ुअगर आप जबलपुर कैंसर हॉस्पिटल के एक दावे पर यकीन करें तो अब पुरुषों में भी स्तन कैंसर की शिकायतें मिल रही हैं। अकेले महाकौशल में अब तक 10 ऐसे सनसनीखेज मामले सामने आए हैं। हाल ही में सतना के एक ऐसे ही पीड़ित युवक का प्रकरण सामने आने के बाद इसके कारणों पर बहस शुरू हो गई है। चिकित्सा विशेषज्ञों की राय में आमतौर तीस साल की उम्र के पार ऐसे पुरुष जिनका वजन औसत से ज्यादा है और जो किसी न किसी रूप में तंबाकू का सेवन करते हैं उनमें स्तन कैंसर की आशंका कई गुना बढ़ जाती है? उधर इंडियन स्टेटिक्स इंस्टीट्यूट कोलकाता का एक रिसर्च तो और भी भयावह है। तंबाकू का सेवन सामान्य इंसानों के जीन्स को बदल रहा है। डीएनए में आ रहे इस बदलाव का जेनेटिक प्रभाव क्या पीड़ित की आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ेगा? फिलहाल यह तय होना बाकी है। आज दुनिया विश्व तंबाकू निषेध दिवस मना रही है मगर इन नाटकीय औपचारिकताओं का आखिर अर्थ क्या है? ताकीद के तौर पर भयावह आंकड़ों की बानगी के बड़े-बड़े इश्तहार और दो-चार वर्कशॉप करके हमारी सरकारें आदतन हर साल अपना फर्ज पूरा कर लेती हैं। कहने को तो भारत सरकार अकेले ध्रूमपान के निषेध पर सालाना लगभग 27 हजार करोड़ रुपए खर्च करती है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दुनिया के 10 देशों की तरह हमारे भी देश में भी सार्वजनिक स्थलों पर ध्रूमपान सख्ती के साथ प्रतिबंधित है। इसी मामले में भारत सरकार ने जहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी)पर दस्तखत किए हैं ,वहीं 11 वीं पंचवर्षीय योजना के तहत साढ़े चार सौ करोड़ के शुरूआती बजट पर राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कानून (एनटीसीपी)भी लागू है ,मगर बावजूद इसके अभी भी तंबाकू के कारण देश में हर साल तकरीबन 8 लाख लोगों की मौते हो रही हैं और कुल कैंसर पीड़ितों में से 90 फीसदी मुख कैंसर के शिकार हैं । आखिर, क्यों ? वस्तुत: इस मामले में सरकार की नीयत कभी भी ठीक नहीं रही है। भारत सरकार ने कभी भी तंबाकू और उसके उत्पादों के उत्पादन और बिक्री को हतोत्साहित करने की ईमानदार कोशिशें नहीं की हैं। अलबत्ता अक्सर टैक्स बढ़ाकर इसकी स्मलिंग के ही रास्ते आसान किए गए हैं। सरकार पर टुबैको लॉबी का दबाव जगजाहिर है। सालाना 40 हजार करोड़ के मुनाफेवाले इस तंबाकू उद्योग पर सरकार की मेहरबानी का एक और चेहरा यह भी है कि आज चीन और ब्राजील के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तंबाकू उत्पादक देश है। इतना ही नहीं देश में प्रतिवर्ष तंबाकू के उत्पादन में लगभग 25 लाख टन का इजाफ ा हो रहा है और इसके रकबे में हर साल लगभग 9 हजार हेक्टेयर की वृद्धि हो रही है। सिगरेटवाली तंबाकू का सर्वाधिक उत्पादन करने वाले आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के किसान तो इस खेती से इस कदर मालामाल हैं कि उन्होंने परंपरागत खेती से तौबा कर ली है। इस मसले पर किसी भी मुनाफाखोर सरकार से आस लगाना बेमानी है। हमें यह समझना ही होगा कि नशा कैसा भी हो वह सेहत,आयु,धन,चैन,चरित्र और आत्मबल का नाश करता है। यह फिक्र सरकार को नहीं, अंतत: हमें ही करनी होगी?
मंगलवार, 31 मई 2011
सोमवार, 30 मई 2011
शिक्षा में गुणात्मक सुधारों की असलियत
पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष माध्यमिक शिक्षा मंडल की दसवीं कक्षा के नतीजे 6 फीसदी बेहतर होने के बाद भी बेहद निराश करते हैं। सीधे-सीधे समङों तो प्रदेश का पूरा परीक्षा परिणाम सेकंड क्लास है। सर्वाधिक 25.30 फीसदी विद्यार्थियों को द्वितीय श्रेणी की सफलता मिली है। सिर्फ 17.76 प्रतिशत विद्यार्थी ही प्रथम श्रेणी में पास हैं। नाकामी कहें या कामयाबी ,यह आंकड़ा स्थायी विद्यार्थियों से संबद्ध है। इतना ही नहीं बतौर अपवाद अगर प्रावीण्य सूची में मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर के दो विद्यार्थियों की सफलता को छोड़ दें तो राज्य की राजधानी भोपाल का पत्ता साफ है। और तो और, प्रदेश की औद्योगिक राजधानी तथा एजूकेशनल हब इंदौर के विद्याथिर्र्यो को इस मामले में लगातार छठवें साल भी निराशा ही हाथ लगी है। अलबत्ता ,मेरिट लिस्ट में कस्बाई बच्चों ने एक बार फिर से नाक बचाई है। दुर्भाग्य पूर्ण तो यह है कि मध्यप्रदेश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में तमाम कथित गुणात्मक सुधारों की बड़ी-बड़ी बातों के बाद भी सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी क्षेत्र के पब्लिक स्कूलों के विद्यार्थियों का प्रदर्शन तकरीबन 3 फीसदी बेहतर रहा है। दसवीं की बोर्ड परीक्षा के ये परिणाम यह बताने के लिए काफी हैं कि प्रदेश में पढ़ाई का स्तर आखिर क्या है? प्रावीण्य सूची से राज्य के बड़े शहरों के बच्चों का यूं गायब होना वस्तुत: कोई चौंकाने वाले तथ्य नहीं है। बड़े शहरों में सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी स्कूल(सीबीएसई) का चलन बढ़ने से माध्यमिक शिक्षा मंडल पहले ही बड़ी तादाद में ही निजी क्षेत्र के अच्छे स्कूलों से हाथ धो चुका है। अभिभावकों का रूझान भी तेजी से सीबीएसई की ओर बढ़ा है। इस बीच पीएमटी और पीईटी की जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के मामले में कस्बाई बच्चों की तुलना में बड़े शहरो के बच्चे ज्यादा जागरूक हैं ,लेकिन चिंता का विषय तो यह है कि राज्य का स्कूल शिक्षा विभाग आखिर तमाम कोशिश के बाद भी शिक्षा में गुणात्मक सुधार की गारंटी क्यों नहीं दे पा रहा है? असलियत यह भी है कि मध्यप्रदेश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए अभी तक अब हम न तो मूलभूत सुविधाएं जुटा पाए हैं और ना ही बुनियादी समस्याओं का समाधान कर पाए हैं। अभी भी हम राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के छात्र -शिक्षक अनुपात के तय मापदंड से बहुत दूर हैं। प्रदेश में शिक्षा के अधिकार के कानून की शर्मनाक विफलता का भी यही कारण है। स्कूल शिक्षा विभाग के पास अकादमिक सुधार के लिए योग्य मैदानी अफसरों का अकाल है। यह चौंकाने वाला तथ्य ही है कि प्रौढ़ शिक्षाधिकारियों से तरक्की दे कर जिला शिक्षाधिकारी बनाए गए ज्यादातर शीर्ष शैक्षणिकअफसर बीएड तक नहीं हैं। अंग्रेजी और गणित के अध्यापकों का नितांत अभाव है। अंग्रेजी के तो अतिथि शिक्षक ढूढे नहीं मिल रहे हैं। आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से जहां नौवीं की कक्षा में कमजोर छात्रों की संख्या बढ़ी है वहीं अध्यापकों की जवाबदेही भी नहीं रह गई है। एक्सीलेंस स्कूलों की गुणवत्ता देखने वाला कोई नहीं है। खराब परीक्षा परिणामों को रोकने के लिए अच्छे परिणामों का लक्ष्य देने और घटिया प्रदर्शन पर दंड जैसा प्रावधान भी नहीं है। ऐसे में आखिर अच्छे परिणाम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
रविवार, 29 मई 2011
न्यायिक सेवा: अपनी गरिमा अपने हाथ
तीन सिविल जजों की बर्खास्तगी । चार अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीशों और दो सिविल जजों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति देकर घर बैठाने का मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का फैसला सिर्फ स्वागत योग्य ही नहीं अपितु आदरणीय और अनुकरणीय भी है। न्यायिक सेवा के दौरान इन न्यायाधीशों पर कैसे-कैसे संगीन आरोप थे, अब यह तथ्य अहम नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि जबलपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति सैयद रफत आलम की अध्यक्षता वाली फुल कोर्ट मीटिंग के इस सख्त फैसले पर राज्य सरकार के विधि एवं विधायी विभाग की फटाफट हरी झंडी उस वक्त मिली है, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर्वोच्च अदालत देश की 80 फीसदी निचली अदालतों की न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार से न केवल चिंतित है अपितु व्यथित भी है। नामवर समाजसेवी विनायक सेन को राष्ट्रदोही करार देने के मामले में पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और फिर अयोध्या के मंदिर मस्जिद मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट को सुप्रीमकोर्ट की कड़ी फटकार से उच्च न्यायिक सेवा व्यवस्था के विरूद्ध हाल के दिनों में जो जन संदेश गया था,बेशक जबलपुर उच्च न्यायालय की इस सख्ती से न्याय के प्रति आम आदमी के भरोसे को फिर से एक बड़ी ताकत मिली है। भारतीय समाज आज घोर सामाजिक असुरक्षा के जिस अराजक दौर से गुजर रहा है,वहां न्याय की उम्मीद अगर अभी भी बाकी है तो यह हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में इसका श्रेय शीर्ष न्यायिक व्यवस्था को ही जाता है। न्यायपालिका के मुकाबले आज अगर लोकतंत्र के दो और बुनियादी अंग कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के प्रति जनता का भरोसा टूटा है तो महज इसलिए क्योंकि इन दोनों ने निजी फायदे के लिए अपनी गरिमा को
बेंच खाने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। एक भ्रष्टतम सिस्टम के उद्भव और विकास में इन दोनों अंगों की भूमिका से भला निचले स्तर की न्यायपालिका कैसे अछूती रह सकती है लेकिन अगर अपवाद छोड़ दें तो हमारी उच्च अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय ने सदैव अपने दायित्वों को समझा है। काजल की कोठरी में बेदाब बने रहने की ऐसी मिसाल शायद ही दुनिया के दीगर लोकतांत्रिक देशों में देखने को मिलती हो। हमारी निचली अदालतों को भी इन लोकतांत्रिक मूल्यों का मान रखना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए की अपनी गरिमा की हिफाजत अपने ही हाथ होती है वर्ना मूल्यों का अवमूल्यन हुआ तो जनाक्रोश के सामने तमाम विशेषाधिकारों का काम तमाम होने में वक्त नहीं लगता है। खासकर भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसी निचली अदालतों को यह भी समझना होगा कि उनकी विभिन्न शक्तियां और विशेषाधिकार कहीं और नहीं बल्कि इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही निहित हैं और अगर खेती बाड़ खाने की तर्ज पर यूं ही जनतांत्रिक मूल्यों का दमन और शमन करती रही तो एक ऐसा भी दिन आएगा जब न लोक होगा और ना ही उसका तंत्र न्यायिक सेवा वस्तुत: लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं से जुड़ी सेवा है। यह किसी कॉरपोरेट कंपनी के लिए टेंडर फिक्स करने जैसी नौकरी नहीं है।
शुक्रवार, 27 मई 2011
पस्त पड़ोसी पाकिस्तान
पहले आतंक के आका ओसामा की मौत और फिर कराची के मेहरान एयर बेस पर तहरीक-ए-तालिबान के आत्मघाती आतंकियों का अटैक। घबराहट,तिलमिलाहट और छटपटाहट से पस्त पड़ोसी पाकिस्तान अकेले भारत और दक्षिण एशिया की फिक्र नहीं अपितु पूरी दुनिया के लिए परेशानी का सबब बन चुका है। ओसामा के खात्मे के बाद पाकिस्तान पर यह बीसवां और अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला है। विश्व विनाश के नाजुक मसले पर तो यह हमला कई सनसनीखेज और संवेदनशील सामरिक सवाल खड़े करता है। आखिर आतंकवादी पाक की नौसेना पर ही निशाना क्यों साध रहे हैं? क्या ये हमले ओसामा के एवज में इंतकाम का नतीजा हैं या फिर पाकिस्तान में भीतर ही भीतर अब तालिबान इतना मजबूत हो चुका है कि वह पाक के परमाणु हथियारों को हासिल करने की कोशिश में हैं? कहीं बदले हालातों में अमेरिका की नजर पाकिस्तान के परमाणु अस्त्रों पर तो नहीं है? क्या आतंकवादियों के चंगुल में फंसे इस दरिद्र देश पर विश्वबिरादरी अब निशस्त्रीकरण का दबाव बनाने में कामयाब रहेगी?16 घंटे तक आतंकियों के कब्जे में रहा कराची का मेहरान एयरबेस सिर्फ पाकिस्तान के लिए ही नहीं वरन सामरिक लिहाज से पूरी दुनिया के लिए अहम सैन्य ठिकाना है। यह वही सैन्य ठिकाना है जहां कभी भारत के खिलाफ समंदर से आसमान की निगरानी के लिए पाक नौसेना की वायु विंग का गठन किया गया था। कालांतर में अमेरिका ने इसे वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ अभियान के नाम पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसी ठिकाने से अब तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान में तैनात नाटो के सुरक्षा बल को रसद पहुंचाया जाता है। संभवत: इन्हीं सब कारणों से पाक की नौसेना आतंकियों के निशाने पर है। पाकिस्तान की तीनों सेनाओं के इस गढ़ पर तालिबानी कब्जे के दौरान जिस तरह से पाकी फौज बेबस दिखी उससे आतंकियों का हौसला बढ़ा है और इसी के साथ ही दुनिया की यह फिक्र भी बढ़ी है कि कहीं पाक के परमाणु हथियार इन आताताइयों के हाथ न लग जाएं? पहले जापान-अमेरिका और अब चीन के साथ अपने परमाणु कार्यक्र मों में पाकिस्तान जिस तरह से व्यस्त है उससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि वह एक दशक के दौरान दुनिया का चौथा सबसे बड़ा परमाणु शस्त्र संपन्न देश हो जाएगा। तेजी के साथ तबाही की ओर बढ़ रहे पाकिस्तान पर अगर वक्त रहते निशस्त्रीकरण का वैश्विक दबाव नहीं बनाया गया तो हालात बेकाबू हो जाएंगे , यह भी तकरीबन तय है कि पाकिस्तान में अपने परामाणु हथियारों की सुरक्षा कर पाने की शक्ति नहीं है। वैसे भी दुनिया के लिए अशांति आज सबसे बड़ी चुनौती है। विश्व शांति सूचकांक-2011 की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 153 में से 29 देशों के आतंकवादी हमलों की आशंका हमेशा बनी रहती है। इस मामले में भारत जैसा शांतिप्रिय देश 153 वें नंबर पर है। क्या इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की यह रिपोर्ट हमारी आंखें खोलने के लिए काफी नहीं?
