मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शैक्षणिक समीक्षा राज्य में शिक्षा में गुणात्मक सुधार की कोई खास उम्मीद नहीं जगाती है। अलबत्ता, बच्चों को स्कूल से जोड़ने की उनकी प्रलोभनकारी योजनाओं का जवाब नहीं है। चाहे वह शिक्षा से वंचित अनाथ बच्चों को छात्रवासों में पांच फीसदी कोटा आरक्षित करने का ताजा एलान हो या फिर इस साल पहली बार दूसरे गांव पढ़ाई करने करने जाने वाले बालकों को साइकिल गिफ्ट करने की बात। बेशक,छात्रओं को आगे की पढ़ाई से जोड़े रखने के लिए सरकार की साइकिल योजना के प्रदेश में सुखद नतीजे सामने आए हैं। तीन साल के अंदर राज्य में लगभग साढ़े 4 लाख छात्रओं को इस सरकारी योजना का लाभ मिला है, लेकिन ऐसे प्रलोभनकारी प्रयास कब तक और कितने टिकाऊ साबित होंगे? यह कह पाना जरा कठिन है। मिड-डे मिल का हाल किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा में गुणात्मक सुधार के सवाल पर केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया प्राय: प्रयोगवादी रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की रोजगार मूलक नई शिक्षा नीति रही हो या शिक्षा का लोकव्यापी करण, सर्वशिक्षा अभियान या फिर पालक-शिक्षक संघ जैसे जनभागीदारी के प्रायोगिक प्रयास लेकिन बुनियादी शिक्षा के विकास की राह में हम बहुत आगे नहीं जा पाए हैं।
कहने को तो अब शिक्षा के अधिकार की गारंटी भी हमारे साथ है,लेकिन पूरे एक साल बाद नतीजा अंतत: शिफर ही है। मध्यप्रदेश में इस कानून के पालन में अभी और कितना वक्त लगेगा? सरकार के पास भी इसका जवाब नहीं है। दरअसल ,प्रदेश में जमीनी स्तर पर हम अभी तक शिक्षा का पुख्ता और भरोसेमंद आधारभूत ढांचा नहीं तैयार कर पाए हैं। संसाधनों की भारी कमी है। राज्य में नि:शुल्क और बाल शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए 1 लाख 36 सौ से भी ज्यादा ऐसे शिक्षकों की जरूरत है, जो अकादमिक प्राधिकारी राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के मानकों की कसौटी पर खरे हों। प्रदेश में पहले से ही 60 हजार शिक्षकों की कमी है। शिक्षा विभाग नए मानकों पर खाली पदों को भरने के लिए एक साल बाद भी मौजूदा नियमों को संशोधित तक नहीं कर पाया है। सच तो यह है कि हमारा शैक्षणिक ढांचा शिक्षा की गारंटी का बोझ बर्दाश्त करने की हालत में ही नहीं है। राज्य के साढ़े 14 हजार प्राथमिक और डेढ़ हजार मिडिल स्कूलों में सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। इन स्कूलों में लगभग 25 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
मध्यप्रदेश के 50 प्रतिशत सरकारी स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर मानकों को पूरा नहीं करता है। 75 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान तो दूर शौचालय तक नहीं हैं। राज्य में बहुतायत शैक्षणिक अमला बेलगाम है। ग्रामीण अंचलों में पदस्थ शिक्षक प्राय: अपने पदस्थापना वाले स्थलों पर नहीं रहते हैं। मिसाल के तौर पर राजधानी भोपाल में लगभग 5 सौ ऐसे शिक्षक हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव के दम पर 50 किलोमीटर के दायरे में अपनी पदस्थापना कर रखी है। नौकरी इनकी मर्जी पर निर्भर है। हर शिक्षक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए शहरी क्षेत्रों में रहना चाहता है। कोई दूसरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए गांव नहीं जाना चाहता। इन पर शिक्षा विभाग का जोर नहीं है क्योंकि सबके अपने सियासी जुगाड़ हैं। इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए।
कहने को तो अब शिक्षा के अधिकार की गारंटी भी हमारे साथ है,लेकिन पूरे एक साल बाद नतीजा अंतत: शिफर ही है। मध्यप्रदेश में इस कानून के पालन में अभी और कितना वक्त लगेगा? सरकार के पास भी इसका जवाब नहीं है। दरअसल ,प्रदेश में जमीनी स्तर पर हम अभी तक शिक्षा का पुख्ता और भरोसेमंद आधारभूत ढांचा नहीं तैयार कर पाए हैं। संसाधनों की भारी कमी है। राज्य में नि:शुल्क और बाल शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए 1 लाख 36 सौ से भी ज्यादा ऐसे शिक्षकों की जरूरत है, जो अकादमिक प्राधिकारी राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के मानकों की कसौटी पर खरे हों। प्रदेश में पहले से ही 60 हजार शिक्षकों की कमी है। शिक्षा विभाग नए मानकों पर खाली पदों को भरने के लिए एक साल बाद भी मौजूदा नियमों को संशोधित तक नहीं कर पाया है। सच तो यह है कि हमारा शैक्षणिक ढांचा शिक्षा की गारंटी का बोझ बर्दाश्त करने की हालत में ही नहीं है। राज्य के साढ़े 14 हजार प्राथमिक और डेढ़ हजार मिडिल स्कूलों में सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। इन स्कूलों में लगभग 25 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
मध्यप्रदेश के 50 प्रतिशत सरकारी स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर मानकों को पूरा नहीं करता है। 75 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान तो दूर शौचालय तक नहीं हैं। राज्य में बहुतायत शैक्षणिक अमला बेलगाम है। ग्रामीण अंचलों में पदस्थ शिक्षक प्राय: अपने पदस्थापना वाले स्थलों पर नहीं रहते हैं। मिसाल के तौर पर राजधानी भोपाल में लगभग 5 सौ ऐसे शिक्षक हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव के दम पर 50 किलोमीटर के दायरे में अपनी पदस्थापना कर रखी है। नौकरी इनकी मर्जी पर निर्भर है। हर शिक्षक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए शहरी क्षेत्रों में रहना चाहता है। कोई दूसरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए गांव नहीं जाना चाहता। इन पर शिक्षा विभाग का जोर नहीं है क्योंकि सबके अपने सियासी जुगाड़ हैं। इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए।
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