विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी, भोपाल गैस कांड के सात अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर अगर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की सुधारात्मक याचिका एक झटके में खारिज कर दी तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? सीबीआई के पास इस संजीदा सवाल का जवाब क्यों नहीं है कि डेढ़ दशक बाद आखिर ,उसे यह उपचारात्मक याचिका दायर करने की जरूरत क्यों पड़ी? एक बड़ा सवाल यह भी है कि एकबारगी आखिर ऐसा कौन सा चमत्कार हुआ कि पत्थर दिल सीबीआई रहस्यमयी अंदाज में गैस पीड़ितों की हमदर्द बन गई?
याद करें,1996 में इसी मामले में इसी सर्वोच्च अदालत के तबके जस्टिस एच अहमदी की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय बेंच ने इसी सीबीआई की चाजर्शीट पर इन्हीं आरेापियों के खिलाफ लगी आईपीसी की धारा 304(2) हटाकर 304 ए में तब्दील कर दी थी। लिहाजा, आरोपियों के खिलाफ लापरवाही का मामला चला और उन्हें दो साल की सजा मिली। सुप्रीम कोर्ट के सामने साजिशन इस केस को कमजोर और कमतर करने वाली यही सीबीआई आखिर अर्सा बाद इन्हीं अभियुक्तों पर अब गैर इरादन हत्या का केस चला कर दस साल की सजा क्यों दिलाना चाहती है? वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि गैस कांड के अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के इस आदेश से गैस पीड़ितों पर भले ही पहाड़ टूट पड़ा हो ,लेकिन इससे कम से कम केंद्रीय जांच ब्यूरो को तो ज्यादा से ज्यादा राहत मिली है। कुल मिलाकर सीबीआई अपने मंसूबों में कामयाब रही है। भोपाल गैस कांड के मामले में अमेरिकी दबाव के आगे हमारी लोकतांत्रिक सरकारों का चरित्र किसी से छिपा नहीं है।
इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम विकीलीक्स के खुलासों पर गौर करें तो हत्यारिन अमेरिकन कंपनी यूनियन कार्बाइड और डाऊ केमिकल्स एक बार फिर से भारत के बाजार में अपने पांव जमाना चाहती हैं। ये दोनों अमेरिकन कंपनियां कीट नाशक दवाओं का उत्पादन करती हैं और कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत इनके लिए एक बड़ा बाजार है। साख के साथ दुनिया में कारोबार के हिमायती अमेरिका की हमेशा यही कोशिश रही है कि किसी भी कीमत पर भोपाल गैस कांड के मामले में यूसीआईएल को क्लीन चिट मिल जाए। भारत सरकार पर अमेरिकन दबाव और सीबीआई की भूमिका के चलते आज नतीजा सबके सामने है। मामले को पहले से ही साजिशन बुनियादी तौर पर कमजोर कर चुकी सीबीआई भी यह बखूबी जानती है कि दुनिया की कोई भी अदालत अब अभियुक्तों को सख्त सजा का प्रावधान नहीं कर सकती है। अदालतें कानूनी परिधि के निश्चित प्रावधानों के तहत तथ्यों-तर्को ,साक्ष्यों और गवाहों की बुनियाद पर फैसले लेती हैं । इस असलियत से वाकिफ होने के बाद भी अगर सीबीआई डेढ़ दशक बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंची है, तो उसका इरादा साफ है। यही वजह है कि आज सीबीआई के पास सर्वोच्च अदालत के एक अदद संगीन सवाल का कोई जवाब नहीं है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इस मामले में सीबीआई की भूमिका से अप्रत्यक्षत: हत्यारिन अमेरिकन कंपनी को वॉकओवर ही मिला है। क्या यह, इस कातिल कंपनी को कानूनी तौर पर क्लीन चिटा दिला देने जैसा नहीं है, ताकि भारत में पूरी बाजारू साख के साथ एक बार फिर इसके कारोबार का रास्ता साफ हो जाए।
याद करें,1996 में इसी मामले में इसी सर्वोच्च अदालत के तबके जस्टिस एच अहमदी की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय बेंच ने इसी सीबीआई की चाजर्शीट पर इन्हीं आरेापियों के खिलाफ लगी आईपीसी की धारा 304(2) हटाकर 304 ए में तब्दील कर दी थी। लिहाजा, आरोपियों के खिलाफ लापरवाही का मामला चला और उन्हें दो साल की सजा मिली। सुप्रीम कोर्ट के सामने साजिशन इस केस को कमजोर और कमतर करने वाली यही सीबीआई आखिर अर्सा बाद इन्हीं अभियुक्तों पर अब गैर इरादन हत्या का केस चला कर दस साल की सजा क्यों दिलाना चाहती है? वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि गैस कांड के अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के इस आदेश से गैस पीड़ितों पर भले ही पहाड़ टूट पड़ा हो ,लेकिन इससे कम से कम केंद्रीय जांच ब्यूरो को तो ज्यादा से ज्यादा राहत मिली है। कुल मिलाकर सीबीआई अपने मंसूबों में कामयाब रही है। भोपाल गैस कांड के मामले में अमेरिकी दबाव के आगे हमारी लोकतांत्रिक सरकारों का चरित्र किसी से छिपा नहीं है।
इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम विकीलीक्स के खुलासों पर गौर करें तो हत्यारिन अमेरिकन कंपनी यूनियन कार्बाइड और डाऊ केमिकल्स एक बार फिर से भारत के बाजार में अपने पांव जमाना चाहती हैं। ये दोनों अमेरिकन कंपनियां कीट नाशक दवाओं का उत्पादन करती हैं और कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत इनके लिए एक बड़ा बाजार है। साख के साथ दुनिया में कारोबार के हिमायती अमेरिका की हमेशा यही कोशिश रही है कि किसी भी कीमत पर भोपाल गैस कांड के मामले में यूसीआईएल को क्लीन चिट मिल जाए। भारत सरकार पर अमेरिकन दबाव और सीबीआई की भूमिका के चलते आज नतीजा सबके सामने है। मामले को पहले से ही साजिशन बुनियादी तौर पर कमजोर कर चुकी सीबीआई भी यह बखूबी जानती है कि दुनिया की कोई भी अदालत अब अभियुक्तों को सख्त सजा का प्रावधान नहीं कर सकती है। अदालतें कानूनी परिधि के निश्चित प्रावधानों के तहत तथ्यों-तर्को ,साक्ष्यों और गवाहों की बुनियाद पर फैसले लेती हैं । इस असलियत से वाकिफ होने के बाद भी अगर सीबीआई डेढ़ दशक बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंची है, तो उसका इरादा साफ है। यही वजह है कि आज सीबीआई के पास सर्वोच्च अदालत के एक अदद संगीन सवाल का कोई जवाब नहीं है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इस मामले में सीबीआई की भूमिका से अप्रत्यक्षत: हत्यारिन अमेरिकन कंपनी को वॉकओवर ही मिला है। क्या यह, इस कातिल कंपनी को कानूनी तौर पर क्लीन चिटा दिला देने जैसा नहीं है, ताकि भारत में पूरी बाजारू साख के साथ एक बार फिर इसके कारोबार का रास्ता साफ हो जाए।
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