आजादी के बाद से ही भारतीय समाज की आंखों में सुराज का सपना पल रहा है। हमारी संस्कृति और संस्कारों मे जमाने से पल रही रामराज की परिकल्पना का संभवत: यह आधुनिक अर्थ है,लेकिन इसी आशय के अत्याधुनिक अर्थो को कालांतर में त्रिस्तरीय पंचायती राज की संज्ञा दी गई। सत्ता के विकेंद्रीय करण के नाम पर आज देश के अंदर इस व्यवस्था की क्या दशा है? यह व्यथा किसी से छिपा नहीं है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में हमने समता मूलक समाजवाद के संकल्प को स्वीकार किया है। कहना न होगा कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्थतागत भटकाव में भ्रष्टाचार हमारी सबसे बड़ी विडंबना रही है। यही वजह है कि जनलोकपाल के सवाल पर हाल ही में हमने देश के अंदर एकबारगी जितना बड़ा बदलाव देखा वैसा बदलाव इससे पहले संभवत: दुनिया के किसी भी देश में पहले कभी नहीं देखा गया है। बेशक, अण्णा आंदोलन के अपने राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं, लेकिन इतना तय है कि अकेले कानून बना देने से कुछ भी नहीं होने वाला है। देश में कानूनों की कमी नहीं है, अगर कमी है तो इन कानून कायदों को स्वीकार करने और ईमानदारी के साथ क्रियान्वित करने की। जब कोई प्रस्ताव ,विधेयक का रूप लेने के बाद कानून बनने प्रकिया पूरी करता है तो प्राय: वह दो चुनौतियों से गुजर रहा होता है। एक तो यह कि वह व्यावहारिक तौर पर कितना स्वाभाविक है और दूसरा यह कि क्या वह वास्तव में पूरी सरलता के साथ क्या उन हितों का पोषण करता है, जिनके लिए उसे बनाया गया है।
मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित विशेष न्यायालय विधेयक में ऐसी ही विसंगतियां मौजूद हैं। भ्रष्टाचारियों पर सख्त लगाम लगाने के लिए प्रस्तावित यह विधेयक यूं तो सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और पंचायत सचिव से लेकर प्रमुख सचिव तक को अपने दायरे में लेता है। इसमें काली कमाई को राजसात करते हुए उसे सरकारी मद में खर्च करने और खासकर ऐसे आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का प्रस्ताव है ,लेकिन इस विधेयक की एक बड़ी व्यावहारिक विसंगति यह है कि आरोप की जांच और चाजर्शीट पेश करने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। आमतौर पर ऐसी विसंगतियां सुनियोजित होती हैं और अंतत: ये वही कारण होते हैं जो आगे चलकर या तो अप्रकट रूप से कानून को कमजोर कर देते हैं या फिर आरोपी को संदेह का लाभ देते हैं। आशय यह कि जनलोकपाल बिल की सार्थकता तभी होगी जब इसके लिए तैयार किए जाने वाले प्रारूप को इन व्यावहारिक विसंगतियों से बचाया जाए। वर्ना एक और कानून का कोई अर्थ नहीं होगा। वैसे इन कानूनी प्रावधानों से इतर एक आदर्श समाज की बुनियादी शर्त क्या हो सकती है? एक ऐसा समाज जो स्वस्फूर्त हो,जिसे चलाने के लिए किसी कानून की जरूरत न हो और अगर उसे चलाने के लिए कानून की अनिवार्यता है तो उसे एक आदर्श समाज की पात्रता कैसे मिल सकती है? बेहतर हो हर हिंदुस्तानी एक ऐसे ही आदर्श समाज के निर्माण का संकल्प लें।
मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित विशेष न्यायालय विधेयक में ऐसी ही विसंगतियां मौजूद हैं। भ्रष्टाचारियों पर सख्त लगाम लगाने के लिए प्रस्तावित यह विधेयक यूं तो सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और पंचायत सचिव से लेकर प्रमुख सचिव तक को अपने दायरे में लेता है। इसमें काली कमाई को राजसात करते हुए उसे सरकारी मद में खर्च करने और खासकर ऐसे आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का प्रस्ताव है ,लेकिन इस विधेयक की एक बड़ी व्यावहारिक विसंगति यह है कि आरोप की जांच और चाजर्शीट पेश करने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। आमतौर पर ऐसी विसंगतियां सुनियोजित होती हैं और अंतत: ये वही कारण होते हैं जो आगे चलकर या तो अप्रकट रूप से कानून को कमजोर कर देते हैं या फिर आरोपी को संदेह का लाभ देते हैं। आशय यह कि जनलोकपाल बिल की सार्थकता तभी होगी जब इसके लिए तैयार किए जाने वाले प्रारूप को इन व्यावहारिक विसंगतियों से बचाया जाए। वर्ना एक और कानून का कोई अर्थ नहीं होगा। वैसे इन कानूनी प्रावधानों से इतर एक आदर्श समाज की बुनियादी शर्त क्या हो सकती है? एक ऐसा समाज जो स्वस्फूर्त हो,जिसे चलाने के लिए किसी कानून की जरूरत न हो और अगर उसे चलाने के लिए कानून की अनिवार्यता है तो उसे एक आदर्श समाज की पात्रता कैसे मिल सकती है? बेहतर हो हर हिंदुस्तानी एक ऐसे ही आदर्श समाज के निर्माण का संकल्प लें।
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