शनिवार, 14 मई 2011

समाज सेवा का एक और चेहरा


देश में सवरेदय के सूत्रधार संत विनोबा भावे ने कभी कहा था- अब सरकारी तंत्र में असर नहीं रहा। अब, कहीं असर है तो वो हैं, असरकारी संगठन ..मगर अफसोस, आज तस्वीर एकदम उलटी है। आज समाजसेवा मुनाफे का सौदा बनकर बैठ गई है और सामाजिक सरोकार से जुड़े उसके नैतिक मूल्य तकरीबन -तकरीबन तिरोहित हो चुके हैं। देश-प्रदेश में ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की भी लंबी फेहरिस्त है जो जनसेवा का स्वांग तो रचते हैं, लेकिन पोषित और नियंत्रित अंतत: सियासी संस्कारों से ही हैं। इनके अपनी कोई सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं है। प्रेसनोटजीवी ये स्वैच्छिक संगठन भारीभरकम सरकारी बजट से आदतन निजी हितों का पोषण करते हैं। कांग्रेस की आसरा हो या फिर भाजपा का आनंदधाम..ये दोनों कथित समाजसेवी संगठन अगर वयोवृद्ध दृष्टिहीन हरीश जैन के प्रति इस हद तक संवेदनशून्य हैं तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं । उम्र के इस नाजुक दौर में अपनों से ही छले गए एक बेसहारा, नि:शक्त और किस्मत के मारे इस बुजुर्ग का कसूर यही है कि वह आसरा और आनंदधाम जैसों के लिए फायदे का सौदा नहीं हैं लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि भौतिकता की भागमभाग में तेज रफ्तार राजधानी भोपाल की तहजीब को ये क्या होता जा रहा है? मानवीय पहलू से जुड़े ऐसे संवेदनशील मसलों को अंजाम तक पहुंचने की राजधानी के मुख्यधारा की मीडिया की रवायत को कहीं हम खोते तो नहीं जा रहे हैं? फुटपाथ पर फुटबाल बनी एक असहाय और बेजार जिंदगी को देखकर हमारा पत्थर दिल अब पसीजता क्यों नहीं है? आखिर अब हमारे क दम ठिठकते क्यों नहीं ?
वैश्वीकरण के इस दौर में जब हर मूल्य बिकाऊ है। समाज से परिवार टूट रहे हैं। परस्पर सामाजिक संबंधों का ताना-बाना बिखर रहा है। निजता में हमारी सामाजिकता शुतुरमुर्ग होगई है। खालिस लाभ-हानि पर टिकी निष्ठाओं के इस दौर में बेशक पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार और भी सघन हो जाते हैं। सामाजिक जवाबदेही हर किसी की बनती है। वह चाहे शासन हो या प्रशासन या फिर स्वयं भू समाजसेवी संगठन। इन्हें अब अपने दायित्वों को समझना ही होगा। आसरा और आनंदधाम जैसे चरित्र तो समाज सेवा के स्वांग का महज एक चेहरा हैं। सचमुच समाजसेवा मुनाफे का सौदा बन चुकी है। सेवा के नाम पर मेवा का यह खेल पूरे देश में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। सियासतदारों और नौकरशाहों की जुगलबंदी पर्दे के पीछे से यहां भी मलाई मार रही है। तकरीबन दो दशक पहले उदारीकरण की सामाजिक प्रक्रिया के तहत समाज के अंतिम छोर में खड़े आम आदमी को सामाजिक,आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के इरादे से समाजसेवी स्वैच्छिक संगठनों को यह दायित्व सौंपा गया था। तब यह माना गया था कि जमीनी स्तर पर बदलाव का यह नवाचार व्यावहारिक स्तर पर सरकारी मशीनरी के लिए मुमकिन नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त सामाजिक विकास के इस संकल्प को पलीता लग चुका है। लाभ के इस धंधें में गफलत इस कदर है कि हजार से भी ज्यादा समाजसेवी संगठन अकेले केंद्र सरकार की नजर में ब्लैक लिस्टेड हैं। हजारों -हजार कथित स्वयं सेवी संगठनों में 20 मिलियन समाजसेवी काम कर रहे हैं।

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