बुधवार, 18 मई 2011
नकली नोटों का असली गुनहगार
वर्ष 1999 की 24 नवंबर। देश के लिए राष्ट्रीय शर्म की काली तारीख। इंडियन एयर लाइंस की फ्लाइट नंबर-814 नेपाल की राजधानी काठमांडू से नईदिल्ली के लिए उड़ान भरने को तैयार ही थी, तभी एयर बस को तालिबानी आतंकियों ने हाईजैक कर लिया। आतंकवादी हवाई जहाज को अमृतसर और फिर अफगानिस्तान के कंधार ले गए। अपने तीन खूंखार साथियों की रिहाई के लिए उग्रवादी अब तक 160 यात्रियों में से एक को शूट कर चुके थे। विमान के भीतर मातमी दहशत थी तो बाहर भारत सरकार सदमे में। इसी अगवा विमान के बिजनेस क्लास में अपनी दो स्विस महिला मित्रों के साथ एक और शख्स भी मौजूद था। यह शख्स था-रोबेटरे ग्योरी। स्विट्जरलैंड के इस सबसे अमीर आदमी को दुनिया करेंसी किंग के नाम से जानती है। स्विट्जरलैंड के साथ इटली की भी दोहरी नागरिकता का मालिक रोबेटरे ग्योरी बहुचर्चित डेलारू नामक कंपनी का मालिक है। भारत समेत यह कंपनी दुनिया के कई देशों के नोट (मुद्रा) छापती है। विश्व की 90 फीसदी करेंसी छापने की बिजनेस डील इस कंपनी के पास है। अब तक अकेले भारत से डेलारू कंपनी को 25 फीसदी कमाई होती रही है। यह कंपनी करेंसी पेपर के अलावा पासपोर्ट, हाई सिक्योरिटी पेपर, सिक्योरिटी प्रिंट, होलोग्राम और कैश प्रोसेसिंग सोल्यूशन में भी डील करती है। देश में अभी तक असली-नकली नोटों की पहचान करने वाली मशीनों की सप्लाई भी यही कंपनी करती रही है।याद करें जैसे ही कंधार में विमान हाईजैक हुआ, स्विट्जरलैंड ने एक विशिष्ट दल को हाईजैकर्स से बातचीत करने के लिए कंधार भेजा था। भारत सरकार पर भी इस बात का दबाव था कि किसी भी कीमत पर वह करेंसी किंग रोबेटरे ग्योरी और उसकी महिला मित्रों की सुरक्षा की गारंटी दे। आतंकियों ने उसे प्लेन के सबसे पीछे वाली सीट पर बैठा दिया। यात्री परेशान हो रहे थे, लेकिन ग्योरी आराम से अपने लैपटॉप पर काम कर रहा था। उसके पास सैटेलाइट पेन ड्राइव और फोन था। स्विट्जरलैंड के इस सबसे अमीर शख्स और दुनियाभर के नोटों को छापने वाली कंपनी का मालिक रोबेटरे ग्योरी आखिर नेपाल क्या करने गया था? हो सकता है, यह कोई बड़ा सवाल न हो, लेकिन इससे भी बड़ा सवाल अभी भी कायम है कि आखिर वह कौन सी सौदेबाजी थी, जो भाजपा सरकार ने कुख्यात आतंकवादी मौलाना अजहर मसूद से की थी? भारत सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि तीन आतंकवादियों को जहाज से लेकर स्वयं विदेश मंत्री जसवंत सिंह कंधार गए थे। कंधार कांड के रहस्यों पर यह कोई पहला सवाल नहीं है। ऐसे ही कुछ संगीन सवाल इससे पहले, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ’ और तबके विदेश मंत्री जसवंत सिंह की किताब ‘ए कॉल टू ऑनर’ आने के बाद भी उठे थे। संसद में इस मसले को ध्यानाकर्षण के जरिए उठा चुके राज्यसभा सांसद और पत्रकार राजीव शुक्ला कहते हैं, आडवाणी और जसवंत सिंह की पुस्तकें कंधार कांड के रहस्य पर से पर्दा हटाने की एक अप्रकट कोशिश थीं, लेकिन ये दोनों किताबें यह सवाल उठाने में तो कामयाब रहीं कि आखिर वह कौन सी सौदेबाजी थी, जो भाजपा सरकार ने कुख्यात आतंकवादी मौलाना अजहर मसूद से की थी? तो क्या, करेंसी किंग रोबेटरे ग्योरी की सकुशल रिहाई भी सौदेबाजी की एक शर्त या फिर ऐसी ही कोई लाचारी थी? फिलहाल इस सवाल का आधिकारिक जवाब अनुत्तरित है?
सीबीआई ने मारा आररबीआई मे छापा: नेपाल बॉर्डर से सटे यूपी और बिहार के लगभग एक सैकड़ा राष्ट्रीयकृत बैंकों से नकली नोट मिलने की आम होती शिकायतों पर सीबीआई की यह आम धारणा थी कि पाक की खुफिया एजेंसी आईएसआई नेपाल के रास्ते भारत में नकली नोट भेज रही है और यही वजह है कि बॉर्डर के इलाकाई बैंकों में नकली नोटों का लेन-देन चल रहा है, लेकिन जब जांच आगे बढ़ी तो नतीजा अविश्वसनीय था। दबिश के दौरान बैंकों से एक ही जवाब मिला कि नोट तो आरबीआई से मिल रहे हैं। यहां से मिली पुख्ता जानकारी के बाद सीबीआई ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुंबई मुख्यालय में छापा मार दिया। वहां भी वैसे ही एकदम असली जैसे ऐसे नकली नोटों का जखीरा मिला जैसे नोट आईएसआई भारत में गलाती है। जब्त किए गए नोटों को सरकारी लैब भेजा गया। जांच में नकली नोटों की कागज, इंक, छपाई और सुरक्षा चिह्न् सब कुछ एकदम एक जैसे। सीबीआई एक बार फिर से सन्न रह गई। नोट एकदम असली और जब नोट असली हैं, तो फिर 500 का नोट 250 में क्यों बिक रहे हैं? नोटों को टोक्यो और हांगकांग की लैब में भेजा गया। वहां से भी रिपोर्ट आई कि नोट तो असली हैं। फिर इन्हें अमेरिका भेजा गया। जिस का डर था वही हुआ। अमेरिकन लैब से रिपोर्ट मिली नोट तो नकली हैं। लैब ने यह भी कहा कि दोनों में इतनी समानताएं हैं कि पकड़ पाना मुमकिन नहीं और जो विषमताएं हैं, वे भी जानबूझ कर डाली गई हैं। नोट बनाने वाली कोई बेहतरीन कंपनी ही ऐसे नोट बना सकती है। अमेरिका की लैब ने सीबीआई के सामने अपने दावों को सत्यापित करने के लिए साक्ष्य भी दिए। लैब ने बताया कि इन नकली नोटों में एक छोटी सी जगह है, जहां इरादतन छेड़छाड़ की गई है। सवाल यह उठा कि आईएसआई द्वारा भारतीय बाजार में चलाई जा रही नकली करेंसी आखिर रिजर्व बैंक के खजाने तक कैसे पहुंची? एक्सपर्ट्स बताते हैं कि भारत के 500 और 1000 के जो नोट हैं, उनकी क्वालिटी ऐसी है, जिसे आसानी से नहीं बनाया जा सकता है।
दगाबाज नोटों की मशीन:
कमाल यह भी है कि यही डेलारू कंपनी भारत को असली-नकली नोटों की जांच के लिए मशीनों की भी सप्लाई कर रही थी। स्वाभाविक है इन्हीं मशीनों के कारण देश में नकली नोटों की पहचान अभी भी नहीं हो पा रही है। जानकारों का मानना है कि ऐसी मशीनों को जब्त कर अगर इनके सॉफ्टवेयर की जांच कराई जाए तो एक और अंतरराज्यीय आर्थिक साजिश का पर्दाफाश हो सकता है, जिसके कारण पूरे विश्व में नकली नोटों का कारोबार चल रहा है।
यूरोप में यूं आया भूचाल: तो फिर आरबीआई के खजाने में नकली नोटों का जखीरा पहुंचा कैसे? अभी इस सवाल पर विचार चल ही रहा था कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर सीबीआई की छापामारी के साथ ही यूरोप के शेयर मार्केट में भूचाल आ गया। देखते ही देखते करेंसी किंग रोबेटरे ग्योरी की डेलारू कंपनी के शेयर लुढ़क गए। यूरोप में खराब करेंसी नोटों की सप्लाई का मामला तूफान की तरह छा गया। कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स हसी ने आरबीआई को करेंसी पेपर की सप्लाई में गड़बड़ी को स्वीकार करते हुए इस्तीफा दे दिया। खबर है कि भारत सरकार ने डेलारू से अपने व्यावसायिक संबंध खत्म कर लिए हैं। जबकि डेलारू की चार प्रतियोगी कंपनियों को 16 हजार टन करेंसी पेपर का ठेका दे दिया गया है। 2005 में देश में डेलारू कैश सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को आफिस खोलने की इजाजत दी थी। सीबीआई अब इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि नकली नोटों के मामले में डेलारू आईएसआई के लिए भी काम कर रही थी। माना जा रहा है कि भारत के लिए असली करेंसी की सप्लाई के साथ-साथ यही कंपनी आईएसआई को भी जाली नोटों की सप्लाई करती थी।
सीबीआई ने मारा आररबीआई मे छापा: नेपाल बॉर्डर से सटे यूपी और बिहार के लगभग एक सैकड़ा राष्ट्रीयकृत बैंकों से नकली नोट मिलने की आम होती शिकायतों पर सीबीआई की यह आम धारणा थी कि पाक की खुफिया एजेंसी आईएसआई नेपाल के रास्ते भारत में नकली नोट भेज रही है और यही वजह है कि बॉर्डर के इलाकाई बैंकों में नकली नोटों का लेन-देन चल रहा है, लेकिन जब जांच आगे बढ़ी तो नतीजा अविश्वसनीय था। दबिश के दौरान बैंकों से एक ही जवाब मिला कि नोट तो आरबीआई से मिल रहे हैं। यहां से मिली पुख्ता जानकारी के बाद सीबीआई ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुंबई मुख्यालय में छापा मार दिया। वहां भी वैसे ही एकदम असली जैसे ऐसे नकली नोटों का जखीरा मिला जैसे नोट आईएसआई भारत में गलाती है। जब्त किए गए नोटों को सरकारी लैब भेजा गया। जांच में नकली नोटों की कागज, इंक, छपाई और सुरक्षा चिह्न् सब कुछ एकदम एक जैसे। सीबीआई एक बार फिर से सन्न रह गई। नोट एकदम असली और जब नोट असली हैं, तो फिर 500 का नोट 250 में क्यों बिक रहे हैं? नोटों को टोक्यो और हांगकांग की लैब में भेजा गया। वहां से भी रिपोर्ट आई कि नोट तो असली हैं। फिर इन्हें अमेरिका भेजा गया। जिस का डर था वही हुआ। अमेरिकन लैब से रिपोर्ट मिली नोट तो नकली हैं। लैब ने यह भी कहा कि दोनों में इतनी समानताएं हैं कि पकड़ पाना मुमकिन नहीं और जो विषमताएं हैं, वे भी जानबूझ कर डाली गई हैं। नोट बनाने वाली कोई बेहतरीन कंपनी ही ऐसे नोट बना सकती है। अमेरिका की लैब ने सीबीआई के सामने अपने दावों को सत्यापित करने के लिए साक्ष्य भी दिए। लैब ने बताया कि इन नकली नोटों में एक छोटी सी जगह है, जहां इरादतन छेड़छाड़ की गई है। सवाल यह उठा कि आईएसआई द्वारा भारतीय बाजार में चलाई जा रही नकली करेंसी आखिर रिजर्व बैंक के खजाने तक कैसे पहुंची? एक्सपर्ट्स बताते हैं कि भारत के 500 और 1000 के जो नोट हैं, उनकी क्वालिटी ऐसी है, जिसे आसानी से नहीं बनाया जा सकता है।
दगाबाज नोटों की मशीन:
कमाल यह भी है कि यही डेलारू कंपनी भारत को असली-नकली नोटों की जांच के लिए मशीनों की भी सप्लाई कर रही थी। स्वाभाविक है इन्हीं मशीनों के कारण देश में नकली नोटों की पहचान अभी भी नहीं हो पा रही है। जानकारों का मानना है कि ऐसी मशीनों को जब्त कर अगर इनके सॉफ्टवेयर की जांच कराई जाए तो एक और अंतरराज्यीय आर्थिक साजिश का पर्दाफाश हो सकता है, जिसके कारण पूरे विश्व में नकली नोटों का कारोबार चल रहा है।
यूरोप में यूं आया भूचाल: तो फिर आरबीआई के खजाने में नकली नोटों का जखीरा पहुंचा कैसे? अभी इस सवाल पर विचार चल ही रहा था कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर सीबीआई की छापामारी के साथ ही यूरोप के शेयर मार्केट में भूचाल आ गया। देखते ही देखते करेंसी किंग रोबेटरे ग्योरी की डेलारू कंपनी के शेयर लुढ़क गए। यूरोप में खराब करेंसी नोटों की सप्लाई का मामला तूफान की तरह छा गया। कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स हसी ने आरबीआई को करेंसी पेपर की सप्लाई में गड़बड़ी को स्वीकार करते हुए इस्तीफा दे दिया। खबर है कि भारत सरकार ने डेलारू से अपने व्यावसायिक संबंध खत्म कर लिए हैं। जबकि डेलारू की चार प्रतियोगी कंपनियों को 16 हजार टन करेंसी पेपर का ठेका दे दिया गया है। 2005 में देश में डेलारू कैश सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को आफिस खोलने की इजाजत दी थी। सीबीआई अब इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि नकली नोटों के मामले में डेलारू आईएसआई के लिए भी काम कर रही थी। माना जा रहा है कि भारत के लिए असली करेंसी की सप्लाई के साथ-साथ यही कंपनी आईएसआई को भी जाली नोटों की सप्लाई करती थी।
भारत-पाक और युद्ध की आशंका
भारत और पाकिस्तान के बीच क्या वाकई एक और युद्ध की आशंका है? क्या यह न्यूक्लियर युद्ध होगा? दोनों देशों के बीच तनाव के जो हालात बने हैं उससे समूचे दक्षिण एशिया में तनाव पूर्ण हालात के बीच सिर्फ एक इसी सवाल पर अटकलें चल रही हैं। पाकि स्तान को कोई नसीहत देने वाला हो या नहीं हो,लेकिन हिंदुस्तान में तो जैसे सुझावों का सिलसिला ही शुरू हो गया है। हर सुझाव का सिर्फ एक ही मकसद है कि पाक के साथ अब एक बार आर-पार हो ही जाना चाहिए मगर सवाल यह है कि आखिर इससे हासिल क्या होगा? अव्वल तो यह कि दोनों देशों के बीच दूर-दूर तक अब युद्ध जैसी नौबत नहीं आने पाएगी। फुटकर सैन्य संघर्ष दीगर बात है।
दोनों राष्ट्र परमाणु हथियारों से लैस हैं और यही वजह है कि 1999 के अगर कारगिल के सैन्य संषर्घ को छोड़ दें तो दोनों देशों के बीच चार दशक के दौरान हालात कुछ भी रहे हों मगर युद्ध जैसी नौबत कभी नहीं आई। दोनों परमाणु संपन्न देश इस असलियत से वाकिफ हैं कि अगर युद्ध हुआ तो दो दोनों पाषाण युग में चले जाएंगे और सिवाय तबाही के किसी को कुछ भी हासिल नहीं होगा। कुछ भी हो लेकिन न्यूक्लियर हथियारों के खौफ ने कम से कम सुरक्षा की इतनी गारंटी तो दी है। बड़ा सवाल यह भी है कि बावजूद इसके दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ बदस्तूर जारी क्यों है? दरअसल, यह मान लिया गया है कि दुनिया में जिंदा रहने के लिए ताकत जरूरी है।
यहां यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि जब युद्ध नहीं तो युद्ध जैसी बातें क्यों ? वस्तुत: पाकिस्तान में लादेन के मारे जाने से शर्मसार और भीतर से भयभीत पाकिस्तान की भारत पर निशानेबाजी और यह बौखलाहट पूरी तरह से प्रायोजित है। भारत के उकसाने की उसकी संयमित रणनीति का सीधा सा अर्थ यह है कि वह भारत के अंदर अपनी आतंकी गतिविधियों की पैठ को फिर से सक्रिय करने की रणनीति पर काम कर रहा है। संभवत:उसे घाटी में बर्फ पिघलने का इंतजार है। कश्मीर के साथ-साथ उसका पूरा ध्यान भारत की तेजी के साथ मजबूत हो रही अर्थव्यवस्था को तोड़ने पर भी है। भारत में आईएसआई के जरिए जाली करेंसी का जाल फैलाने की रणनीति हो या फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में 26-11 का अटैक। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के बढ़ते दखल ने अमेरिका और चीन का भी चैन चुरा लिया है। पाकिस्तान की ईष्र्या स्वाभाविक है। भारत की यही चुनौती है कि वह इन तीनों पर भरोसा नहीं करे और पगलाए पाकिस्तान की किसी भी सामरिक और कू टनीतिक रणनीति के प्रति सतर्क रहे।
वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि आज पाकिस्तान में लोकतंत्र का वजूद महज कपोल कल्पना रह गई है। हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि पाक जहां दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन बन चुका है। वहीं वह अरब देशों के लिए परमाणु हथियारों से लैस एक कट्टर स्लामिक राष्ट्र से ज्यादा कुछ भी नहीं है। भारत की नजर में उसका पड़ोसी पाकिस्तान सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों का पनाहगाह है। दुनिया के दो दादा देशों के बीच ब्लैकमेल होते भूखे और नंगे पाकिस्तान को यह समझना चाहिए कि उसकी भलाई सिर्फ भारत पर भरोसा करने में ही है लेकिन अंतरराष्टीय आतंकवाद के हाथों की कठपुतली बन चुकी पाकिस्तान की सैन्य सत्ता इस तथ्य को कभी नहीं समझ सकती। यह तथ्य भी जग जाहिर है कि पाकिस्तान में सत्ता के केंद्र गिलानी-जरदारी नहीं कियानी और पाशा हैं और जब तक यह स्थिति रहेगी तब तक पाक को सिर्फ खोना ही है।
दोनों राष्ट्र परमाणु हथियारों से लैस हैं और यही वजह है कि 1999 के अगर कारगिल के सैन्य संषर्घ को छोड़ दें तो दोनों देशों के बीच चार दशक के दौरान हालात कुछ भी रहे हों मगर युद्ध जैसी नौबत कभी नहीं आई। दोनों परमाणु संपन्न देश इस असलियत से वाकिफ हैं कि अगर युद्ध हुआ तो दो दोनों पाषाण युग में चले जाएंगे और सिवाय तबाही के किसी को कुछ भी हासिल नहीं होगा। कुछ भी हो लेकिन न्यूक्लियर हथियारों के खौफ ने कम से कम सुरक्षा की इतनी गारंटी तो दी है। बड़ा सवाल यह भी है कि बावजूद इसके दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ बदस्तूर जारी क्यों है? दरअसल, यह मान लिया गया है कि दुनिया में जिंदा रहने के लिए ताकत जरूरी है।
यहां यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि जब युद्ध नहीं तो युद्ध जैसी बातें क्यों ? वस्तुत: पाकिस्तान में लादेन के मारे जाने से शर्मसार और भीतर से भयभीत पाकिस्तान की भारत पर निशानेबाजी और यह बौखलाहट पूरी तरह से प्रायोजित है। भारत के उकसाने की उसकी संयमित रणनीति का सीधा सा अर्थ यह है कि वह भारत के अंदर अपनी आतंकी गतिविधियों की पैठ को फिर से सक्रिय करने की रणनीति पर काम कर रहा है। संभवत:उसे घाटी में बर्फ पिघलने का इंतजार है। कश्मीर के साथ-साथ उसका पूरा ध्यान भारत की तेजी के साथ मजबूत हो रही अर्थव्यवस्था को तोड़ने पर भी है। भारत में आईएसआई के जरिए जाली करेंसी का जाल फैलाने की रणनीति हो या फिर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में 26-11 का अटैक। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के बढ़ते दखल ने अमेरिका और चीन का भी चैन चुरा लिया है। पाकिस्तान की ईष्र्या स्वाभाविक है। भारत की यही चुनौती है कि वह इन तीनों पर भरोसा नहीं करे और पगलाए पाकिस्तान की किसी भी सामरिक और कू टनीतिक रणनीति के प्रति सतर्क रहे।
वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि आज पाकिस्तान में लोकतंत्र का वजूद महज कपोल कल्पना रह गई है। हालात कुछ ऐसे बन चुके हैं कि पाक जहां दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन बन चुका है। वहीं वह अरब देशों के लिए परमाणु हथियारों से लैस एक कट्टर स्लामिक राष्ट्र से ज्यादा कुछ भी नहीं है। भारत की नजर में उसका पड़ोसी पाकिस्तान सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों का पनाहगाह है। दुनिया के दो दादा देशों के बीच ब्लैकमेल होते भूखे और नंगे पाकिस्तान को यह समझना चाहिए कि उसकी भलाई सिर्फ भारत पर भरोसा करने में ही है लेकिन अंतरराष्टीय आतंकवाद के हाथों की कठपुतली बन चुकी पाकिस्तान की सैन्य सत्ता इस तथ्य को कभी नहीं समझ सकती। यह तथ्य भी जग जाहिर है कि पाकिस्तान में सत्ता के केंद्र गिलानी-जरदारी नहीं कियानी और पाशा हैं और जब तक यह स्थिति रहेगी तब तक पाक को सिर्फ खोना ही है।
मंगलवार, 17 मई 2011
भुखमरी में मेरा भारत महान
दुनिया में सुपर पावर का दिवास्वप्न देखने वाले इस देश के लिए इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या होगी कि आजादी के 6 दशक बाद भी सर्वोच्च अदालत को गरीबी और भुखमरी जैसे मसलों पर अपना कीमती वक्त जाया करना पड़े। उसे केंद्रीय सत्ता से भूख से मौतें न होने की गारंटी लेनी पड़े और राज्यों को भी इस बावत सख्त ताकीद देनी पड़े। यह और भी शर्मनाक है कि भारत सरकार के पास देश में भुखमरी की शिकार गरीब आबादी का वास्तविक आंकड़ा तक उपलब्ध नहीं है। योजना आयोग को भी यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि इसका कोई आधिकारिक अनुमान संभव नहीं है। केंद्र सरकार बीपीएल परिवारों के साढ़े 6 करोड़ के जो आंकड़े दिखाती रही है, उससे राज्यों की सरकारें सहमत नहीं हैं। राज्य सरकारों के दावे के अनुसार ऐसे परिवारों की तादाद 11 करोड़ से कम नहीं है। जाहिर है इस मतभेद के लिए योजना आयोग जिम्मेदार है? यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि योजना आयोग बीपीएल परिवारों के अपने तय मानकों पर पुनर्विचार करे।
दरअसल, असलियत तो यह है कि भूख और भुखमरी को कोई भी सरकार स्वीकार नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उसकी सिर्फ नाकामी ही नहीं इस मद पर कागजों पर खर्च होने वाले करोड़ों के बजट के हिसाब का भी सवाल उठता है। गरीबी उन्मूलन के लिए भारत सरकार के 4 मंत्रलय 22 योजनाएं चलाते हैं। यूनिसेफ की मानें तो कुपोषण से भारत में हर साल पांच हजार बच्चों की मौत हो जाती है। सुरेश तेंदुलकर समिति पहले ही देश की 37 प्रतिशत आबादी को गरीबी रेखा के नीचे मान चुकी है। इससे और भी पहले अर्जुन सेनगुप्ता समिति इस तथ्य का खुलासा कर चुकी है कि 77 प्रतिशत जनता रोजाना 20 रुपए से अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के दावे के मुताबिक भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है। यह स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। अंतरराष्ट्रीय संस्था एक्शन एड की एक और रिपोर्ट -हू इज रियली फाइटिंग हंगर के मुताबिक भारत में भुखमरी का कारण खाद्यान्न के उत्पादन में कमी नहीं बल्कि गरीबों की क्र य क्षमता में कमी का आना है।
इसे भी विडंबना ही कहेंगे कि रिकार्ड उत्पादन के बाद भी जहां लाखों टन गेहूं भारतीय खाद्य निगम की गोदामों में सड़ जाता है, वहीं हर रोज 32 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे सो जाते हैं, लेकिन भारत सरकार इन तमाम दावों को हमेशा सिरे से नकारती रही है। यहां इन तमाम आंकड़ों की बानगी का आशय सिर्फ इतना ही है कि क्या बदनीयती से भूख की असलियत मारी जा सकती है? इस विकट संकट के सिर्फ दो ही निदान हैं,या तो सरकार अपने दायित्वों को नेकनियती के साथ समङो या फिर संविधान में संशोधन कर भोजन को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया जाए। वैसे भी यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार में निहित है। ऐसे में सरकार हर व्यक्ति को भोजन उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कानूनी तौर पर मजबूर हो जाएगी। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह ब्राजील की तरह भारत को भी शून्य भूख का लक्ष्य निर्धारित कर योजनाएं तैयार करे और उस पर अविलंब अमल शुरू करे। वर्ना वह दिन दूर नहीं जब हम रोटी के लिए भड़के दंगों को संभाल नहीं पाएंगे। सच को स्वीकार कर लेने में ही समझदारी है। अभी थोड़ा सा वक्त है।
दरअसल, असलियत तो यह है कि भूख और भुखमरी को कोई भी सरकार स्वीकार नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उसकी सिर्फ नाकामी ही नहीं इस मद पर कागजों पर खर्च होने वाले करोड़ों के बजट के हिसाब का भी सवाल उठता है। गरीबी उन्मूलन के लिए भारत सरकार के 4 मंत्रलय 22 योजनाएं चलाते हैं। यूनिसेफ की मानें तो कुपोषण से भारत में हर साल पांच हजार बच्चों की मौत हो जाती है। सुरेश तेंदुलकर समिति पहले ही देश की 37 प्रतिशत आबादी को गरीबी रेखा के नीचे मान चुकी है। इससे और भी पहले अर्जुन सेनगुप्ता समिति इस तथ्य का खुलासा कर चुकी है कि 77 प्रतिशत जनता रोजाना 20 रुपए से अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के दावे के मुताबिक भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है। यह स्थिति अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र के 25 देशों से भी बदतर है। अंतरराष्ट्रीय संस्था एक्शन एड की एक और रिपोर्ट -हू इज रियली फाइटिंग हंगर के मुताबिक भारत में भुखमरी का कारण खाद्यान्न के उत्पादन में कमी नहीं बल्कि गरीबों की क्र य क्षमता में कमी का आना है।
इसे भी विडंबना ही कहेंगे कि रिकार्ड उत्पादन के बाद भी जहां लाखों टन गेहूं भारतीय खाद्य निगम की गोदामों में सड़ जाता है, वहीं हर रोज 32 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे सो जाते हैं, लेकिन भारत सरकार इन तमाम दावों को हमेशा सिरे से नकारती रही है। यहां इन तमाम आंकड़ों की बानगी का आशय सिर्फ इतना ही है कि क्या बदनीयती से भूख की असलियत मारी जा सकती है? इस विकट संकट के सिर्फ दो ही निदान हैं,या तो सरकार अपने दायित्वों को नेकनियती के साथ समङो या फिर संविधान में संशोधन कर भोजन को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया जाए। वैसे भी यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार में निहित है। ऐसे में सरकार हर व्यक्ति को भोजन उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कानूनी तौर पर मजबूर हो जाएगी। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह ब्राजील की तरह भारत को भी शून्य भूख का लक्ष्य निर्धारित कर योजनाएं तैयार करे और उस पर अविलंब अमल शुरू करे। वर्ना वह दिन दूर नहीं जब हम रोटी के लिए भड़के दंगों को संभाल नहीं पाएंगे। सच को स्वीकार कर लेने में ही समझदारी है। अभी थोड़ा सा वक्त है।
सोमवार, 16 मई 2011
यूं ही रोल मॉडल नहीं बने शिवराज
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ठीक कहते हैं, स्त्री-पुरूष समानता, ज्यादा से ज्यादा शिक्षित नारी, नौकरी की बेहतर संभावनाएं और सत्ता में उन्हें बराबर की भागीदारी दिए बिना हम संयुक्त राष्ट्र संघ के महिला सशक्तिकरण के क्रांतिकारी सहस्त्रब्दि लक्ष्य को हरगिज हासिल नहीं कर सकते हैं। दुनिया की महिलाओं में निवेश करके ही हम इन लक्ष्यों को साधने की आशा करते हैं। ये लक्ष्य महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को चुनौती देतें हैं और लड़कों की तरह लड़कियों को भी स्कूल जाने के बराबरी के हक की मांग करते हैं। ये लक्ष्य इस तथ्य की भी गारंटी चाहते हैं कि स्त्री- पुरूष समानता का मसला महज एक लक्ष्य तक ही सीमित न रहे,क्योंकि हर हालत में कीमत अंतत: औरत को चुकानी पड़ती है। पुरूषों से ज्यादा महिलाओं पर गरीबी का भार पड़ता है। बच्चों की देखभाल का जिम्मा भी उन्हीं पर होता है। जीवन के हर कदम पर निरंतर उपेक्षा और अपमान उनके सामने होते हैं। जब भी कोई महिला मां बनने को होती है उसी का जीवन दांव पर होता है। लड़कियों का स्कूल पहुंचना सिर्फ इन्हीं लड़कियों के लिए कल्याणकारी नहीं है। कालांतर में यही पढ़ी लिखी बेटियां, मां के रूप में सुंदर परिवार और एक सभ्य समाज की भूमिका लिखती हैं। बेशक, महिला सशक्तिकरण के मसले पर अगर आज इन्हीं मानकों के चलते मध्यप्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान समूचे विश्व के परिदृश्य पर एक रोल मॉडल के रूप में उभरे हैं ,तो इसके पीछे अकेले उनकी सियासी शुचिता ही नहीं है। अपितु उदारता,दृढ़ता,संवेदनशीलता,सक्रियता और समर्पण की बड़ी व्यावहारिक,स्वाभाविक और बुनियादी भूमिका भी रही है। सचमुच, सीएम शिवराज सिंह चौहान को विश्वबैंक की ओर से वाशिंगटन का आमंत्रण अकेले मध्यप्रदेश की उपलब्धि नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारे राष्ट्रीय गर्व-स्वाभिमान और वैश्विक सम्मान की मिसाल है। विश्व के लिए एक ऐसी नजीर है, जो वैश्विक स्तर पर आधी आबादी को न्याय की उम्मीद बंधाती है। सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत नगरीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने वाला मध्यप्रदेश,देश का पहला राज्य है। प्रदेश में आज तकरीबन 3 लाख महिलाएं निर्विवाद रूप से राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। मध्यप्रदेश,देश का ऐसा अग्रणी राज्य भी है जहां महिलाओं के लिए 1655.30 करोड़ के जेंडर बजट का पृथक से प्रावधान किया गया है।
लाड़ली लक्ष्मी योजना के तहत 4 साल में साढ़े 7 लाख से ज्यादा कन्याओं को लाभ मिल चुका है। आठवीं के बाद मजबूरी में पढ़ाई बंद कर देने वाली गांव की लगभग 14 लाख से भी ज्यादा गरीब बेटियां अब स्वयं की सायकल से पड़ोस के गांव में आगे की पढ़ाई करने जाती हैं। कन्यादान योजना के तहत डेढ़ लाख से भी ज्यादा निर्धन कन्याओं की शादी सरकारी खर्चे पर कराई जा चुकी है। जननी सुरक्षा और जननी एक्सप्रेस के तहत प्रदेश में 80 फीसदी संस्थागत प्रसव और प्रति हजार पर मातृ मृत्यु दर घटाकर 335 तथा शिशु मृत्यु दर को घटाकर 70 तक पहुंचाने की उपलब्धि के चलते दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में 15 जिलों में किशोरियों के लिए 40 करोड़ के शुरूआती बजट से सबला योजना शुरू की है। राज्य में शिवराज सिंह चौहान ने महिला सशक्तिकरण के लिए अनेक नवाचार किए हैं। नतीजतन, आज मध्यप्रदेश इस मामले में न केवल देश का अग्रणी प्रगतिशील राज्य बन गया है,बल्कि अब पूरी दुनिया इन अनुकरणीय उपायों का अनुसरण करने जा रही है।
लाड़ली लक्ष्मी योजना के तहत 4 साल में साढ़े 7 लाख से ज्यादा कन्याओं को लाभ मिल चुका है। आठवीं के बाद मजबूरी में पढ़ाई बंद कर देने वाली गांव की लगभग 14 लाख से भी ज्यादा गरीब बेटियां अब स्वयं की सायकल से पड़ोस के गांव में आगे की पढ़ाई करने जाती हैं। कन्यादान योजना के तहत डेढ़ लाख से भी ज्यादा निर्धन कन्याओं की शादी सरकारी खर्चे पर कराई जा चुकी है। जननी सुरक्षा और जननी एक्सप्रेस के तहत प्रदेश में 80 फीसदी संस्थागत प्रसव और प्रति हजार पर मातृ मृत्यु दर घटाकर 335 तथा शिशु मृत्यु दर को घटाकर 70 तक पहुंचाने की उपलब्धि के चलते दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में 15 जिलों में किशोरियों के लिए 40 करोड़ के शुरूआती बजट से सबला योजना शुरू की है। राज्य में शिवराज सिंह चौहान ने महिला सशक्तिकरण के लिए अनेक नवाचार किए हैं। नतीजतन, आज मध्यप्रदेश इस मामले में न केवल देश का अग्रणी प्रगतिशील राज्य बन गया है,बल्कि अब पूरी दुनिया इन अनुकरणीय उपायों का अनुसरण करने जा रही है।
