सोमवार, 30 मई 2011

शिक्षा में गुणात्मक सुधारों की असलियत


पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष माध्यमिक शिक्षा मंडल की दसवीं कक्षा के नतीजे 6 फीसदी बेहतर होने के बाद भी बेहद निराश करते हैं। सीधे-सीधे समङों तो प्रदेश का पूरा परीक्षा परिणाम सेकंड क्लास है। सर्वाधिक 25.30 फीसदी विद्यार्थियों को द्वितीय श्रेणी की सफलता मिली है। सिर्फ 17.76 प्रतिशत विद्यार्थी ही प्रथम श्रेणी में पास हैं। नाकामी कहें या कामयाबी ,यह आंकड़ा स्थायी विद्यार्थियों से संबद्ध है। इतना ही नहीं बतौर अपवाद अगर प्रावीण्य सूची में मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर के दो विद्यार्थियों की सफलता को छोड़ दें तो राज्य की राजधानी भोपाल का पत्ता साफ है। और तो और, प्रदेश की औद्योगिक राजधानी तथा एजूकेशनल हब इंदौर के विद्याथिर्र्यो को इस मामले में लगातार छठवें साल भी निराशा ही हाथ लगी है। अलबत्ता ,मेरिट लिस्ट में कस्बाई बच्चों ने एक बार फिर से नाक बचाई है। दुर्भाग्य पूर्ण तो यह है कि मध्यप्रदेश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में तमाम कथित गुणात्मक सुधारों की बड़ी-बड़ी बातों के बाद भी सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी क्षेत्र के पब्लिक स्कूलों के विद्यार्थियों का प्रदर्शन तकरीबन 3 फीसदी बेहतर रहा है। दसवीं की बोर्ड परीक्षा के ये परिणाम यह बताने के लिए काफी हैं कि प्रदेश में पढ़ाई का स्तर आखिर क्या है? प्रावीण्य सूची से राज्य के बड़े शहरों के बच्चों का यूं गायब होना वस्तुत: कोई चौंकाने वाले तथ्य नहीं है। बड़े शहरों में सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी स्कूल(सीबीएसई) का चलन बढ़ने से माध्यमिक शिक्षा मंडल पहले ही बड़ी तादाद में ही निजी क्षेत्र के अच्छे स्कूलों से हाथ धो चुका है। अभिभावकों का रूझान भी तेजी से सीबीएसई की ओर बढ़ा है। इस बीच पीएमटी और पीईटी की जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के मामले में कस्बाई बच्चों की तुलना में बड़े शहरो के बच्चे ज्यादा जागरूक हैं ,लेकिन चिंता का विषय तो यह है कि राज्य का स्कूल शिक्षा विभाग आखिर तमाम कोशिश के बाद भी शिक्षा में गुणात्मक सुधार की गारंटी क्यों नहीं दे पा रहा है? असलियत यह भी है कि मध्यप्रदेश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए अभी तक अब हम न तो मूलभूत सुविधाएं जुटा पाए हैं और ना ही बुनियादी समस्याओं का समाधान कर पाए हैं। अभी भी हम राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के छात्र -शिक्षक अनुपात के तय मापदंड से बहुत दूर हैं। प्रदेश में शिक्षा के अधिकार के कानून की शर्मनाक विफलता का भी यही कारण है। स्कूल शिक्षा विभाग के पास अकादमिक सुधार के लिए योग्य मैदानी अफसरों का अकाल है। यह चौंकाने वाला तथ्य ही है कि प्रौढ़ शिक्षाधिकारियों से तरक्की दे कर जिला शिक्षाधिकारी बनाए गए ज्यादातर शीर्ष शैक्षणिकअफसर बीएड तक नहीं हैं। अंग्रेजी और गणित के अध्यापकों का नितांत अभाव है। अंग्रेजी के तो अतिथि शिक्षक ढूढे नहीं मिल रहे हैं। आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से जहां नौवीं की कक्षा में कमजोर छात्रों की संख्या बढ़ी है वहीं अध्यापकों की जवाबदेही भी नहीं रह गई है। एक्सीलेंस स्कूलों की गुणवत्ता देखने वाला कोई नहीं है। खराब परीक्षा परिणामों को रोकने के लिए अच्छे परिणामों का लक्ष्य देने और घटिया प्रदर्शन पर दंड जैसा प्रावधान भी नहीं है। ऐसे में आखिर अच्छे परिणाम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

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