलों का मास्टर माइंड हाफिज सईद हो या इन्हीं हमलों का दूसरा मास्टर माइंड लखवी कांधार कांड का सूत्रधार मसूद अजहर ,लश्कर-ए-तैयबा का सबसे खतरनाक आका यूसुफ मुजम्मिल या फिर साजिद मीर। सबके सब पाकिस्तान में ही बैठकर भारत विरोधी हिंसक अभियान चलाते हैं।
आशय यह कि हमें मालूम है कि हमारे हमलावर कौन हैं? और कहां उनके ठिकाने हैं? लेकिन विडंबना यह है कि बावजूद इसके आतंक के खिलाफ लड़ाई के लिए आज भी हम दूसरों की मदद के मोहताज हैं। कभी हम पाक से अपने दुश्मनों का समर्पण कराने की गुजारिश करते हैं तो कभी हम अमेरिका से आतंक के खिलाफ जंग जारी रखने की उम्मीद। यह भी साफ है कि अमेरिका हमारी मदद के लिए आने वाला नहीं है। क्या,हमें अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़नी चाहिए?आतंक के खिलाफ आक्रामक रणनीति नहीं अपनाने की हमारी आखिर लाचारी क्या है? आतंक के खिलाफ अमन की हमारी अब तक की कोशिशों के निराशाजनक नतीजे ही हाथ लगे हैं। वक्त का तकाजा तो यही है कि सरहद पार बैठी देश तोड़क ताकतों की कमर तोड़ने के लिए भारत को भी आक्रामक रणनीति अख्तियार कर लेनी चाहिए।

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