शनिवार, 14 मई 2011
एक और सियासी नाटक की भूमिका
भारत यूं ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं है। यहां का आम मतदाता अशिक्षित,उपेक्षित और असहाय भले ही हो, लेकिन वह अपने मत का मूल्य बखूबी जानता है। मसलन-राष्ट्रीय राजनीति के दो अहम राज्य तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनावी नतीजे सामने हैं। एक ओर एआईएडीएमके की जे.जयललिता जहां अभूतपूर्व बहुमत के साथ तीसरी बार सत्ता में लौटी हैं, वहीं दूसरी ओर तृणमूल की ममता बनर्जी ने 34 साल से छाए वामपंथी मोर्चे का सफाया करके इतिहास रच दिया है।
अब देखना यह है कि तमिलनाडु और असम में बने ताजा सियासी समीकरण केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए )सरकार की चाल और चरित्र को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? चौतरफा भ्रष्टाचार से जूझ रही कांग्रेस क्या, करूणानिधि की द्रमुक के साथ अपने 6 साल पुराने राजनीतिक रिश्तों की अब नई इबारत लिखेगी? क्या लगे हाथ इन नतीजों ने केंद्र में एक नए तूफानी नाटक की भूमिका नहीं लिख दी है? उधर ममता ने परिणाम आने के साथ ही रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखने की मांग करके इस आशय के संकेत दे दिए हैं कि वह अपनी ही शर्तो पर रिश्ता चलाएंगी। राजनीतिक मामलों के जानकारों की राय में चूंकि कांग्रेस को द्रमुक और द्रमुक को कांग्रेस की जरूरत है, लिहाजा गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा,लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में द्रमुक का सफाया 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे भारी भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश है। अगर कांग्रेस इस जनादेश का सम्मान नहीं करती है तो लोकसभा के आसन्न आम चुनावों में उसे भी द्रमुक जैसी खासी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में इन दिनों अपने लिए फिलहाल सियासी जमीन तलाश रही कांग्रेस की भलाई अब इसी में है कि वह वक्त रहते करूणानिधि एंड कंपनी से अपना पिंड छुड़ा ले। बेशक, यह दौर द्रमुक के इतिहास का सबसे विकट दौर है और अगर उसे ये दिन देखने पड़ रहे हैं तो यह सब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की तरह उसी के पापों का ही परिणाम है। गठबंधन की मजबूरियों के चलते ही सही लेकिन कांग्रेस के पास आज ईमानदारी से अपना कोई लोकलुभावन चुनावी एजेंडा नहीं है। भ्रष्टाचार और महंगाई समेत तमाम संजीदा चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के पास राजनीति के सामरिक मोर्चे पर खड़े सवालों का जवाब नहीं है। कांग्रेस के पास डैमेज कंट्रोल का अब इससे बेहतर कोई और अवसर नहीं मिल सकता है। खासकर भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी सियासी शुचिता साबित करने के लिए अब वह द्रमुक के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी करने की हैसियत में है। अक्सर द्रमुक के हाथों ब्लैकमेल होती रही कांग्रेस अब द्रमुक के सभी आधा दर्जन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उसे बाहर से ही बगैर शर्त समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। देश में एक अच्छा संदेश देने के इस शानदार अवसर को कांग्रेस शायद ही हाथ से जाने देगी। यूपीए सरकार को द्रमुक के 18 सांसदों का समर्थन हासिल है। इस एवज में उसके आधा दर्जन मंत्री हैं,अगर द्रमुक -कांग्रेस गठबंधन टूटता भी है तो अब केंद्र सरकार खतरे से बाहर है। समाजवादी पार्टी पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। सपा के पास 22 सांसद हैं और अमरसिंह बाहर भी हैं। यूपी में अकेली एड़ियां रगड़ रही कांग्रेस के लिए यह नया गठबंधन एक तीर से दो निशाने जैसा हो सकता है। कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि विधान सभा के इन चुनावों ने केंद्र में एक नए सियासी नाटक की भूमिका लिख दी है।
अब देखना यह है कि तमिलनाडु और असम में बने ताजा सियासी समीकरण केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए )सरकार की चाल और चरित्र को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? चौतरफा भ्रष्टाचार से जूझ रही कांग्रेस क्या, करूणानिधि की द्रमुक के साथ अपने 6 साल पुराने राजनीतिक रिश्तों की अब नई इबारत लिखेगी? क्या लगे हाथ इन नतीजों ने केंद्र में एक नए तूफानी नाटक की भूमिका नहीं लिख दी है? उधर ममता ने परिणाम आने के साथ ही रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखने की मांग करके इस आशय के संकेत दे दिए हैं कि वह अपनी ही शर्तो पर रिश्ता चलाएंगी। राजनीतिक मामलों के जानकारों की राय में चूंकि कांग्रेस को द्रमुक और द्रमुक को कांग्रेस की जरूरत है, लिहाजा गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा,लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में द्रमुक का सफाया 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे भारी भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश है। अगर कांग्रेस इस जनादेश का सम्मान नहीं करती है तो लोकसभा के आसन्न आम चुनावों में उसे भी द्रमुक जैसी खासी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में इन दिनों अपने लिए फिलहाल सियासी जमीन तलाश रही कांग्रेस की भलाई अब इसी में है कि वह वक्त रहते करूणानिधि एंड कंपनी से अपना पिंड छुड़ा ले। बेशक, यह दौर द्रमुक के इतिहास का सबसे विकट दौर है और अगर उसे ये दिन देखने पड़ रहे हैं तो यह सब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की तरह उसी के पापों का ही परिणाम है। गठबंधन की मजबूरियों के चलते ही सही लेकिन कांग्रेस के पास आज ईमानदारी से अपना कोई लोकलुभावन चुनावी एजेंडा नहीं है। भ्रष्टाचार और महंगाई समेत तमाम संजीदा चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के पास राजनीति के सामरिक मोर्चे पर खड़े सवालों का जवाब नहीं है। कांग्रेस के पास डैमेज कंट्रोल का अब इससे बेहतर कोई और अवसर नहीं मिल सकता है। खासकर भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी सियासी शुचिता साबित करने के लिए अब वह द्रमुक के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी करने की हैसियत में है। अक्सर द्रमुक के हाथों ब्लैकमेल होती रही कांग्रेस अब द्रमुक के सभी आधा दर्जन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उसे बाहर से ही बगैर शर्त समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। देश में एक अच्छा संदेश देने के इस शानदार अवसर को कांग्रेस शायद ही हाथ से जाने देगी। यूपीए सरकार को द्रमुक के 18 सांसदों का समर्थन हासिल है। इस एवज में उसके आधा दर्जन मंत्री हैं,अगर द्रमुक -कांग्रेस गठबंधन टूटता भी है तो अब केंद्र सरकार खतरे से बाहर है। समाजवादी पार्टी पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। सपा के पास 22 सांसद हैं और अमरसिंह बाहर भी हैं। यूपी में अकेली एड़ियां रगड़ रही कांग्रेस के लिए यह नया गठबंधन एक तीर से दो निशाने जैसा हो सकता है। कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि विधान सभा के इन चुनावों ने केंद्र में एक नए सियासी नाटक की भूमिका लिख दी है।
सीबीआई से कुछ और सवाल
विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी, भोपाल गैस कांड के सात अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर अगर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की सुधारात्मक याचिका एक झटके में खारिज कर दी तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? सीबीआई के पास इस संजीदा सवाल का जवाब क्यों नहीं है कि डेढ़ दशक बाद आखिर ,उसे यह उपचारात्मक याचिका दायर करने की जरूरत क्यों पड़ी? एक बड़ा सवाल यह भी है कि एकबारगी आखिर ऐसा कौन सा चमत्कार हुआ कि पत्थर दिल सीबीआई रहस्यमयी अंदाज में गैस पीड़ितों की हमदर्द बन गई?
याद करें,1996 में इसी मामले में इसी सर्वोच्च अदालत के तबके जस्टिस एच अहमदी की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय बेंच ने इसी सीबीआई की चाजर्शीट पर इन्हीं आरेापियों के खिलाफ लगी आईपीसी की धारा 304(2) हटाकर 304 ए में तब्दील कर दी थी। लिहाजा, आरोपियों के खिलाफ लापरवाही का मामला चला और उन्हें दो साल की सजा मिली। सुप्रीम कोर्ट के सामने साजिशन इस केस को कमजोर और कमतर करने वाली यही सीबीआई आखिर अर्सा बाद इन्हीं अभियुक्तों पर अब गैर इरादन हत्या का केस चला कर दस साल की सजा क्यों दिलाना चाहती है? वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि गैस कांड के अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के इस आदेश से गैस पीड़ितों पर भले ही पहाड़ टूट पड़ा हो ,लेकिन इससे कम से कम केंद्रीय जांच ब्यूरो को तो ज्यादा से ज्यादा राहत मिली है। कुल मिलाकर सीबीआई अपने मंसूबों में कामयाब रही है। भोपाल गैस कांड के मामले में अमेरिकी दबाव के आगे हमारी लोकतांत्रिक सरकारों का चरित्र किसी से छिपा नहीं है।
इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम विकीलीक्स के खुलासों पर गौर करें तो हत्यारिन अमेरिकन कंपनी यूनियन कार्बाइड और डाऊ केमिकल्स एक बार फिर से भारत के बाजार में अपने पांव जमाना चाहती हैं। ये दोनों अमेरिकन कंपनियां कीट नाशक दवाओं का उत्पादन करती हैं और कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत इनके लिए एक बड़ा बाजार है। साख के साथ दुनिया में कारोबार के हिमायती अमेरिका की हमेशा यही कोशिश रही है कि किसी भी कीमत पर भोपाल गैस कांड के मामले में यूसीआईएल को क्लीन चिट मिल जाए। भारत सरकार पर अमेरिकन दबाव और सीबीआई की भूमिका के चलते आज नतीजा सबके सामने है। मामले को पहले से ही साजिशन बुनियादी तौर पर कमजोर कर चुकी सीबीआई भी यह बखूबी जानती है कि दुनिया की कोई भी अदालत अब अभियुक्तों को सख्त सजा का प्रावधान नहीं कर सकती है। अदालतें कानूनी परिधि के निश्चित प्रावधानों के तहत तथ्यों-तर्को ,साक्ष्यों और गवाहों की बुनियाद पर फैसले लेती हैं । इस असलियत से वाकिफ होने के बाद भी अगर सीबीआई डेढ़ दशक बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंची है, तो उसका इरादा साफ है। यही वजह है कि आज सीबीआई के पास सर्वोच्च अदालत के एक अदद संगीन सवाल का कोई जवाब नहीं है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इस मामले में सीबीआई की भूमिका से अप्रत्यक्षत: हत्यारिन अमेरिकन कंपनी को वॉकओवर ही मिला है। क्या यह, इस कातिल कंपनी को कानूनी तौर पर क्लीन चिटा दिला देने जैसा नहीं है, ताकि भारत में पूरी बाजारू साख के साथ एक बार फिर इसके कारोबार का रास्ता साफ हो जाए।
याद करें,1996 में इसी मामले में इसी सर्वोच्च अदालत के तबके जस्टिस एच अहमदी की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय बेंच ने इसी सीबीआई की चाजर्शीट पर इन्हीं आरेापियों के खिलाफ लगी आईपीसी की धारा 304(2) हटाकर 304 ए में तब्दील कर दी थी। लिहाजा, आरोपियों के खिलाफ लापरवाही का मामला चला और उन्हें दो साल की सजा मिली। सुप्रीम कोर्ट के सामने साजिशन इस केस को कमजोर और कमतर करने वाली यही सीबीआई आखिर अर्सा बाद इन्हीं अभियुक्तों पर अब गैर इरादन हत्या का केस चला कर दस साल की सजा क्यों दिलाना चाहती है? वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह है कि गैस कांड के अभियुक्तों की सजा सख्त करने के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के इस आदेश से गैस पीड़ितों पर भले ही पहाड़ टूट पड़ा हो ,लेकिन इससे कम से कम केंद्रीय जांच ब्यूरो को तो ज्यादा से ज्यादा राहत मिली है। कुल मिलाकर सीबीआई अपने मंसूबों में कामयाब रही है। भोपाल गैस कांड के मामले में अमेरिकी दबाव के आगे हमारी लोकतांत्रिक सरकारों का चरित्र किसी से छिपा नहीं है।
इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम विकीलीक्स के खुलासों पर गौर करें तो हत्यारिन अमेरिकन कंपनी यूनियन कार्बाइड और डाऊ केमिकल्स एक बार फिर से भारत के बाजार में अपने पांव जमाना चाहती हैं। ये दोनों अमेरिकन कंपनियां कीट नाशक दवाओं का उत्पादन करती हैं और कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत इनके लिए एक बड़ा बाजार है। साख के साथ दुनिया में कारोबार के हिमायती अमेरिका की हमेशा यही कोशिश रही है कि किसी भी कीमत पर भोपाल गैस कांड के मामले में यूसीआईएल को क्लीन चिट मिल जाए। भारत सरकार पर अमेरिकन दबाव और सीबीआई की भूमिका के चलते आज नतीजा सबके सामने है। मामले को पहले से ही साजिशन बुनियादी तौर पर कमजोर कर चुकी सीबीआई भी यह बखूबी जानती है कि दुनिया की कोई भी अदालत अब अभियुक्तों को सख्त सजा का प्रावधान नहीं कर सकती है। अदालतें कानूनी परिधि के निश्चित प्रावधानों के तहत तथ्यों-तर्को ,साक्ष्यों और गवाहों की बुनियाद पर फैसले लेती हैं । इस असलियत से वाकिफ होने के बाद भी अगर सीबीआई डेढ़ दशक बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंची है, तो उसका इरादा साफ है। यही वजह है कि आज सीबीआई के पास सर्वोच्च अदालत के एक अदद संगीन सवाल का कोई जवाब नहीं है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इस मामले में सीबीआई की भूमिका से अप्रत्यक्षत: हत्यारिन अमेरिकन कंपनी को वॉकओवर ही मिला है। क्या यह, इस कातिल कंपनी को कानूनी तौर पर क्लीन चिटा दिला देने जैसा नहीं है, ताकि भारत में पूरी बाजारू साख के साथ एक बार फिर इसके कारोबार का रास्ता साफ हो जाए।
