भोपाल गैस कांड: विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी..सुप्रीम कोर्ट: दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी अदालत..सीबीआई: देश की सबसे बड़ी सरकारी जांच एजेंसी..सिर्फ एक सवाल,सबसे बड़ा सवाल..रिव्यू पिटिशन दायर करने में डेढ़ दशक क्यों लगे? सकपकाई सीबीआई खामोश है। अॅटार्नी जनरल जीवी वाहनवती बगले झांक रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम सीबीआई ने ऐसा क्यों किया? सवाल का जवाब भी अंतत: सवाल ही है। सच तो यह है कि सीबीआई को भी नहीं मालूम कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया? सुप्रीम कोर्ट का एकदम सटीक सवाल मगर सीबीआई से क्यों?
सॉरी, मी लार्ड..सत्ता की बांदी ,बुझदिल और बिकाऊ सीबीआई से सवाल क्यों? सवाल तो उन सफेदपोश सियासतदारों से होना चाहिए जो खाते तो हिंदुस्तान की हैं, लेकिन बजाते अमेरिका की हैं। सवाल ,15 हजार मौतों और 5 लाख पीड़ितों के उन सत्ता सुख भोगी असली गुनहगारों से क्यों नहीं जिन्होंने यूनियन कारबाईड कारपोरेशन के तत्कालीन प्रेसीडेंट वारेन एंडरसन को भारत से भगाने के लिए कभी भोपाल से लेकर न्यूर्याक तक मखमली जाजम बिछाई थी। सवाल..इस भगोड़े कातिल को प्रत्यर्पण से बचाने वाले मौकापरस्त सियासतदारों से क्यों नहीं? सीबीआई तो महज मोहरा है। हुक्म की गुलाम। शह-मात की सियासी शतरंज के खिलाड़ी तो पर्दे की पीछे हैं? सेफ जोन में। कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । असल में असली जवाबदेहों पर सवाल ही नहीं बनता। वैधानिक बाध्यताएं हैं।
सवाल यह भी है कि आखिर किसके इशारे पर सीबीआई शुरू से ही मामले को कमजोर करने की कोशिश करती रही? किसकी शह पर सीबीआई ने एंडरसन समेत मुख्य आरोपियों के खिलाफ धारा 304(2)लगाने के बजाय मामले को इस कदर कमजोर कर दिया कि यही सर्वोच्च अदालत इससे पहले गैर इरादतन हत्या के इस संगीन जुर्म को महज लापरवाही का मामला मानने को मजबूर हो गई। भारतीय न्यायिक इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है,जब सुप्रीम कोर्ट अब अपने ही अंतिम फैसले पर अब पुनर्विचार कर रही है। संगीन सवालों की फेहरिस्त लंबी है। सुरक्षा मानकों की कमियां रही हों या फिर क्षतिपूर्ति का सही मूल्यांकन । सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकार ने कभी भी कोर्ट के सामने ईमानदारी से पीड़ितों का पक्ष नहीं रखा। नतीजा सामने है। अब पीड़ितों की कानूनी अभिभावक बन कर सामने आई केंद्रीय सत्ता का यह एक और मायावी चेहरा है। केस की जड़ों को पहले से ही दीमक की तरह चाट चुकी केंद्रीय सत्ता की चिंता मुआवजा दिलाने में नहीं,फिक्र दोषियों को देश की सर्वोच्च अदालत से क्लीन चिट दिलाने की है। अपने अमेरिकन आका को खुश करने के लिए केंद्र इसे अपनी वैश्विक विवशता बता सकता है। औद्योगिक साम्राज्यवाद का पोषक अमेरिका अपनी वैश्विक साख के लिए इसकी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। बतौर मुआवजा पहले से ही यह कीमत भी तय है। उतनी ही जितनी सीबीआई के जरिए केंद्र मांग रहा है। 55 सौ करोड़। केंद्र इस मामले में एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश में है,इसीलिए सीबीआई के पास जवाब नहीं है और अॅटार्नी जनरल बगले झांक रहे हैं।
सॉरी, मी लार्ड..सत्ता की बांदी ,बुझदिल और बिकाऊ सीबीआई से सवाल क्यों? सवाल तो उन सफेदपोश सियासतदारों से होना चाहिए जो खाते तो हिंदुस्तान की हैं, लेकिन बजाते अमेरिका की हैं। सवाल ,15 हजार मौतों और 5 लाख पीड़ितों के उन सत्ता सुख भोगी असली गुनहगारों से क्यों नहीं जिन्होंने यूनियन कारबाईड कारपोरेशन के तत्कालीन प्रेसीडेंट वारेन एंडरसन को भारत से भगाने के लिए कभी भोपाल से लेकर न्यूर्याक तक मखमली जाजम बिछाई थी। सवाल..इस भगोड़े कातिल को प्रत्यर्पण से बचाने वाले मौकापरस्त सियासतदारों से क्यों नहीं? सीबीआई तो महज मोहरा है। हुक्म की गुलाम। शह-मात की सियासी शतरंज के खिलाड़ी तो पर्दे की पीछे हैं? सेफ जोन में। कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । असल में असली जवाबदेहों पर सवाल ही नहीं बनता। वैधानिक बाध्यताएं हैं।
सवाल यह भी है कि आखिर किसके इशारे पर सीबीआई शुरू से ही मामले को कमजोर करने की कोशिश करती रही? किसकी शह पर सीबीआई ने एंडरसन समेत मुख्य आरोपियों के खिलाफ धारा 304(2)लगाने के बजाय मामले को इस कदर कमजोर कर दिया कि यही सर्वोच्च अदालत इससे पहले गैर इरादतन हत्या के इस संगीन जुर्म को महज लापरवाही का मामला मानने को मजबूर हो गई। भारतीय न्यायिक इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है,जब सुप्रीम कोर्ट अब अपने ही अंतिम फैसले पर अब पुनर्विचार कर रही है। संगीन सवालों की फेहरिस्त लंबी है। सुरक्षा मानकों की कमियां रही हों या फिर क्षतिपूर्ति का सही मूल्यांकन । सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकार ने कभी भी कोर्ट के सामने ईमानदारी से पीड़ितों का पक्ष नहीं रखा। नतीजा सामने है। अब पीड़ितों की कानूनी अभिभावक बन कर सामने आई केंद्रीय सत्ता का यह एक और मायावी चेहरा है। केस की जड़ों को पहले से ही दीमक की तरह चाट चुकी केंद्रीय सत्ता की चिंता मुआवजा दिलाने में नहीं,फिक्र दोषियों को देश की सर्वोच्च अदालत से क्लीन चिट दिलाने की है। अपने अमेरिकन आका को खुश करने के लिए केंद्र इसे अपनी वैश्विक विवशता बता सकता है। औद्योगिक साम्राज्यवाद का पोषक अमेरिका अपनी वैश्विक साख के लिए इसकी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। बतौर मुआवजा पहले से ही यह कीमत भी तय है। उतनी ही जितनी सीबीआई के जरिए केंद्र मांग रहा है। 55 सौ करोड़। केंद्र इस मामले में एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश में है,इसीलिए सीबीआई के पास जवाब नहीं है और अॅटार्नी जनरल बगले झांक रहे हैं।
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