शनिवार, 7 मई 2011

सवालों की सलीब पर बालिका वधू


लाड़ली लक्ष्मी के लिए देश में मशहूर मध्यप्रदेश में आज अक्षय तृतीया के दिन बाल विवाहों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने हर साल की तरह इस बार भी बड़े चाक चौबंद इतंजाम किए हैं। राज्य के कलेक्टरों को बाल विवाह प्रतिषेध अधिकारी का दर्जा देकर विशेष दल बनाए गए हैं लेकिन अब ऐसी सरकारी सतर्कता चौंकाती नहीं है। चौंकाते तो वो तथ्य हैं, जिनकी बदौलत राज्य में बाल अधिकार कहीं गुम से गए हैं। सवाल यह है कि आखिर सारे सरकारी अभियान अखा तीज के ही दिन क्यों दिखाई पड़ते हैं? तमाम सरकारी और गैर सरकारी सव्रे बताते हैं कि प्रदेश में बाल विवाह के हालात बेकाबू हैं।
बाल विवाह के मामले में देश में मध्यप्रदेश चौथे नंबर पर है। तकरीबन 57.3 प्रतिशत बालिकाओं की शादी 18 साल से पहले हो जाती है। 20 जिले संवेदनशील हैं। मातृ मृत्यु दर का अनुपात प्रति लाख पर 335 है। शिशु मृत्यु दर प्रति हजार पर 70 है। 56फीसदी महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। 60 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। विशेषज्ञों का भी मानना है कि इन तमाम विडंबनाओं के पीछे कहीं न कहीं बाल विवाह भी जिम्मेदार है। यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रदेश में बाल विवाह के कारण 70 से 80 प्रतिशत लड़कियां कम उम्र में मां बन जाती हैं। प्रसव के दौरान ज्यादातर मरने वाली प्रसूताओं की उम्र 15 से 19 साल होती है। हालांकि यह अकेले मध्यप्रदेश का दर्द नहीं है। संकट तो राष्ट्रव्यापी है। यूनिसेफ की मानें तो भारत पूरी दुनिया में सबसे आगे है। विश्व में बाल विवाह की शिकार एक तिहाई महिलाएं अकेले भारत में हैं। देश में 47.4प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 साल के पूर्व हो जाता है। 69 प्रतिशत इस वैवाहिक प्रचलन के साथ देश में बिहार सबसे आगे है।
आंकड़ों की इस बानगी का आशय यह कि बाल विवाह सामाजिक मनोविज्ञान से जुड़ी एक विकट समस्या है। इसकी जड़ें मध्यकालीन मुगलशासन से जुड़ी हुई हैं। देश में हमलावर बनकर इन आक्रांताओं की यह आम धारणा थी कि बालिकाओं से देह संबंध मर्द को शतायु करता है। खुद के लिए पर्दा प्रथा लेकर आए इन विधर्मियों के कारण देश में अस्मिता की रक्षा के लिए घूंघट,सतीप्रथा और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों का जन्म हुआ,लेकिनअब भय कैसा? अब तो कानून का राज है मगर ऐसा नहीं है। दबंगों से अपनी बेटियों की इज्जत बचाने के लिए गांव के गरीब आज भी जल्दी से जल्दी बेटियों के हाथ पीले कर देना चाहते हैं। सामाजिक असुरक्षा की भावना इस कदर हावी है कि घर में बेटी के जन्म के साथ ही अभिभावकों को शादी की फिक्र सताने लगती है। ऐसे कि जैसे बेटी इस दुनिया में सिर्फ बच्चे पैदा कर उन्हें पालने पोसने ही आई हो। बेटी पराया धन है। घर में बोझ बन कर बैठी बेटी जितनी जल्दी अपने घर चली जाए अच्छा है, वर्ना जवानी में बहक गई तो समाज को क्या मुंह दिखाएंगे । ऑनर किलिंग जैसे बेहूदा समाज में बेटी के मां- बाप का जीना हराम है।
कहने को तो इस समस्या से निपटने के लिए हमारे पास बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम जैसे देशी कानून और संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार जैसे अंतरराष्ट्रीय करार हैं, लेकिन आंकड़ों की शक्ल में नतीजे हमारे सामने हैं। केंद्र ने 6 साल पहले नेशनल प्लॉन ऑफ एक्शन फॉर चिल्ड्रन के तहत 2010 तक देश से बालविवाह के खात्मे का संकल्प लिया था, लेकिन संकल्प के प्रति आस्था,समर्पण और प्रतिबद्धता की आत्म शक्ति कभी नहीं दिखी। अकेले कानून क्या कर लेगा? सामाजिक भागीदारी बहुत जरूरी है।

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