जैसे महात्मा गांधी की आत्मकथा रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता, वैसे ही नक्सली साहित्य रखने से कोई नक्सली कैसे हो सकता है.. छत्तीसगढ़ सरकार ऐसे कोई दस्तावेज या सबूत नहीं पेश कर पाई जो डॉ. विनायक सेन को देशद्रोही साबित करते हों..सुप्रीम कोर्ट की इस दो टूक टिप्पणी को आप आखिर किन अर्थो में परिभाषित करेंगे? विश्व के 40नोबल पुरस्कार विजेताओं के चहेते यह वही मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन हैं,जिन्हें एक साल पहले छत्तीसगढ़ की एक सेसन कोर्ट ने राष्ट्रदोह के इल्जाम में उम्र कैद की सजा सुनाई थी। कालांतर में जब हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के आदेश को बहाल रखा तो मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने विनायक को न केवल जमानत दे दी,वरन उन पर लगे देशद्रोह के खूनी धब्बे भी धो दिए ,लेकिन बात यही खत्म नहीं हुई। दरअसल, बात तो यहीं से शुरू होती है।
सवाल यह है कि न्याय जैसे संवेदनशील मामले में इस जनतांत्रिक देश के अंदर आखिर यह हो क्या रहा है? जब विनायक के खिलाफ राज्य सरकार के पास राष्ट्रदोह के पुख्ता सबूत थे ही नहीं तो फिर सेसन कोर्ट ने किस आधार पर उन्हे ताउम्र कैद की सजा सुना दी? सवाल यह भी कि आखिर इन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट ने भी कैसे निचली अदालत के इसी फैसले पर अपनी रजामंदी दे दी? कमाल है, विनायक के खिलाफ जिन आधारों पर सेसन सजा देती है,उन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट सहमत होता है और उन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट जमानत देकर राष्ट्रदोह के आरोपों को खारिज कर देती है। जाहिर है, सर्वोच्च अदालत के मातहत दोनों अदालतें कहीं न कहीं राज्य सरकार के प्रभुत्व से प्रेरित प्रतीत होती हैं। देश में निचले स्तर की न्यायिक सेवा में निरंतर आ रही गिरावट की यह एक और मिसाल है। ऐसे विसंगति पूर्ण न्यायिक फैसलों का यह कोई नया मामला नहीं है। अपहरण,हत्या और या फिर बलात्कार के किसी एक मामले में लोअर कोर्ट जिस आरोपी को जिन आधारों पर बाइज्जत बरी कर देती है,उसी आरोपी को उच्च अदालत उन्हीं आधारों पर सजा सुना देती है। यानी, आधार नहीं बदलते मगर फैसले बदल जाते हैं। फौरी तौर पर इसके उपाय नहीं सूझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज सबसे बड़ी फिक्र भी यही है, लेकिन न्यायिक सेवा के सुधार के सवाल पर उसकी भी अपनी वैधानिक बाध्यताएं हैं। तमाम मामलों में सर्वोच्च अदालत अपनी अधीनस्थ अदालतों को परिधि में रहने के प्रति कई बार आगाह कर चुकी है। वस्तुत:इस विसंगति की सबसे बड़ी वजह अदालतों पर जवाबदेही के सिद्धांत का लागू नहीं होना है। हमारी न्यायिक सेवाएं सत्ता से नियंत्रित हैं ।
सारे न्यायिक सुधार सत्ता को सहज रूप से स्वीकार तो हैं,मगर उसे यह मंजूर नहीं कि न्यायिक प्रणाली का नियंत्रण स्वायत्त स्वरूप में सामने आए। जबकि वक्त का तकाजा तो यही है कि हमारी संपूर्ण न्याय प्रणाली को स्वस्फूर्त बनाने के लिए उसे स्वायत्त शक्ति का अधिकार मिलना चाहिए। वर्ना यह बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार की तर्ज पर न्यायिक सुधारों का मसला भी एक बड़े जनांदोलन के तौर पर सामने आ सकता है। बेशक, न्याय की शक्ति से अंतत: जनतंत्र ही मजबूत होगा।
सवाल यह है कि न्याय जैसे संवेदनशील मामले में इस जनतांत्रिक देश के अंदर आखिर यह हो क्या रहा है? जब विनायक के खिलाफ राज्य सरकार के पास राष्ट्रदोह के पुख्ता सबूत थे ही नहीं तो फिर सेसन कोर्ट ने किस आधार पर उन्हे ताउम्र कैद की सजा सुना दी? सवाल यह भी कि आखिर इन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट ने भी कैसे निचली अदालत के इसी फैसले पर अपनी रजामंदी दे दी? कमाल है, विनायक के खिलाफ जिन आधारों पर सेसन सजा देती है,उन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट सहमत होता है और उन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट जमानत देकर राष्ट्रदोह के आरोपों को खारिज कर देती है। जाहिर है, सर्वोच्च अदालत के मातहत दोनों अदालतें कहीं न कहीं राज्य सरकार के प्रभुत्व से प्रेरित प्रतीत होती हैं। देश में निचले स्तर की न्यायिक सेवा में निरंतर आ रही गिरावट की यह एक और मिसाल है। ऐसे विसंगति पूर्ण न्यायिक फैसलों का यह कोई नया मामला नहीं है। अपहरण,हत्या और या फिर बलात्कार के किसी एक मामले में लोअर कोर्ट जिस आरोपी को जिन आधारों पर बाइज्जत बरी कर देती है,उसी आरोपी को उच्च अदालत उन्हीं आधारों पर सजा सुना देती है। यानी, आधार नहीं बदलते मगर फैसले बदल जाते हैं। फौरी तौर पर इसके उपाय नहीं सूझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज सबसे बड़ी फिक्र भी यही है, लेकिन न्यायिक सेवा के सुधार के सवाल पर उसकी भी अपनी वैधानिक बाध्यताएं हैं। तमाम मामलों में सर्वोच्च अदालत अपनी अधीनस्थ अदालतों को परिधि में रहने के प्रति कई बार आगाह कर चुकी है। वस्तुत:इस विसंगति की सबसे बड़ी वजह अदालतों पर जवाबदेही के सिद्धांत का लागू नहीं होना है। हमारी न्यायिक सेवाएं सत्ता से नियंत्रित हैं ।
सारे न्यायिक सुधार सत्ता को सहज रूप से स्वीकार तो हैं,मगर उसे यह मंजूर नहीं कि न्यायिक प्रणाली का नियंत्रण स्वायत्त स्वरूप में सामने आए। जबकि वक्त का तकाजा तो यही है कि हमारी संपूर्ण न्याय प्रणाली को स्वस्फूर्त बनाने के लिए उसे स्वायत्त शक्ति का अधिकार मिलना चाहिए। वर्ना यह बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार की तर्ज पर न्यायिक सुधारों का मसला भी एक बड़े जनांदोलन के तौर पर सामने आ सकता है। बेशक, न्याय की शक्ति से अंतत: जनतंत्र ही मजबूत होगा।
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