महंगाई की आग में पेट्रोल की आशंका
¨petroliam पदार्थो की कीमतों पर गठित मंत्री समूह की आज होने वाली बैठक फिलहाल भले ही टल गई हो, लेकिन इसकी दर वृद्धि से महंगाई की आग का अभी और भड़कना तकरीबन तय है। गत जनवरी से पेट्रोल,डीजल और रसोई गैस के मूल्यों का संशोधन नहीं हुआ है। हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक नहीं चाहता कि सरकार किसी भी सूरत में पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढ़ाए। आरबीआई के गर्वनर सुब्बा राव अंतर मंत्रलय समूह(आईएमजी) की बैठक के दौरान सरकार को पहले ही चेता चुके हैं कि मौजूदा हालात में सरकार को फिलहाल ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए ,जिससे महंगाई बढ़े। मगर मजबूरी यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम उच्चस्तर पर बने रहने के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम पदार्थो के खुदरा मूल्य बढ़ाए जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। ऐसा नहीं करने पर सरकार पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा और इसका सीधा असर राजकोषीय घाटे को बढ़ाएगा। इससे मुद्रा प्रसार का दबाव भी और बढ़ेगा।
उधर,बेलगाम महंगाई ने निम्न मध्यम और निम्न वर्ग की नींद पहले से ही उड़ा रखी है। रोजाना आम उपभोग की खासकर खाद्य वस्तुओं की पकड़ से बाहर हो चुकी कीमतों के बीच हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहे हैं कि आम आदमी की रसोई का बजट संतुलित करने में और तो और अब सरकार और उसके अर्थशास्त्रियों को भी पसीना आ रहा है। न तो कोई कारगर विकल्प दिख रहे हैं और ना ही कोई असरकारी उपाय सूझ रहा है। जब-जब सरकार के हाथ से महंगाई की लगाम छूटती है, तब-तब वह मुद्रा स्फीति के मुस्के कसने लगती है। ऐसी ही एक कोशिश के तहत रिजर्व बैंक ने विकास दर की फिक्र को दरकिनार करते हुए प्रमुख नीतिगत दरों में 50 आधार अंकों का इजाफा कर महंगाई से दो-दो हाथ करने का अपना इरादा साफ कर दिया है, लेकिन इससे हर किसी का भला होने वाला नहीं है। सच तो यह है कि आम आदमी को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। आवास और वाहन ऋणों की बैंक ब्याज दरों में 0.5 से 1.0 फीसदी इजाफे की आशंका ने अपना घर और अपनी कार के सपने चूर-चूर कर दिए हैं। नया कर्ज लेना भी महंगा हो जाएगा। यह भी साफ है कि महंगाई के खिलाफ अकेला यह सख्त उपाय काफी नहीं है। इसमें शक नहीं कि अगर यही हाल रहा तो मार्च 2012 तक महंगाई 6 प्रतिशत अथवा इससे ऊपर पहुंच जाने आशंका है। इतना ही नहीं जिंसों की वैश्विक कीमतें ऊं ची रहने के कारण महंगाई अभी और भी बढ़ सकती है।
बाजार हो या विश्लेषक सभी मानते हैं कि महंगाई की वृद्धि 50 से 75 आधार अंकों तक जा सकती है। जाहिर है, विकास दर प्रभावित होगी। हालांकि मौद्रिक नीति में बचत पर ब्याज दर में भी 50 आधार अंकों का इजाफा करने से बचत खाते पर ज्यादा ब्याज हासिल होगा, लेकिन सवाल यह है कि कमर तोड़ महंगाई में बचत की गुंजाइश कहां है?और जिस के पास बचत के लिए धन है, वह सोना-चांदी से लेकर शेयर मार्केट और रीयल एस्टेट जैसे सुरक्षित औरआकर्षक क्षेत्रों में पूंजी का निवेश क्यों नहीं करेगा? कुल मिलाकर सरकार के इस मौद्रिक कदम से आम आदमी के हिस्से में कुछ भी आने वाला नहीं है। सरकार को महंगाई के मसले पर बाजार के मौजूदा हालात और भविष्य की आशंकाओं का आइना दिखा चुके आरबीआई के गवर्नर की राय में हालात से निपटने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि सरकार महंगाई की नियंत्रण प्रक्रिया में तेजी लाए ताकि अर्थव्यवस्था का संतुलन बना रहे।
उधर,बेलगाम महंगाई ने निम्न मध्यम और निम्न वर्ग की नींद पहले से ही उड़ा रखी है। रोजाना आम उपभोग की खासकर खाद्य वस्तुओं की पकड़ से बाहर हो चुकी कीमतों के बीच हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहे हैं कि आम आदमी की रसोई का बजट संतुलित करने में और तो और अब सरकार और उसके अर्थशास्त्रियों को भी पसीना आ रहा है। न तो कोई कारगर विकल्प दिख रहे हैं और ना ही कोई असरकारी उपाय सूझ रहा है। जब-जब सरकार के हाथ से महंगाई की लगाम छूटती है, तब-तब वह मुद्रा स्फीति के मुस्के कसने लगती है। ऐसी ही एक कोशिश के तहत रिजर्व बैंक ने विकास दर की फिक्र को दरकिनार करते हुए प्रमुख नीतिगत दरों में 50 आधार अंकों का इजाफा कर महंगाई से दो-दो हाथ करने का अपना इरादा साफ कर दिया है, लेकिन इससे हर किसी का भला होने वाला नहीं है। सच तो यह है कि आम आदमी को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। आवास और वाहन ऋणों की बैंक ब्याज दरों में 0.5 से 1.0 फीसदी इजाफे की आशंका ने अपना घर और अपनी कार के सपने चूर-चूर कर दिए हैं। नया कर्ज लेना भी महंगा हो जाएगा। यह भी साफ है कि महंगाई के खिलाफ अकेला यह सख्त उपाय काफी नहीं है। इसमें शक नहीं कि अगर यही हाल रहा तो मार्च 2012 तक महंगाई 6 प्रतिशत अथवा इससे ऊपर पहुंच जाने आशंका है। इतना ही नहीं जिंसों की वैश्विक कीमतें ऊं ची रहने के कारण महंगाई अभी और भी बढ़ सकती है।
बाजार हो या विश्लेषक सभी मानते हैं कि महंगाई की वृद्धि 50 से 75 आधार अंकों तक जा सकती है। जाहिर है, विकास दर प्रभावित होगी। हालांकि मौद्रिक नीति में बचत पर ब्याज दर में भी 50 आधार अंकों का इजाफा करने से बचत खाते पर ज्यादा ब्याज हासिल होगा, लेकिन सवाल यह है कि कमर तोड़ महंगाई में बचत की गुंजाइश कहां है?और जिस के पास बचत के लिए धन है, वह सोना-चांदी से लेकर शेयर मार्केट और रीयल एस्टेट जैसे सुरक्षित औरआकर्षक क्षेत्रों में पूंजी का निवेश क्यों नहीं करेगा? कुल मिलाकर सरकार के इस मौद्रिक कदम से आम आदमी के हिस्से में कुछ भी आने वाला नहीं है। सरकार को महंगाई के मसले पर बाजार के मौजूदा हालात और भविष्य की आशंकाओं का आइना दिखा चुके आरबीआई के गवर्नर की राय में हालात से निपटने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि सरकार महंगाई की नियंत्रण प्रक्रिया में तेजी लाए ताकि अर्थव्यवस्था का संतुलन बना रहे।
ओबामा की एक जायज फिक्र
ुदुनिया के दुश्मन नंबर वन ओसामा बिन लादेन के खात्मे के साथ ही क्या वैश्विक आतंकवाद के खात्मे की भी शुरु आत हो चुकी है? या फिर अमेरिका सिर्फअपने दुश्मन को हलाक करने के बाद अब चुप्पी साध कर बैठ जाएगा? इस संदर्भ में अगर अकेले अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा को गौर से देखें तो लाचारी में ही सही यह वस्तुत: विश्वव्यापी आतंकवाद के खिलाफ जंग के एलान की शुरूआत ही है। चुनावी साल में ही अमेरिका का मंदी में फंस जाना और चौपट अर्थव्यवस्था के बीच बेरोजगारी की दर का 17 फीसदी के इर्दगिर्द टिक जाना, बराक ओबामा के लिए शुभ संकेत नहीं थे। माना जा सकता है कि ओबामा पर ओसामा को ढेर करने के पीछे अप्रकट रूप से सामरिक मोर्चे पर यह एक बड़ा कूटनीतिक दबाव था। बेशक, पाकिस्तान में ओसामा की मौत के बाद क्या अमेरिका पूरी दुनिया में ओबामा की रेटिंग एकाएक सुधारआया है।
माना तो यह भी जाने लगा है कि ओसामा के कत्ल के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति के पद पर ओबामा की ताजपोशी तकरीबन-तकरीबन एक बार फिर से तय है, लेकिन यकीनी तौर पर एकदम ऐसा नहीं है? 90 के दशक में इसी अमेरिका में शीत युद्ध के खात्मे के साथ ही तब के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर की अप्रूवल रेटिंग चरम पर पहुंचने के बाद भी आम मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया था और वह दोबारा राष्ट्रपति बनने का सपना समेट कर बैठ गए थे। तब के मुकाबले हालात आज कुछ भी हों लेकिन इतना तय है कि लादेन के खात्मे में पूरा एक दशक लगा और अगर आज कामयाबी मिली तो रणनीतिक प्रयासों की पृष्ठभूमि अकेले ओबामा की देन नहीं है। ऐसे में अगर ओबामा वाकई आगे भी विश्व की सबसे शक्तिशाली हैसियत बने रहने का सपना पाले रहना चाहते हैं तो उन्हें यूूं ही गर्म लोहे पर प्रहार करते रहने होंगे। आतंकवाद के खिलाफ अपने विश्वविजयी अभियान के तहत उन्हें खासकर यह सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया से आतंक का नामोनिशान मिट जाए । वैश्विक आतंकवाद का मुख्य ठिकाना बन चुके पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान के लिए इससे बेहतर वक्त अब शायद ही फिर कभी आए।
एक हकीकत यह है कि अगर आतंक का पर्याय रहा ओसामा दुनिया को अमेरिका की देन है तो वैश्विक स्तर पर आताताइयों का आरामगाह बन चुका पाकिस्तान भी उसी की ही शह का परिणाम है। खासकर भारत के खिलाफ अमेरिका पाक का ही शुभचिंतक रहा है। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद पाकिस्तान को दो गुना आर्थिक मदद बढ़ा कर 4.3 अरब डालर कर दी गई। इस सिलसिले में ताजा खुलासे की मानें तो 9/11 से लेकर अब तक अमेरिका पाकिस्तान को 20 अरब डॉलर की आर्थिक इमदाद दे चुका है। पाकिस्तानी सत्ता जीवनयापन के लिए आधी सदी से किसी परजीवी की तरह अमेरिका से ही पोषित होती रही है, लेकिन इस एवज में पाकिस्तान ने उसे क्या दिया?आतंक के आका ओसामा को अत्यंत सुरक्षित पनाह। तिस पर तुर्रा यह कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। ऐबटाबाद में रंगेहाथ पकड़ा गया पाकिस्तान अभी भी जहां भारत को गीदड़ भभकी दे रहा है,वहीं अमेरिका से भी आंखे तरेर रहा है। पीठ पर छुरा मार कर भरोसे का खून करनेवाला दगाबाज पाकिस्तान क्या अब अमेरिका दुश्मन नंबर वन नहीं है? जरूरत तो अब इस बात की है एशियाई देशों में आतंक के खिलाफ भारत और अमेरिका मिलकर सैन्य अभियान चलाएं।
माना तो यह भी जाने लगा है कि ओसामा के कत्ल के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति के पद पर ओबामा की ताजपोशी तकरीबन-तकरीबन एक बार फिर से तय है, लेकिन यकीनी तौर पर एकदम ऐसा नहीं है? 90 के दशक में इसी अमेरिका में शीत युद्ध के खात्मे के साथ ही तब के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर की अप्रूवल रेटिंग चरम पर पहुंचने के बाद भी आम मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया था और वह दोबारा राष्ट्रपति बनने का सपना समेट कर बैठ गए थे। तब के मुकाबले हालात आज कुछ भी हों लेकिन इतना तय है कि लादेन के खात्मे में पूरा एक दशक लगा और अगर आज कामयाबी मिली तो रणनीतिक प्रयासों की पृष्ठभूमि अकेले ओबामा की देन नहीं है। ऐसे में अगर ओबामा वाकई आगे भी विश्व की सबसे शक्तिशाली हैसियत बने रहने का सपना पाले रहना चाहते हैं तो उन्हें यूूं ही गर्म लोहे पर प्रहार करते रहने होंगे। आतंकवाद के खिलाफ अपने विश्वविजयी अभियान के तहत उन्हें खासकर यह सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया से आतंक का नामोनिशान मिट जाए । वैश्विक आतंकवाद का मुख्य ठिकाना बन चुके पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान के लिए इससे बेहतर वक्त अब शायद ही फिर कभी आए।
एक हकीकत यह है कि अगर आतंक का पर्याय रहा ओसामा दुनिया को अमेरिका की देन है तो वैश्विक स्तर पर आताताइयों का आरामगाह बन चुका पाकिस्तान भी उसी की ही शह का परिणाम है। खासकर भारत के खिलाफ अमेरिका पाक का ही शुभचिंतक रहा है। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद पाकिस्तान को दो गुना आर्थिक मदद बढ़ा कर 4.3 अरब डालर कर दी गई। इस सिलसिले में ताजा खुलासे की मानें तो 9/11 से लेकर अब तक अमेरिका पाकिस्तान को 20 अरब डॉलर की आर्थिक इमदाद दे चुका है। पाकिस्तानी सत्ता जीवनयापन के लिए आधी सदी से किसी परजीवी की तरह अमेरिका से ही पोषित होती रही है, लेकिन इस एवज में पाकिस्तान ने उसे क्या दिया?आतंक के आका ओसामा को अत्यंत सुरक्षित पनाह। तिस पर तुर्रा यह कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। ऐबटाबाद में रंगेहाथ पकड़ा गया पाकिस्तान अभी भी जहां भारत को गीदड़ भभकी दे रहा है,वहीं अमेरिका से भी आंखे तरेर रहा है। पीठ पर छुरा मार कर भरोसे का खून करनेवाला दगाबाज पाकिस्तान क्या अब अमेरिका दुश्मन नंबर वन नहीं है? जरूरत तो अब इस बात की है एशियाई देशों में आतंक के खिलाफ भारत और अमेरिका मिलकर सैन्य अभियान चलाएं।
बर्बादी से कुछ तो सबक लें
देश में समर्थन मूल्य पर गेहूं की बंफर खरीदी में व्यस्त सरकारी तंत्र के पास फिलहाल अतीत की बर्बादी से सबक लेने का वक्त नहीं है। उर्पाजन केंद्रों पर गेहूं की आवक अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है और इस बीच यह फिक्र भी गहराई है कि आखिर इस रिकार्ड तोड़ खरीदी के सुरक्षित भंडारण की गारंटी क्या होगी? हमारे पास सुरक्षित स्टोरेज का ना तो कोई भरोसेमंद विकल्प है और ना ही इस सिलसिले में वैकल्पिक इंतजाम सूझ रहे हैं। सरकारी दावे के मुताबिक अब तक खरीदे गए लगभग सवा 27 लाख मीट्रिक टन गेहूं में से साढ़े 16 लाख मीट्रिक टन गेहूं का गोदामों में सुरक्षित भंडारण हो चुका है। गोदामों में लगभग 5 हजार मीट्रिक टन अनाज का स्टॉक पहले से मौजूद है।
