मंगलवार, 17 मई 2011

भुखमरी में मेरा भारत महान


दुनिया में सुपर पावर का दिवास्वप्न देखने वाले इस देश के लिए इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या होगी कि आजादी के 6 दशक बाद भी सर्वोच्च अदालत को गरीबी और भुखमरी जैसे मसलों पर अपना कीमती वक्त जाया करना पड़े। उसे केंद्रीय सत्ता से भूख से मौतें न होने की गारंटी लेनी पड़े और राज्यों को भी इस बावत सख्त ताकीद देनी पड़े। यह और भी शर्मनाक है कि भारत सरकार के पास देश में भुखमरी की शिकार गरीब आबादी का वास्तविक आंकड़ा तक उपलब्ध नहीं है। योजना आयोग को भी यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि इसका कोई आधिकारिक अनुमान संभव नहीं है। केंद्र सरकार बीपीएल परिवारों के साढ़े 6 करोड़ के जो आंकड़े दिखाती रही है, उससे राज्यों की सरकारें सहमत नहीं हैं। राज्य सरकारों के दावे के अनुसार ऐसे परिवारों की तादाद 11 करोड़ से कम नहीं है। जाहिर है इस मतभेद के लिए योजना आयोग जिम्मेदार है? यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि योजना आयोग बीपीएल परिवारों के अपने तय मानकों पर पुनर्विचार करे।
दरअसल, असलियत तो यह है कि भूख और भुखमरी को कोई भी सरकार स्वीकार नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उसकी सिर्फ नाकामी ही नहीं इस मद पर कागजों पर खर्च होने वाले करोड़ों के बजट के हिसाब का भी सवाल उठता है। गरीबी उन्मूलन के लिए भारत सरकार के 4 मंत्रलय 22 योजनाएं चलाते हैं। यूनिसेफ की मानें तो कुपोषण से भारत में हर साल पांच हजार बच्चों की मौत हो जाती है। सुरेश तेंदुलकर समिति पहले ही देश की 37 प्रतिशत आबादी को गरीबी रेखा के नीचे मान चुकी है। इससे और भी पहले अर्जुन सेनगुप्ता समिति इस तथ्य का खुलासा कर चुकी है कि 77 प्रतिशत जनता रोजाना 20 रुपए से अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के दावे के मुताबिक भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है। यह स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। अंतरराष्ट्रीय संस्था एक्शन एड की एक और रिपोर्ट -हू इज रियली फाइटिंग हंगर के मुताबिक भारत में भुखमरी का कारण खाद्यान्न के उत्पादन में कमी नहीं बल्कि गरीबों की क्र य क्षमता में कमी का आना है।
इसे भी विडंबना ही कहेंगे कि रिकार्ड उत्पादन के बाद भी जहां लाखों टन गेहूं भारतीय खाद्य निगम की गोदामों में सड़ जाता है, वहीं हर रोज 32 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे सो जाते हैं, लेकिन भारत सरकार इन तमाम दावों को हमेशा सिरे से नकारती रही है। यहां इन तमाम आंकड़ों की बानगी का आशय सिर्फ इतना ही है कि क्या बदनीयती से भूख की असलियत मारी जा सकती है? इस विकट संकट के सिर्फ दो ही निदान हैं,या तो सरकार अपने दायित्वों को नेकनियती के साथ समङो या फिर संविधान में संशोधन कर भोजन को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया जाए। वैसे भी यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार में निहित है। ऐसे में सरकार हर व्यक्ति को भोजन उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कानूनी तौर पर मजबूर हो जाएगी। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह ब्राजील की तरह भारत को भी शून्य भूख का लक्ष्य निर्धारित कर योजनाएं तैयार करे और उस पर अविलंब अमल शुरू करे। वर्ना वह दिन दूर नहीं जब हम रोटी के लिए भड़के दंगों को संभाल नहीं पाएंगे। सच को स्वीकार कर लेने में ही समझदारी है। अभी थोड़ा सा वक्त है।

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