असम विधान सभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार फिर से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने से चूक गए। पीएम और उनकी पत्नी असम के दिसपुर विधानसभा क्षेत्र के मतदाता हैं। दरअसल मनमोहन चीन और कजाकिस्तान के दौरे की जल्दबाजी में थे।असम से राज्यसभा के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ ऐसा यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने वोट नहीं डाला था। यह दीगर बात है कि बावजूद इसके पांच राज्यों के लिए हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले दौर में असम में तकरीबन 71फीसदी मतदाताओं ने मतदान कर लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था जताई ,मगर यह मतदान के प्रति आम मतदाता की दिलचस्पी का अपवाद हैऔर आम चुनावों में गिरता वोट रेट गंभीर चिंता का विषय ।
जब भारत के प्रधानमंत्री ही अपने वोट के मूल्य का स्वयं ही अवमूल्यन कर रहे हों तो ऐसे में आम मतदाता का क्या दोष? पिछले दो दशक के दौरान मतदान के प्रति आम मतदाता की अरुचि जिस कदर बढ़ी है, उसने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। यही वजह है कि आज चुनाव सुधारों की जरूरत को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है। तेजी के साथ बदले राजनीतिक आचरण से आहत आम जनमानस का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा उठा है। चुनावों के दौरान प्रत्याशी चयन के सवाल पर प्राय: विकल्प का संकट सामने आ जाता है। मतदान के दौरान मतदाता को प्रत्याशी ठीक लगता है, तो दल नहीं और दल के प्रति आस्था होती है तो उम्मीदवार नहीं जमता। एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ..सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के दिलो-दिमाग में तेजी के साथ बनती यह छवि अच्छे संकेत नहीं देती है।
ख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे की भी कमोबेश यही फिक्र है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए केंद्र सरकार को झुकाने वाले अण्णा के भविष्य के एजेंडे में चुनाव सुधारों की पहल भी शामिल है। जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार के इस लोकतांत्रिक फार्मूले में निर्वाचन प्रक्रिया की भूमिका जग जाहिर है। कहना न होगा कि सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नए सिरे से समूची निर्वाचन प्रक्रिया के पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है। अण्णा को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर भरोसा नहीं है। वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को सौंपना चाहते हैं। प्रत्याशी तय करने की कमान भी अण्णा जनता के हाथों में सौंप कर उम्मीदवारों के बहुतेरे विकल्प खोलने की लाइन पर काम कर रहे हैं,लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता सुख भोग रहे हमारे सियासतदारों को गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और मतदान के प्रति आम मतदाता की बढ़ती अरुचि में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्या इस पर फिक्र उनकी जिम्मेदारी नहीं है? बात-बात पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाले इन सियासतदारों को समझना चाहिए कि अगर उनमें नैतिक मूल्य नहीं रहे तो सबसे पहले लोकतांत्रिक मूल्यों का ही अवमूल्यन होगा,और ऐसी हालत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र का इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
जब भारत के प्रधानमंत्री ही अपने वोट के मूल्य का स्वयं ही अवमूल्यन कर रहे हों तो ऐसे में आम मतदाता का क्या दोष? पिछले दो दशक के दौरान मतदान के प्रति आम मतदाता की अरुचि जिस कदर बढ़ी है, उसने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। यही वजह है कि आज चुनाव सुधारों की जरूरत को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है। तेजी के साथ बदले राजनीतिक आचरण से आहत आम जनमानस का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा उठा है। चुनावों के दौरान प्रत्याशी चयन के सवाल पर प्राय: विकल्प का संकट सामने आ जाता है। मतदान के दौरान मतदाता को प्रत्याशी ठीक लगता है, तो दल नहीं और दल के प्रति आस्था होती है तो उम्मीदवार नहीं जमता। एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ..सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के दिलो-दिमाग में तेजी के साथ बनती यह छवि अच्छे संकेत नहीं देती है।
ख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे की भी कमोबेश यही फिक्र है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए केंद्र सरकार को झुकाने वाले अण्णा के भविष्य के एजेंडे में चुनाव सुधारों की पहल भी शामिल है। जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार के इस लोकतांत्रिक फार्मूले में निर्वाचन प्रक्रिया की भूमिका जग जाहिर है। कहना न होगा कि सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नए सिरे से समूची निर्वाचन प्रक्रिया के पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है। अण्णा को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर भरोसा नहीं है। वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को सौंपना चाहते हैं। प्रत्याशी तय करने की कमान भी अण्णा जनता के हाथों में सौंप कर उम्मीदवारों के बहुतेरे विकल्प खोलने की लाइन पर काम कर रहे हैं,लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता सुख भोग रहे हमारे सियासतदारों को गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और मतदान के प्रति आम मतदाता की बढ़ती अरुचि में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्या इस पर फिक्र उनकी जिम्मेदारी नहीं है? बात-बात पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाले इन सियासतदारों को समझना चाहिए कि अगर उनमें नैतिक मूल्य नहीं रहे तो सबसे पहले लोकतांत्रिक मूल्यों का ही अवमूल्यन होगा,और ऐसी हालत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र का इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
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