मतलब, स्टोरेज अभी से फुल हैं। ऐसी सूरत में राज्य सरकार ने मंडी बोर्ड और भंडार गृह निगम को अतिरिक्त तौर पर स्टोरेज के लिए पॉलीथिन कैप्स बनाए जाने के निर्देश दिए हैं, लेकिन कैप्स स्टोरेज का यह वही फार्मूला है, जो पिछले साल पूरी तरह से फेल हो गया था। एक अनुमान के अनुसार तब तकरीबन 5 करोड़ रूपए मूल्य का गेहूं बारिश की वजह से बर्बाद हो गया था। इस साल भी गेहूं को सहेजने के पुख्ता प्रबंध नहीं होने से अनाज की भारी तबाही तय मानी जा रही है। यह कैसी अराजकता है कि बंफर उत्पादन और उस पर अनाज की उतनी ही बर्बादी के बीच आम आदमी भुखमरी का शिकार है। कुपोषण तो जैसे मध्यप्रदेश के गरीब बच्चों की नियति बन कर रह गई है। अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइटस एंड यू के एक ताजा सव्रे के मुताबिक राज्य के 10 जिलों के 60 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। प्रदेश के आदिवासी बहुल्य इलाकों में तो 74 प्रतिशत बच्चों का यही पीड़ा है। देश में प्रमुख खाद्यान्न गेहूं की बर्बादी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हर साल 60 लाख टन गेहूं चूहे खा जाते हैं। यह खुराक 10 करोड़ बच्चों के लिए एक साल के लिए पर्याप्त है। देश में खाद्यान्न की बर्बादी पर सुप्रीम कोर्ट कई बार अपनी चिंता जता चुका है,जबकि सर्वोच्च अदालत की मंशा अनुकरणीय है। इसमें हर्ज नहीं कि अनाज को बर्बादी से बेहतर है कि उसे गरीबों में बांट दिया जाए, लेकिन इस फिक्र से बेपरवाह केंद्र सरकार का रवैया जैसे का तैसा है। इस बीच मध्यप्रदेश सरकार ने केंद्र के सामने ओपन मार्केट में गेहूं बेच देने का अच्छा सुझाव रखा है। इससे नई फसल के गेहूं को न केवल बचाया जा सकता है बल्कि आम उपभोक्ताओं की जरूरतों को सहजता से पूरा किया जा सकता है। भारत दुनिया का अगर दूसरा बड़ा गेहूं उत्पादक देश है तो विश्व में चीन के बाद वह गेहूं का दूसरा बड़ा उपभोक्ता भी है । मध्यप्रदेश में भी इसकी बंफर पैदावर जग जाहिर है। प्रति हेक्टेयर पर यहां 1625 किलो गेहूं के उत्पादन का अनुमान है लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आम आदमी बावजूद इसके दाने-दाने को मोहताज है। इसमें शक नहीं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिए गए अल्पकालिक उपायों को वरीयता के आधार पर अपनाते हुए अनाज को जरूरत मंद गरीबों के बीच मुफ्त वितरित करने की अविलंब व्यवस्था करनी चाहिए। ओपन मार्के ट के मुकाबले यह एक आदरणीय पहल हो सकती है।
मतलब, स्टोरेज अभी से फुल हैं। ऐसी सूरत में राज्य सरकार ने मंडी बोर्ड और भंडार गृह निगम को अतिरिक्त तौर पर स्टोरेज के लिए पॉलीथिन कैप्स बनाए जाने के निर्देश दिए हैं, लेकिन कैप्स स्टोरेज का यह वही फार्मूला है, जो पिछले साल पूरी तरह से फेल हो गया था। एक अनुमान के अनुसार तब तकरीबन 5 करोड़ रूपए मूल्य का गेहूं बारिश की वजह से बर्बाद हो गया था। इस साल भी गेहूं को सहेजने के पुख्ता प्रबंध नहीं होने से अनाज की भारी तबाही तय मानी जा रही है। यह कैसी अराजकता है कि बंफर उत्पादन और उस पर अनाज की उतनी ही बर्बादी के बीच आम आदमी भुखमरी का शिकार है। कुपोषण तो जैसे मध्यप्रदेश के गरीब बच्चों की नियति बन कर रह गई है। अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइटस एंड यू के एक ताजा सव्रे के मुताबिक राज्य के 10 जिलों के 60 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। प्रदेश के आदिवासी बहुल्य इलाकों में तो 74 प्रतिशत बच्चों का यही पीड़ा है। देश में प्रमुख खाद्यान्न गेहूं की बर्बादी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हर साल 60 लाख टन गेहूं चूहे खा जाते हैं। यह खुराक 10 करोड़ बच्चों के लिए एक साल के लिए पर्याप्त है। देश में खाद्यान्न की बर्बादी पर सुप्रीम कोर्ट कई बार अपनी चिंता जता चुका है,जबकि सर्वोच्च अदालत की मंशा अनुकरणीय है। इसमें हर्ज नहीं कि अनाज को बर्बादी से बेहतर है कि उसे गरीबों में बांट दिया जाए, लेकिन इस फिक्र से बेपरवाह केंद्र सरकार का रवैया जैसे का तैसा है। इस बीच मध्यप्रदेश सरकार ने केंद्र के सामने ओपन मार्केट में गेहूं बेच देने का अच्छा सुझाव रखा है। इससे नई फसल के गेहूं को न केवल बचाया जा सकता है बल्कि आम उपभोक्ताओं की जरूरतों को सहजता से पूरा किया जा सकता है। भारत दुनिया का अगर दूसरा बड़ा गेहूं उत्पादक देश है तो विश्व में चीन के बाद वह गेहूं का दूसरा बड़ा उपभोक्ता भी है । मध्यप्रदेश में भी इसकी बंफर पैदावर जग जाहिर है। प्रति हेक्टेयर पर यहां 1625 किलो गेहूं के उत्पादन का अनुमान है लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आम आदमी बावजूद इसके दाने-दाने को मोहताज है। इसमें शक नहीं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिए गए अल्पकालिक उपायों को वरीयता के आधार पर अपनाते हुए अनाज को जरूरत मंद गरीबों के बीच मुफ्त वितरित करने की अविलंब व्यवस्था करनी चाहिए। ओपन मार्के ट के मुकाबले यह एक आदरणीय पहल हो सकती है।
रासायनिक मलबे में जहर की खोज
यूनियन कार्बाइड के खतरनाक रासायनिक कचरे के विनिष्टीकरण पर दो सप्ताह के अंदर एक्शन प्लान मांग कर हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के होश उड़ा दिए हैं। केंद्र विनिष्टीकरण की निगरानी के लिए हाईकोर्ट द्वारा पहले से ही गठित टास्क फोर्स को भंग कराने के पक्ष में था। मध्यप्रदेश सरकार की मर्जी के खिलाफ केंद्र की यह भी मंशा थी कि निगरानी का जिम्मा मंत्री समूह द्वारा गठित ओवरटाइम कमेटी को सौंपा जाए, लेकिन उच्च न्यायालय ने सख्त रूख अपनाते हुए केंद्र की इन तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया। दरअसल, असलियत तो यह है कि इस खतरनाक कचरे को नष्ट करने के मामले में केंद्र और राज्य सरकार की नीयत कभी भी ठीक नहीं रही है। विश्व की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी के 7 साल बाद ही इस तथ्य का खुलासा हो गया था कि कार्बाइड कारखाना परिसर में 1.5 मिलियन टन खतरनाक रासायनिक मलबा मौजूद है, जो बारिश के मौसम में रिस कर 3 किलोमीटर की परिधि में मौजूद 17 से भी ज्यादा बस्तियों के भूमिगत जल को जहरीला कर चुका है,लेकिन विडंबना देखिए हादसे के पूरे 27 साल बाद भी मिक कचरा जस का तस है। इससे पहले हाईकोर्ट ने 350 टन कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर स्थित इंसीनेटर में नष्ट करने के आदेश दिए थे ,लेकिन गुजरात सरकार तब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले गईथी। सुप्रीम कोर्ट की ताजा व्यवस्था के तहत केंद्र के निर्देशन में गुजरात और मध्यप्रदेश सरकार को मिलकर इसका निराकरण करना है,लेकिन क्या केंद्रऔर क्या मध्यप्रदेश सरकार? कोई भी इस मसले में गंभीर नहीं है।
अव्वल तो यह कि दोनों सरकारें यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि रासायनिक कचरा मानव जीवन या फिर पर्यावरण के लिए खतरनाक है। याद करें, अर्सा पहले राजधानी प्रवास के दौरान यूनियन कार्बाइड के कारखाने पहुंचे केंद्रीय वन एव पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वहां की मिट्टी उठाकर सरेआम कहा था कि देखिए, मैने तो मिट्टी अपने हाथ में ले रखी है। मुङो तो कुछ नहीं हुआ। कहां है,जहर..यह तो एक दम वही बात थी कि आप हाथ में सिगरेट ले लें और फिर कहें,देखो मुङो तो कैंसर हुआ ही नहीं। कभी इसी रासायनिक कचरे की सफाई के लिए दाऊ केमिकल्स से भारी भरकम फंड की मांग करने वाला केंद्रीय रसायन एवं उवर्रक मंत्रलय जहां आज इस मामले में रहस्यमयी खामोशी ओढ़ कर बैठ गया है, वहीं मध्यप्रदेश सरकार भी प्राय: यह साबित करने की कोशिश करती रही है कि रासायनिक कचरा जहरीला नहीं है। राज्य सरकार अपने दावों को पुख्ता करने के लिए अक्सर डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट ग्वालियर और राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान का हवाला देती रही है। जबकि यह जग जाहिर तथ्य है कि 15 हजार बदनसीबों को मार कर तकरीबन 5 लाख लोगों को अधमरा कर चुकी हत्यारिन मिथाइल आइसोसाइनड (मिक)पीड़ितों की दूसरी पीढ़ी को आज भी जिस तरह का धीमा जहर दे रही है, वह दर्दनाक भी है और खतरनाक भी,लेकिन अमेरिकी हितों के पोषण में अंधी हो चुकी हमारी संवेदना शून्य सरकारें कुछ देख नहीं सकती हैं।
अव्वल तो यह कि दोनों सरकारें यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि रासायनिक कचरा मानव जीवन या फिर पर्यावरण के लिए खतरनाक है। याद करें, अर्सा पहले राजधानी प्रवास के दौरान यूनियन कार्बाइड के कारखाने पहुंचे केंद्रीय वन एव पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वहां की मिट्टी उठाकर सरेआम कहा था कि देखिए, मैने तो मिट्टी अपने हाथ में ले रखी है। मुङो तो कुछ नहीं हुआ। कहां है,जहर..यह तो एक दम वही बात थी कि आप हाथ में सिगरेट ले लें और फिर कहें,देखो मुङो तो कैंसर हुआ ही नहीं। कभी इसी रासायनिक कचरे की सफाई के लिए दाऊ केमिकल्स से भारी भरकम फंड की मांग करने वाला केंद्रीय रसायन एवं उवर्रक मंत्रलय जहां आज इस मामले में रहस्यमयी खामोशी ओढ़ कर बैठ गया है, वहीं मध्यप्रदेश सरकार भी प्राय: यह साबित करने की कोशिश करती रही है कि रासायनिक कचरा जहरीला नहीं है। राज्य सरकार अपने दावों को पुख्ता करने के लिए अक्सर डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट ग्वालियर और राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान का हवाला देती रही है। जबकि यह जग जाहिर तथ्य है कि 15 हजार बदनसीबों को मार कर तकरीबन 5 लाख लोगों को अधमरा कर चुकी हत्यारिन मिथाइल आइसोसाइनड (मिक)पीड़ितों की दूसरी पीढ़ी को आज भी जिस तरह का धीमा जहर दे रही है, वह दर्दनाक भी है और खतरनाक भी,लेकिन अमेरिकी हितों के पोषण में अंधी हो चुकी हमारी संवेदना शून्य सरकारें कुछ देख नहीं सकती हैं।
शायद जाग ही जाए संवेदना
देश में किसानों की खुदकुशी के बेहद संवेदनशील मामलों पर राज्य सरकार ने भले ही खात्मा लगा दिया हो, लेकिन यह सवाल अभी मरा नहीं है? यह सुखद है कि मानवीय संवेदनाओं से जुड़े इस नाजुक मामले को राज्य मानवाधिकार आयोग ने स्वयं संज्ञान में लेकर दो सदस्यीय विशेषज्ञ समिति बनाई है। बेशक, किसानों की खुदकुशी के मसले पर राज्य मानवाधिकार आयोग की यह पहल स्वागत योग्य है, लेकिन इसी मामले में राज्य सरकार की भूमिका शुरू से ही बेहद शर्मनाक और निराशाजनक रही है।
सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए उसका प्रशासनिक तंत्र जिम्मेदार है। सरकार की नजर में आज भी प्रदेश में खुदकुशी करने वाले 348 किसानों में से 65 शराबी थे और 35पागल । बाकीं आत्महत्याओं के पीछे पत्नी वियोग से लेकर प्रेम प्रसंग तक के कुछ भी कारण हो सकते हैं, लेकिन कर्ज इसका कारण नहीं था। विधानसभा में सरकार की स्वीकारोक्ति के अनुसार इन किसानों में कुछ तो नपुंसक भी थे। जबकि किसानों की जमीनी हकीकत से कौन वाकिफ नहीं है? मोटे तौर पर अगर राज्य के किसानों पर कर्ज का आंकलन करें तो अकेले अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में साढ़े सात हजार करोड़ का कर्ज दर्ज है। इसमें यदि कम से कम ढाई हजार करोड़ का साहूकारी कर्ज भी जोड़ दें तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। इसमें दूसरे सार्वजनिक और निजी बैंकों के कर्ज के आंकड़े शामिल नहीं है। राधाकृष्णन समिति पहले ही किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज को मुख्य कारण मान चुकी है।
कौन नहीं जानता कि कम भूमि वाले किसानों के लिए बगैर कर्ज के खेती करना असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज पर्याप्त नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों के बैंकों में नौकरशाही का बोलबाला भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में साहूकार की पेढ़ी पर पगड़ी रखने के सिवाय किसान के पास कोई और रास्ता नहीं बचता है। प्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याज दर इतनी ज्यादा होती है कि साल भर के अंदर की कर्ज की मात्र दोगुनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो गरीब किसान के पास जीने के लिए कोई और वजह बचती है,क्या?
किसानों को आज तक उन्नत तकनीक का लाभ नहीं मिल पाया है। विभिन्न कारणों से प्रति व्यक्ति और प्रति हेक्टेयर उत्पादन की मात्र तेजी के साथ कम होती जा रही है। बिजली,पानी और नकली खाद-बीज का संकट खेती के साथ सदैव बना रहता है। फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता। काला बाजारियों और जमाखोरों का बाजारू दबाव हो या फिर भ्रष्ट सरकारी मशीनरी,तिस पर बेईमान मौसम सब के सब अंतत: किसानों की जान के दुश्मन ही तो हैं। उम्मीद है ,जांच समिति जल्द ही किसानों की आत्महत्या के कारणों और समाधानों की रिपोर्ट राज्य मानवाधिकार आयोग को सौंप देगी और आयोग अपनी अनुशंसाओं के साथ इसे सरकार के सुपुर्द कर देगा। शायद, अन्नदाता के प्रति सरकार की संवेदनाएं जाग जाएं! फिलहाल ,उम्मीद तो यही की जानी चाहिए।
सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए उसका प्रशासनिक तंत्र जिम्मेदार है। सरकार की नजर में आज भी प्रदेश में खुदकुशी करने वाले 348 किसानों में से 65 शराबी थे और 35पागल । बाकीं आत्महत्याओं के पीछे पत्नी वियोग से लेकर प्रेम प्रसंग तक के कुछ भी कारण हो सकते हैं, लेकिन कर्ज इसका कारण नहीं था। विधानसभा में सरकार की स्वीकारोक्ति के अनुसार इन किसानों में कुछ तो नपुंसक भी थे। जबकि किसानों की जमीनी हकीकत से कौन वाकिफ नहीं है? मोटे तौर पर अगर राज्य के किसानों पर कर्ज का आंकलन करें तो अकेले अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में साढ़े सात हजार करोड़ का कर्ज दर्ज है। इसमें यदि कम से कम ढाई हजार करोड़ का साहूकारी कर्ज भी जोड़ दें तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। इसमें दूसरे सार्वजनिक और निजी बैंकों के कर्ज के आंकड़े शामिल नहीं है। राधाकृष्णन समिति पहले ही किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज को मुख्य कारण मान चुकी है।
कौन नहीं जानता कि कम भूमि वाले किसानों के लिए बगैर कर्ज के खेती करना असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज पर्याप्त नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों के बैंकों में नौकरशाही का बोलबाला भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में साहूकार की पेढ़ी पर पगड़ी रखने के सिवाय किसान के पास कोई और रास्ता नहीं बचता है। प्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याज दर इतनी ज्यादा होती है कि साल भर के अंदर की कर्ज की मात्र दोगुनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो गरीब किसान के पास जीने के लिए कोई और वजह बचती है,क्या?
