तीन सिविल जजों की बर्खास्तगी । चार अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीशों और दो सिविल जजों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति देकर घर बैठाने का मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का फैसला सिर्फ स्वागत योग्य ही नहीं अपितु आदरणीय और अनुकरणीय भी है। न्यायिक सेवा के दौरान इन न्यायाधीशों पर कैसे-कैसे संगीन आरोप थे, अब यह तथ्य अहम नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि जबलपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति सैयद रफत आलम की अध्यक्षता वाली फुल कोर्ट मीटिंग के इस सख्त फैसले पर राज्य सरकार के विधि एवं विधायी विभाग की फटाफट हरी झंडी उस वक्त मिली है, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर्वोच्च अदालत देश की 80 फीसदी निचली अदालतों की न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार से न केवल चिंतित है अपितु व्यथित भी है। नामवर समाजसेवी विनायक सेन को राष्ट्रदोही करार देने के मामले में पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और फिर अयोध्या के मंदिर मस्जिद मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट को सुप्रीमकोर्ट की कड़ी फटकार से उच्च न्यायिक सेवा व्यवस्था के विरूद्ध हाल के दिनों में जो जन संदेश गया था,बेशक जबलपुर उच्च न्यायालय की इस सख्ती से न्याय के प्रति आम आदमी के भरोसे को फिर से एक बड़ी ताकत मिली है। भारतीय समाज आज घोर सामाजिक असुरक्षा के जिस अराजक दौर से गुजर रहा है,वहां न्याय की उम्मीद अगर अभी भी बाकी है तो यह हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में इसका श्रेय शीर्ष न्यायिक व्यवस्था को ही जाता है। न्यायपालिका के मुकाबले आज अगर लोकतंत्र के दो और बुनियादी अंग कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के प्रति जनता का भरोसा टूटा है तो महज इसलिए क्योंकि इन दोनों ने निजी फायदे के लिए अपनी गरिमा को
बेंच खाने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। एक भ्रष्टतम सिस्टम के उद्भव और विकास में इन दोनों अंगों की भूमिका से भला निचले स्तर की न्यायपालिका कैसे अछूती रह सकती है लेकिन अगर अपवाद छोड़ दें तो हमारी उच्च अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय ने सदैव अपने दायित्वों को समझा है। काजल की कोठरी में बेदाब बने रहने की ऐसी मिसाल शायद ही दुनिया के दीगर लोकतांत्रिक देशों में देखने को मिलती हो। हमारी निचली अदालतों को भी इन लोकतांत्रिक मूल्यों का मान रखना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए की अपनी गरिमा की हिफाजत अपने ही हाथ होती है वर्ना मूल्यों का अवमूल्यन हुआ तो जनाक्रोश के सामने तमाम विशेषाधिकारों का काम तमाम होने में वक्त नहीं लगता है। खासकर भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसी निचली अदालतों को यह भी समझना होगा कि उनकी विभिन्न शक्तियां और विशेषाधिकार कहीं और नहीं बल्कि इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही निहित हैं और अगर खेती बाड़ खाने की तर्ज पर यूं ही जनतांत्रिक मूल्यों का दमन और शमन करती रही तो एक ऐसा भी दिन आएगा जब न लोक होगा और ना ही उसका तंत्र न्यायिक सेवा वस्तुत: लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं से जुड़ी सेवा है। यह किसी कॉरपोरेट कंपनी के लिए टेंडर फिक्स करने जैसी नौकरी नहीं है।
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