भारत यूं ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं है। यहां का आम मतदाता अशिक्षित,उपेक्षित और असहाय भले ही हो, लेकिन वह अपने मत का मूल्य बखूबी जानता है। मसलन-राष्ट्रीय राजनीति के दो अहम राज्य तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनावी नतीजे सामने हैं। एक ओर एआईएडीएमके की जे.जयललिता जहां अभूतपूर्व बहुमत के साथ तीसरी बार सत्ता में लौटी हैं, वहीं दूसरी ओर तृणमूल की ममता बनर्जी ने 34 साल से छाए वामपंथी मोर्चे का सफाया करके इतिहास रच दिया है।
अब देखना यह है कि तमिलनाडु और असम में बने ताजा सियासी समीकरण केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए )सरकार की चाल और चरित्र को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? चौतरफा भ्रष्टाचार से जूझ रही कांग्रेस क्या, करूणानिधि की द्रमुक के साथ अपने 6 साल पुराने राजनीतिक रिश्तों की अब नई इबारत लिखेगी? क्या लगे हाथ इन नतीजों ने केंद्र में एक नए तूफानी नाटक की भूमिका नहीं लिख दी है? उधर ममता ने परिणाम आने के साथ ही रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखने की मांग करके इस आशय के संकेत दे दिए हैं कि वह अपनी ही शर्तो पर रिश्ता चलाएंगी। राजनीतिक मामलों के जानकारों की राय में चूंकि कांग्रेस को द्रमुक और द्रमुक को कांग्रेस की जरूरत है, लिहाजा गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा,लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में द्रमुक का सफाया 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे भारी भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश है। अगर कांग्रेस इस जनादेश का सम्मान नहीं करती है तो लोकसभा के आसन्न आम चुनावों में उसे भी द्रमुक जैसी खासी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में इन दिनों अपने लिए फिलहाल सियासी जमीन तलाश रही कांग्रेस की भलाई अब इसी में है कि वह वक्त रहते करूणानिधि एंड कंपनी से अपना पिंड छुड़ा ले। बेशक, यह दौर द्रमुक के इतिहास का सबसे विकट दौर है और अगर उसे ये दिन देखने पड़ रहे हैं तो यह सब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की तरह उसी के पापों का ही परिणाम है। गठबंधन की मजबूरियों के चलते ही सही लेकिन कांग्रेस के पास आज ईमानदारी से अपना कोई लोकलुभावन चुनावी एजेंडा नहीं है। भ्रष्टाचार और महंगाई समेत तमाम संजीदा चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के पास राजनीति के सामरिक मोर्चे पर खड़े सवालों का जवाब नहीं है। कांग्रेस के पास डैमेज कंट्रोल का अब इससे बेहतर कोई और अवसर नहीं मिल सकता है। खासकर भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी सियासी शुचिता साबित करने के लिए अब वह द्रमुक के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी करने की हैसियत में है। अक्सर द्रमुक के हाथों ब्लैकमेल होती रही कांग्रेस अब द्रमुक के सभी आधा दर्जन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उसे बाहर से ही बगैर शर्त समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। देश में एक अच्छा संदेश देने के इस शानदार अवसर को कांग्रेस शायद ही हाथ से जाने देगी। यूपीए सरकार को द्रमुक के 18 सांसदों का समर्थन हासिल है। इस एवज में उसके आधा दर्जन मंत्री हैं,अगर द्रमुक -कांग्रेस गठबंधन टूटता भी है तो अब केंद्र सरकार खतरे से बाहर है। समाजवादी पार्टी पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। सपा के पास 22 सांसद हैं और अमरसिंह बाहर भी हैं। यूपी में अकेली एड़ियां रगड़ रही कांग्रेस के लिए यह नया गठबंधन एक तीर से दो निशाने जैसा हो सकता है। कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि विधान सभा के इन चुनावों ने केंद्र में एक नए सियासी नाटक की भूमिका लिख दी है।
अब देखना यह है कि तमिलनाडु और असम में बने ताजा सियासी समीकरण केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए )सरकार की चाल और चरित्र को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? चौतरफा भ्रष्टाचार से जूझ रही कांग्रेस क्या, करूणानिधि की द्रमुक के साथ अपने 6 साल पुराने राजनीतिक रिश्तों की अब नई इबारत लिखेगी? क्या लगे हाथ इन नतीजों ने केंद्र में एक नए तूफानी नाटक की भूमिका नहीं लिख दी है? उधर ममता ने परिणाम आने के साथ ही रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखने की मांग करके इस आशय के संकेत दे दिए हैं कि वह अपनी ही शर्तो पर रिश्ता चलाएंगी। राजनीतिक मामलों के जानकारों की राय में चूंकि कांग्रेस को द्रमुक और द्रमुक को कांग्रेस की जरूरत है, लिहाजा गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा,लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में द्रमुक का सफाया 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे भारी भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश है। अगर कांग्रेस इस जनादेश का सम्मान नहीं करती है तो लोकसभा के आसन्न आम चुनावों में उसे भी द्रमुक जैसी खासी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में इन दिनों अपने लिए फिलहाल सियासी जमीन तलाश रही कांग्रेस की भलाई अब इसी में है कि वह वक्त रहते करूणानिधि एंड कंपनी से अपना पिंड छुड़ा ले। बेशक, यह दौर द्रमुक के इतिहास का सबसे विकट दौर है और अगर उसे ये दिन देखने पड़ रहे हैं तो यह सब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की तरह उसी के पापों का ही परिणाम है। गठबंधन की मजबूरियों के चलते ही सही लेकिन कांग्रेस के पास आज ईमानदारी से अपना कोई लोकलुभावन चुनावी एजेंडा नहीं है। भ्रष्टाचार और महंगाई समेत तमाम संजीदा चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के पास राजनीति के सामरिक मोर्चे पर खड़े सवालों का जवाब नहीं है। कांग्रेस के पास डैमेज कंट्रोल का अब इससे बेहतर कोई और अवसर नहीं मिल सकता है। खासकर भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी सियासी शुचिता साबित करने के लिए अब वह द्रमुक के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी करने की हैसियत में है। अक्सर द्रमुक के हाथों ब्लैकमेल होती रही कांग्रेस अब द्रमुक के सभी आधा दर्जन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उसे बाहर से ही बगैर शर्त समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। देश में एक अच्छा संदेश देने के इस शानदार अवसर को कांग्रेस शायद ही हाथ से जाने देगी। यूपीए सरकार को द्रमुक के 18 सांसदों का समर्थन हासिल है। इस एवज में उसके आधा दर्जन मंत्री हैं,अगर द्रमुक -कांग्रेस गठबंधन टूटता भी है तो अब केंद्र सरकार खतरे से बाहर है। समाजवादी पार्टी पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। सपा के पास 22 सांसद हैं और अमरसिंह बाहर भी हैं। यूपी में अकेली एड़ियां रगड़ रही कांग्रेस के लिए यह नया गठबंधन एक तीर से दो निशाने जैसा हो सकता है। कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि विधान सभा के इन चुनावों ने केंद्र में एक नए सियासी नाटक की भूमिका लिख दी है।
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