किसानों को आज तक उन्नत तकनीक का लाभ नहीं मिल पाया है। विभिन्न कारणों से प्रति व्यक्ति और प्रति हेक्टेयर उत्पादन की मात्र तेजी के साथ कम होती जा रही है। बिजली,पानी और नकली खाद-बीज का संकट खेती के साथ सदैव बना रहता है। फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता। काला बाजारियों और जमाखोरों का बाजारू दबाव हो या फिर भ्रष्ट सरकारी मशीनरी,तिस पर बेईमान मौसम सब के सब अंतत: किसानों की जान के दुश्मन ही तो हैं। उम्मीद है ,जांच समिति जल्द ही किसानों की आत्महत्या के कारणों और समाधानों की रिपोर्ट राज्य मानवाधिकार आयोग को सौंप देगी और आयोग अपनी अनुशंसाओं के साथ इसे सरकार के सुपुर्द कर देगा। शायद, अन्नदाता के प्रति सरकार की संवेदनाएं जाग जाएं! फिलहाल ,उम्मीद तो यही की जानी चाहिए।
साध्वी की सियासी शिगूफेबाजी
माले गांव बम ब्लास्ट और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व प्रचारक सुनील जोशी की हत्या के संगीन आरोपों का सामना कर रहीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की इस बौखलाहट का मतलब क्या है? कभी वह जोशी की हत्या में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का हाथ बताती हैं! तो कभी इस वारदात के पीछे उन्हें 26/11के मुंबई हमलों में शहीद हो चुके एटीएस चीफ हेमंत करकरे का हाथ लगता है। बकौल प्रज्ञा उन्हें यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के इशारे पर साजिशन फंसाया गया है। प्रदेश की भाजपा सरकार तो उन्हें फू टी आंख भी नहीं सुहा रही है। जोशी मर्डर मिस्ट्री में यह पहला मौका है ,जब साध्वी सार्वजनिक तौर पर इस कदर मुखर हुई हैं। उधर साध्वी के इन आक्रामक तेवरों के जवाब में बयानवीर दिग्गीराजा ने रहस्यमयी खामोशी ओढ़ ली है। उनकी इस खामोशी के अपने राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं। यह भी हैरतंगेज है कि इस सियासी शिगूफेबाजी को मीडिया से उतनी हवा नहीं मिली , जितनी की साध्वी को उम्मीद रही होगी। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अभी भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) पर पूरा भरोसा है। यह वही एनआईए है, जिससे अब जोशी हत्याकांड की नए सिरे से एक और जांच कराने में मध्यप्रदेश सरकार को कोई दिलचस्पी नहीं है। आधिकारिक तौर पर राज्य शासन, केंद्रीय गृहमंत्रलय से पहले ही दो टूक कह चुका है कि मामला अब कोर्ट में है और इस मसले की अब और किसी जांच का कोई औचित्य नहीं है। बावजूद इसके साध्वी का एनआईए पर भरोसा तमाम तरह के अंदेशों को जन्म देता है। संघ के पूर्व प्रचारक सुनील जोशी की हत्या में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की भूमिका के सवाल पर राज्य की भाजपा सरकार पहले ही अपनी इतनी लानत-मलानत करा चुकी है कि अब वह किसी और फसाद में फंसना नहीं चाहती है। संभव है, राज्य सरकार की किनाराकसी का यह अप्रत्याशित रवैया साध्वी की बौखलाहट की मुख्य वजह हो। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह से साध्वी की अदावत कोई नई बात नहीं है। मुंबई हमले में शहीद एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत के मामले में हिंदू आतंकवाद पर दिग्गीराजा का बहुविवादित बयान रहा हो या फिर प्रज्ञा की गिरफ्तारी के फौरन बाद भाजपा के दो शीर्ष नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात पर जवाब तलब। दिग्गी और साध्वी अक्सर एक-दूसरे के निशाने पर रहे हैं। सरसरी तौर पर प्रज्ञा की यह मुखर बयानबाजी उनकी बौखलाहट का ही नतीजा लगती है। उनके तमाम आरोपों में तथ्यों का अभाव है। सोनिया -शरद के तार इस मामले में कहीं से नहीं जुड़ते हैं। सुनील जोशी की हत्या के अर्सा बाद इस मामले से दिग्विजय सिंह की लाइन मिलाने का तुक भी समझ से परे है। यही वजह है कि साध्वी मध्यप्रदेश के सियासी गलियारों में अपने आक्रामक तेवरों के बाद भी कोई गर्माहट नहीं पैदा कर पाईं। संभवत : आदतन सनसनीखेज मीडिया को भी इसमें कोई खास रस नहीं समझ में आया। सच तो यह है कि अति महात्वाकांक्षी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर अब खुद को अलग-थलग और उपेक्षित महसूस करने के कारण अवसाद में हैं। उन्हें उपचार की जरूरत है।
शिक्षा की एक और समीक्षा
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की शैक्षणिक समीक्षा राज्य में शिक्षा में गुणात्मक सुधार की कोई खास उम्मीद नहीं जगाती है। अलबत्ता, बच्चों को स्कूल से जोड़ने की उनकी प्रलोभनकारी योजनाओं का जवाब नहीं है। चाहे वह शिक्षा से वंचित अनाथ बच्चों को छात्रवासों में पांच फीसदी कोटा आरक्षित करने का ताजा एलान हो या फिर इस साल पहली बार दूसरे गांव पढ़ाई करने करने जाने वाले बालकों को साइकिल गिफ्ट करने की बात। बेशक,छात्रओं को आगे की पढ़ाई से जोड़े रखने के लिए सरकार की साइकिल योजना के प्रदेश में सुखद नतीजे सामने आए हैं। तीन साल के अंदर राज्य में लगभग साढ़े 4 लाख छात्रओं को इस सरकारी योजना का लाभ मिला है, लेकिन ऐसे प्रलोभनकारी प्रयास कब तक और कितने टिकाऊ साबित होंगे? यह कह पाना जरा कठिन है। मिड-डे मिल का हाल किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा में गुणात्मक सुधार के सवाल पर केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया प्राय: प्रयोगवादी रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की रोजगार मूलक नई शिक्षा नीति रही हो या शिक्षा का लोकव्यापी करण, सर्वशिक्षा अभियान या फिर पालक-शिक्षक संघ जैसे जनभागीदारी के प्रायोगिक प्रयास लेकिन बुनियादी शिक्षा के विकास की राह में हम बहुत आगे नहीं जा पाए हैं।
कहने को तो अब शिक्षा के अधिकार की गारंटी भी हमारे साथ है,लेकिन पूरे एक साल बाद नतीजा अंतत: शिफर ही है। मध्यप्रदेश में इस कानून के पालन में अभी और कितना वक्त लगेगा? सरकार के पास भी इसका जवाब नहीं है। दरअसल ,प्रदेश में जमीनी स्तर पर हम अभी तक शिक्षा का पुख्ता और भरोसेमंद आधारभूत ढांचा नहीं तैयार कर पाए हैं। संसाधनों की भारी कमी है। राज्य में नि:शुल्क और बाल शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए 1 लाख 36 सौ से भी ज्यादा ऐसे शिक्षकों की जरूरत है, जो अकादमिक प्राधिकारी राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के मानकों की कसौटी पर खरे हों। प्रदेश में पहले से ही 60 हजार शिक्षकों की कमी है। शिक्षा विभाग नए मानकों पर खाली पदों को भरने के लिए एक साल बाद भी मौजूदा नियमों को संशोधित तक नहीं कर पाया है। सच तो यह है कि हमारा शैक्षणिक ढांचा शिक्षा की गारंटी का बोझ बर्दाश्त करने की हालत में ही नहीं है। राज्य के साढ़े 14 हजार प्राथमिक और डेढ़ हजार मिडिल स्कूलों में सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। इन स्कूलों में लगभग 25 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
मध्यप्रदेश के 50 प्रतिशत सरकारी स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर मानकों को पूरा नहीं करता है। 75 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान तो दूर शौचालय तक नहीं हैं। राज्य में बहुतायत शैक्षणिक अमला बेलगाम है। ग्रामीण अंचलों में पदस्थ शिक्षक प्राय: अपने पदस्थापना वाले स्थलों पर नहीं रहते हैं। मिसाल के तौर पर राजधानी भोपाल में लगभग 5 सौ ऐसे शिक्षक हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव के दम पर 50 किलोमीटर के दायरे में अपनी पदस्थापना कर रखी है। नौकरी इनकी मर्जी पर निर्भर है। हर शिक्षक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए शहरी क्षेत्रों में रहना चाहता है। कोई दूसरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए गांव नहीं जाना चाहता। इन पर शिक्षा विभाग का जोर नहीं है क्योंकि सबके अपने सियासी जुगाड़ हैं। इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए।
कहने को तो अब शिक्षा के अधिकार की गारंटी भी हमारे साथ है,लेकिन पूरे एक साल बाद नतीजा अंतत: शिफर ही है। मध्यप्रदेश में इस कानून के पालन में अभी और कितना वक्त लगेगा? सरकार के पास भी इसका जवाब नहीं है। दरअसल ,प्रदेश में जमीनी स्तर पर हम अभी तक शिक्षा का पुख्ता और भरोसेमंद आधारभूत ढांचा नहीं तैयार कर पाए हैं। संसाधनों की भारी कमी है। राज्य में नि:शुल्क और बाल शिक्षा के अधिकार को अमल में लाने के लिए 1 लाख 36 सौ से भी ज्यादा ऐसे शिक्षकों की जरूरत है, जो अकादमिक प्राधिकारी राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के मानकों की कसौटी पर खरे हों। प्रदेश में पहले से ही 60 हजार शिक्षकों की कमी है। शिक्षा विभाग नए मानकों पर खाली पदों को भरने के लिए एक साल बाद भी मौजूदा नियमों को संशोधित तक नहीं कर पाया है। सच तो यह है कि हमारा शैक्षणिक ढांचा शिक्षा की गारंटी का बोझ बर्दाश्त करने की हालत में ही नहीं है। राज्य के साढ़े 14 हजार प्राथमिक और डेढ़ हजार मिडिल स्कूलों में सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। इन स्कूलों में लगभग 25 लाख बच्चे पढ़ते हैं।
मध्यप्रदेश के 50 प्रतिशत सरकारी स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर मानकों को पूरा नहीं करता है। 75 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान तो दूर शौचालय तक नहीं हैं। राज्य में बहुतायत शैक्षणिक अमला बेलगाम है। ग्रामीण अंचलों में पदस्थ शिक्षक प्राय: अपने पदस्थापना वाले स्थलों पर नहीं रहते हैं। मिसाल के तौर पर राजधानी भोपाल में लगभग 5 सौ ऐसे शिक्षक हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव के दम पर 50 किलोमीटर के दायरे में अपनी पदस्थापना कर रखी है। नौकरी इनकी मर्जी पर निर्भर है। हर शिक्षक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए शहरी क्षेत्रों में रहना चाहता है। कोई दूसरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए गांव नहीं जाना चाहता। इन पर शिक्षा विभाग का जोर नहीं है क्योंकि सबके अपने सियासी जुगाड़ हैं। इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए।
समनांतर सत्ता का सत्य
ेAराष्ट्रीय पंचायत दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था को और अधिक शक्तिशाली बनाए जाने की प्रति केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई है। यह प्रतिबद्धता उस वक्त सामने आई है जब देश के ग्राम्य अंचलों में चल रही
खाप पंचायतों जैसी समानांतर सत्ता ने देश के कानून को मानने से इंकार कर दिया है। आदिम युग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित ऐसी स्वयंभू सत्ता की सामाजिक जड़ें आज भी बहुत गहरी हैं।
समाज में नैतिकता के ठेकेदार ऐसे गोलबंद सामाजिक सिद्धांत अकेले हरियाणा का संकट नहीं है। समूचे भारतीय समाज में यह समस्या आज भी किसी न किसी रूप में पोषित हो रही है। विडंबना देखिए,कथित सभ्य समाज में व्याप्त ये रूढ़ियां कानून को दम दिखाने का साहस भी रखती हैं। आदिमयुग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित खाप पंचायतों का खौफ जगजाहिर है। सवाल यह है कि ऐसी समानांतर सत्ता का इस जनतांत्रिक समाज में औचित्य क्या है? इनके फरमान फतवे जैसे हैं। क्या संविधान कानून हाथ में लेने का अधिकार इन्हें देता है? गोत्र पद्धति वस्तुत: झगड़े की बुनियादी जड़ है,पर क्या गोत्र का कोई वैज्ञानिक आधार है? जब वैज्ञानिक आधार ही नहीं है तो इसे संवैधानिक संरक्षण का सवाल ही नहीं उठता है। परिवर्तन प्रकृति की अपरिहार्य प्रक्रिया है। वैश्विकयुग में हमें अपने रूढ़िवादी विचारों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यह जैनेटिक इंजीनियरिंग का युग है। जहां परखनली शिशु के सफलतम प्रयोग हमारे सामने हैं। जहां ब्लड बैंक की तरह सीमेन बैंक हैं। यह वह दौर है जब दुनिया मनुष्य के जन्म की आकस्मिक घटना को पूर्वनियोजित करने के अनुसंधानों पर बहुत आगे जा चुकी है।
आज हम हर बात के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं,मगर मजाक देखिए, मनुष्य और मनुष्यता के विचार के लिए हमारा नजरिया खालिस अवैज्ञानिक है। विज्ञान आज बुद्धिमान,स्वस्थ्य और दीर्घायु भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए नित-नए रिसर्च में जुटा हुआ हैऔर हम कथित सामाजिक नैतिकता के नाम पर सिर्फ अपनी सामाजिक ठेकेदारी की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति,संस्कारों और परंपराओं के अपने वैज्ञानिक आधार हैं लेकिन गोत्र परंपरा का अब तक कोई ऐसा प्रामाणिक आधार नहीं मिला है। क्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बच्चे को जन्म देना विवेकपूर्ण नहीं है?अंधे,बहरे,विक्षिप्तिऔर शारीरिक-मानसिक तौर पर कमजोर बच्चों को समाज में लाने से बेहतर यह नहीं कि भावी भारत के गौरवशाली निर्माण के लिए हम अनुवांशिक अभियांत्रिकी को स्वीकार करें। बुद्धिमान, रचनाशील और प्रेमपूर्ण समाज के निर्माण के लिए हमें क्या अब सामाजिक ठेकेदारी से तौबा नहीं कर लेनी चाहिए। लिव-इन-रिलेशनशिप हो या समलैंगिकता का सवाल कानूनी दृष्टिकोण साफ है। हर किसी को आजादी है कि वह कैसे विक ल्पों को अपनी सहमति देता है। इनके प्रति रजामंदी के मामले में कानून का कोई बाध्यकारी नियम नहीं है,लेकिन असहमति भी नितांत निजी मामला ही है। अत: समाज हित में यही है कि समानांतर सत्ता के इस स्वयंभू सामाजिक सिद्धांत का सामाजिक तौर पर ही बहिष्कार होना चाहिए।
खाप पंचायतों जैसी समानांतर सत्ता ने देश के कानून को मानने से इंकार कर दिया है। आदिम युग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित ऐसी स्वयंभू सत्ता की सामाजिक जड़ें आज भी बहुत गहरी हैं।
समाज में नैतिकता के ठेकेदार ऐसे गोलबंद सामाजिक सिद्धांत अकेले हरियाणा का संकट नहीं है। समूचे भारतीय समाज में यह समस्या आज भी किसी न किसी रूप में पोषित हो रही है। विडंबना देखिए,कथित सभ्य समाज में व्याप्त ये रूढ़ियां कानून को दम दिखाने का साहस भी रखती हैं। आदिमयुग की बर्बर न्याय व्यवस्था पर आधारित खाप पंचायतों का खौफ जगजाहिर है। सवाल यह है कि ऐसी समानांतर सत्ता का इस जनतांत्रिक समाज में औचित्य क्या है? इनके फरमान फतवे जैसे हैं। क्या संविधान कानून हाथ में लेने का अधिकार इन्हें देता है? गोत्र पद्धति वस्तुत: झगड़े की बुनियादी जड़ है,पर क्या गोत्र का कोई वैज्ञानिक आधार है? जब वैज्ञानिक आधार ही नहीं है तो इसे संवैधानिक संरक्षण का सवाल ही नहीं उठता है। परिवर्तन प्रकृति की अपरिहार्य प्रक्रिया है। वैश्विकयुग में हमें अपने रूढ़िवादी विचारों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यह जैनेटिक इंजीनियरिंग का युग है। जहां परखनली शिशु के सफलतम प्रयोग हमारे सामने हैं। जहां ब्लड बैंक की तरह सीमेन बैंक हैं। यह वह दौर है जब दुनिया मनुष्य के जन्म की आकस्मिक घटना को पूर्वनियोजित करने के अनुसंधानों पर बहुत आगे जा चुकी है।
आज हम हर बात के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं,मगर मजाक देखिए, मनुष्य और मनुष्यता के विचार के लिए हमारा नजरिया खालिस अवैज्ञानिक है। विज्ञान आज बुद्धिमान,स्वस्थ्य और दीर्घायु भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए नित-नए रिसर्च में जुटा हुआ हैऔर हम कथित सामाजिक नैतिकता के नाम पर सिर्फ अपनी सामाजिक ठेकेदारी की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति,संस्कारों और परंपराओं के अपने वैज्ञानिक आधार हैं लेकिन गोत्र परंपरा का अब तक कोई ऐसा प्रामाणिक आधार नहीं मिला है। क्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बच्चे को जन्म देना विवेकपूर्ण नहीं है?अंधे,बहरे,विक्षिप्तिऔर शारीरिक-मानसिक तौर पर कमजोर बच्चों को समाज में लाने से बेहतर यह नहीं कि भावी भारत के गौरवशाली निर्माण के लिए हम अनुवांशिक अभियांत्रिकी को स्वीकार करें। बुद्धिमान, रचनाशील और प्रेमपूर्ण समाज के निर्माण के लिए हमें क्या अब सामाजिक ठेकेदारी से तौबा नहीं कर लेनी चाहिए। लिव-इन-रिलेशनशिप हो या समलैंगिकता का सवाल कानूनी दृष्टिकोण साफ है। हर किसी को आजादी है कि वह कैसे विक ल्पों को अपनी सहमति देता है। इनके प्रति रजामंदी के मामले में कानून का कोई बाध्यकारी नियम नहीं है,लेकिन असहमति भी नितांत निजी मामला ही है। अत: समाज हित में यही है कि समानांतर सत्ता के इस स्वयंभू सामाजिक सिद्धांत का सामाजिक तौर पर ही बहिष्कार होना चाहिए।
समाज सेवा का एक और चेहरा
देश में सवरेदय के सूत्रधार संत विनोबा भावे ने कभी कहा था- अब सरकारी तंत्र में असर नहीं रहा। अब, कहीं असर है तो वो हैं, असरकारी संगठन ..मगर अफसोस, आज तस्वीर एकदम उलटी है। आज समाजसेवा मुनाफे का सौदा बनकर बैठ गई है और सामाजिक सरोकार से जुड़े उसके नैतिक मूल्य तकरीबन -तकरीबन तिरोहित हो चुके हैं। देश-प्रदेश में ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की भी लंबी फेहरिस्त है जो जनसेवा का स्वांग तो रचते हैं, लेकिन पोषित और नियंत्रित अंतत: सियासी संस्कारों से ही हैं। इनके अपनी कोई सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं है। प्रेसनोटजीवी ये स्वैच्छिक संगठन भारीभरकम सरकारी बजट से आदतन निजी हितों का पोषण करते हैं। कांग्रेस की आसरा हो या फिर भाजपा का आनंदधाम..ये दोनों कथित समाजसेवी संगठन अगर वयोवृद्ध दृष्टिहीन हरीश जैन के प्रति इस हद तक संवेदनशून्य हैं तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं । उम्र के इस नाजुक दौर में अपनों से ही छले गए एक बेसहारा, नि:शक्त और किस्मत के मारे इस बुजुर्ग का कसूर यही है कि वह आसरा और आनंदधाम जैसों के लिए फायदे का सौदा नहीं हैं लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि भौतिकता की भागमभाग में तेज रफ्तार राजधानी भोपाल की तहजीब को ये क्या होता जा रहा है? मानवीय पहलू से जुड़े ऐसे संवेदनशील मसलों को अंजाम तक पहुंचने की राजधानी के मुख्यधारा की मीडिया की रवायत को कहीं हम खोते तो नहीं जा रहे हैं? फुटपाथ पर फुटबाल बनी एक असहाय और बेजार जिंदगी को देखकर हमारा पत्थर दिल अब पसीजता क्यों नहीं है? आखिर अब हमारे क दम ठिठकते क्यों नहीं ?
वैश्वीकरण के इस दौर में जब हर मूल्य बिकाऊ है। समाज से परिवार टूट रहे हैं। परस्पर सामाजिक संबंधों का ताना-बाना बिखर रहा है। निजता में हमारी सामाजिकता शुतुरमुर्ग होगई है। खालिस लाभ-हानि पर टिकी निष्ठाओं के इस दौर में बेशक पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार और भी सघन हो जाते हैं। सामाजिक जवाबदेही हर किसी की बनती है। वह चाहे शासन हो या प्रशासन या फिर स्वयं भू समाजसेवी संगठन। इन्हें अब अपने दायित्वों को समझना ही होगा। आसरा और आनंदधाम जैसे चरित्र तो समाज सेवा के स्वांग का महज एक चेहरा हैं। सचमुच समाजसेवा मुनाफे का सौदा बन चुकी है। सेवा के नाम पर मेवा का यह खेल पूरे देश में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। सियासतदारों और नौकरशाहों की जुगलबंदी पर्दे के पीछे से यहां भी मलाई मार रही है। तकरीबन दो दशक पहले उदारीकरण की सामाजिक प्रक्रिया के तहत समाज के अंतिम छोर में खड़े आम आदमी को सामाजिक,आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के इरादे से समाजसेवी स्वैच्छिक संगठनों को यह दायित्व सौंपा गया था। तब यह माना गया था कि जमीनी स्तर पर बदलाव का यह नवाचार व्यावहारिक स्तर पर सरकारी मशीनरी के लिए मुमकिन नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त सामाजिक विकास के इस संकल्प को पलीता लग चुका है। लाभ के इस धंधें में गफलत इस कदर है कि हजार से भी ज्यादा समाजसेवी संगठन अकेले केंद्र सरकार की नजर में ब्लैक लिस्टेड हैं। हजारों -हजार कथित स्वयं सेवी संगठनों में 20 मिलियन समाजसेवी काम कर रहे हैं।
वैश्वीकरण के इस दौर में जब हर मूल्य बिकाऊ है। समाज से परिवार टूट रहे हैं। परस्पर सामाजिक संबंधों का ताना-बाना बिखर रहा है। निजता में हमारी सामाजिकता शुतुरमुर्ग होगई है। खालिस लाभ-हानि पर टिकी निष्ठाओं के इस दौर में बेशक पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार और भी सघन हो जाते हैं। सामाजिक जवाबदेही हर किसी की बनती है। वह चाहे शासन हो या प्रशासन या फिर स्वयं भू समाजसेवी संगठन। इन्हें अब अपने दायित्वों को समझना ही होगा। आसरा और आनंदधाम जैसे चरित्र तो समाज सेवा के स्वांग का महज एक चेहरा हैं। सचमुच समाजसेवा मुनाफे का सौदा बन चुकी है। सेवा के नाम पर मेवा का यह खेल पूरे देश में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। सियासतदारों और नौकरशाहों की जुगलबंदी पर्दे के पीछे से यहां भी मलाई मार रही है। तकरीबन दो दशक पहले उदारीकरण की सामाजिक प्रक्रिया के तहत समाज के अंतिम छोर में खड़े आम आदमी को सामाजिक,आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के इरादे से समाजसेवी स्वैच्छिक संगठनों को यह दायित्व सौंपा गया था। तब यह माना गया था कि जमीनी स्तर पर बदलाव का यह नवाचार व्यावहारिक स्तर पर सरकारी मशीनरी के लिए मुमकिन नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त सामाजिक विकास के इस संकल्प को पलीता लग चुका है। लाभ के इस धंधें में गफलत इस कदर है कि हजार से भी ज्यादा समाजसेवी संगठन अकेले केंद्र सरकार की नजर में ब्लैक लिस्टेड हैं। हजारों -हजार कथित स्वयं सेवी संगठनों में 20 मिलियन समाजसेवी काम कर रहे हैं।
नई तबादला नीति 2011
AAAराज्य सरकार की नई तबादला नीति-2011सामने है। पसंदीदा ट्रांसफर-पोस्टिंग देकर चहेतों को उपकृत करने के मामलों मेंअफसरशाही के हाथ एक बार फिर खाली हैं। सब कुछ सियासतदार ही तय करेंगे। आखिर पार्टी फंड के लिए चंदे का भी सवाल है। वैसे भी तबादलों से बैन उठाने के कैबिनेट के इस फैसले से राज्य सरकार के खजाने पर तकरीबन 5 सौ लाख का अतिरिक्त आर्थिक बोझ आने की आशंका है। इस भारी भरकम बोझ की भरपाई न सही कुछ तो कवर करने का काम माननीय ही कर सकते हैं। तबादलों की आड़ में सिर्फ अपनी जेबें भरने के लिए बदनाम अफसरशाही को शायद इसी वजह से एक बार फिर से कोई चांस नहीं दिया गया है।
एक अनुमान के अनुसार प्रदेश में राज्य सरकार के लगभग 61 विभागों में साढ़े पांच लाख अधिकारी कर्मचारी कार्यरत हैं,इनमें से सिर्फ 50 हजार शासकीय सेवकों को ही स्थानांतरण का लाभ मिलेगा। मोटे तौर पर प्रति 1 हजार कर्मचारियों के बीच महज 120 कर्मचारी ही तबादले का लाभ ले पाएंगे। पूरा खेल 37 दिनों का है। तबादलों की इस गणित का कुल जमा लब्बोलुआब यह है कि सरकार अबकि जरा सख्ती के मूड में है। ट्रांसफर के सात दिन के अंदर नई पदस्थापना पर हर हाल में ज्वाइनिंग देनी है,वर्ना निलंबन तय है। टाइम कम और काम ज्यादा है। सिर्फ 10 प्रतिशत में कोटा टाइट करने से क्राइसिस और भी बढ़ गई है। यह अधिकतम मांग के मुकाबले न्यूनतम उपलब्धता के आर्थिक फामरूले जैसा मामला है। यही वजह है कि बहुचर्चित तबादला उद्योग को सुर्खियों के पंख लग गए हैं। पूरे एक साल बाद बैन खुला है। बिचौलिए भी सक्रिय हैं। अंतरजिला तबादलों का पावर प्रभारी मंत्रियों के पास है, जबकि राज्य स्तर पर फैसले विभागीय मंत्री करेंगे। स्थानांतरण के फै सले लेते वक्त इन माननीयों को पार्टी पालिटिक्स भी देखनी है। जमीनी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का भी आदर करना है। उधर,तबादलों के अधिकारों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना चुके इन सियासतदारों से अफसरशाही खुश नहीं है। नौकरशाहों तर्क था कि सरकार आप हो इसमें शक नहीं,लेकिन सरकार तोआखिर हमें ही चलानी पड़ती है,लेकिन इन तमाम तर्को के बाद भी अंतत: अफसरशाही हार गई।
इस बीच स्थानांतरण से बैन हटने के साथ ही राजधानी में स्वाभाविक रूप से अजीब सी हलचल है। दिग्विजय सिंह सरकार में तबादला सीजन के दौरान यहां जिस कदर गदर मची थी, अबकि ऐसे ही आशंका है। तब स्थानांतरण की प्रत्याशा में बगैर इजाजत मुख्यालय छोड़कर यहां ठहरे अधिकारी -कर्मचारियों की धरपकड़ के लिए राजधानी प्रशासन ने होटलों में छापामारी की थी।
नई तबादला नीति में यूं तो कुछ खास नहीं है,लेकि न परंपरागत तौर पर पहले अनचाहे तबादले होंगे,फिर मनचाहे तबादलों का दौर चलेगा और फिर दनादन संशोधित आदेश जारी होंगे। स्थानांतरण की इस पेंचीदा प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही बैन फिर से लग जाएगा,लेकिन बैक डेट पर फाइल कब तक चलेगी कुछ कहा नहीं जा सकता है। अलबत्ता ऐसा क्यों होगा? जग जाहिर है। तबादलों के लिए सुविधा शुल्क का रिवाज नया नहीं है।नई तबादला नीति से कमाई वाली कुर्सियों में वर्षो से कुंडली बना कर बैठे अधिकारियों -कर्मचारियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
एक अनुमान के अनुसार प्रदेश में राज्य सरकार के लगभग 61 विभागों में साढ़े पांच लाख अधिकारी कर्मचारी कार्यरत हैं,इनमें से सिर्फ 50 हजार शासकीय सेवकों को ही स्थानांतरण का लाभ मिलेगा। मोटे तौर पर प्रति 1 हजार कर्मचारियों के बीच महज 120 कर्मचारी ही तबादले का लाभ ले पाएंगे। पूरा खेल 37 दिनों का है। तबादलों की इस गणित का कुल जमा लब्बोलुआब यह है कि सरकार अबकि जरा सख्ती के मूड में है। ट्रांसफर के सात दिन के अंदर नई पदस्थापना पर हर हाल में ज्वाइनिंग देनी है,वर्ना निलंबन तय है। टाइम कम और काम ज्यादा है। सिर्फ 10 प्रतिशत में कोटा टाइट करने से क्राइसिस और भी बढ़ गई है। यह अधिकतम मांग के मुकाबले न्यूनतम उपलब्धता के आर्थिक फामरूले जैसा मामला है। यही वजह है कि बहुचर्चित तबादला उद्योग को सुर्खियों के पंख लग गए हैं। पूरे एक साल बाद बैन खुला है। बिचौलिए भी सक्रिय हैं। अंतरजिला तबादलों का पावर प्रभारी मंत्रियों के पास है, जबकि राज्य स्तर पर फैसले विभागीय मंत्री करेंगे। स्थानांतरण के फै सले लेते वक्त इन माननीयों को पार्टी पालिटिक्स भी देखनी है। जमीनी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का भी आदर करना है। उधर,तबादलों के अधिकारों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना चुके इन सियासतदारों से अफसरशाही खुश नहीं है। नौकरशाहों तर्क था कि सरकार आप हो इसमें शक नहीं,लेकिन सरकार तोआखिर हमें ही चलानी पड़ती है,लेकिन इन तमाम तर्को के बाद भी अंतत: अफसरशाही हार गई।
इस बीच स्थानांतरण से बैन हटने के साथ ही राजधानी में स्वाभाविक रूप से अजीब सी हलचल है। दिग्विजय सिंह सरकार में तबादला सीजन के दौरान यहां जिस कदर गदर मची थी, अबकि ऐसे ही आशंका है। तब स्थानांतरण की प्रत्याशा में बगैर इजाजत मुख्यालय छोड़कर यहां ठहरे अधिकारी -कर्मचारियों की धरपकड़ के लिए राजधानी प्रशासन ने होटलों में छापामारी की थी।
नई तबादला नीति में यूं तो कुछ खास नहीं है,लेकि न परंपरागत तौर पर पहले अनचाहे तबादले होंगे,फिर मनचाहे तबादलों का दौर चलेगा और फिर दनादन संशोधित आदेश जारी होंगे। स्थानांतरण की इस पेंचीदा प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही बैन फिर से लग जाएगा,लेकिन बैक डेट पर फाइल कब तक चलेगी कुछ कहा नहीं जा सकता है। अलबत्ता ऐसा क्यों होगा? जग जाहिर है। तबादलों के लिए सुविधा शुल्क का रिवाज नया नहीं है।नई तबादला नीति से कमाई वाली कुर्सियों में वर्षो से कुंडली बना कर बैठे अधिकारियों -कर्मचारियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
देश में सफेदपोश सियासतदारों के साझा उपक्रम भ्रष्टाचार के काले कारनामों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। बोफोर्स,हर्षद,हवाला,टू-जी,राडियाऔर राष्ट्रमंडल से लेकर आदर्श सोसायटी जैसे महा घोटाले क्या इस देश की अर्थव्यवस्था के लिए आघात नहीं हैं? विदेशी खातों में देशी धन को राजद्रोह की संज्ञा क्यों नहीं दी जा सकती है? एक साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिलसिले में चिंता जताते हुए स्पष्ट कहा था कि देश के कानून और राष्ट्रीय हितों को सबसे ज्यादा नुकसान बड़े आर्थिक अपराधी ही पहुंचाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आगाह करते हुए इस सिलसिले में अविलंब विशेष न्यायालय के गठन का सुझाव भी दिया था।
सर्वोच्च अदालत का कहना था कि केंद्र सरकार चाहे तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श कर ऐसी अदालतों का गठन कर सकती है,लेकिन विडंबना देखिए,भारत में आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए ना तो पर्याप्त कानून हैं और ना ही एक अदद विशेष न्यायाधिकरण। सच तो यह है कि सरकार इस सवाल पर सदैव मुंह चुराती रही है। असलियत तो यह भी है कि समूची भारतीय राजनीति इसी काली अर्थव्यवस्था पर टिकी है और यही कालाधन देश के अर्थतंत्र को तार-तार कर रहा है।
कहने को तो देश में धन कर अधिनियम-1958 से लेकर धन शोधन निवारण अधिनियम-2002 तक तकरीबन दो दर्जन कानून हैं लेकिन इनमें से एक भी कानून अपराधियों में वैसा खौफ नहीं पैदा करता है जैसा भय राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मसले पर देशद्रोह की धारा 124-ए से पैदा होता है। सवाल यहां राजद्रोह के मौजूदा कानून से सहमत होने का नहीं है।
सवाल सिर्फ इतना है कि ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध जो देश की एकता,अखंडता और संप्रभुता के लिए घातक हो उसे देशद्रोह की संज्ञा देकर संज्ञान में लेने से सरकार को आखिर परहेज क्यों है?
वस्तुत: विवाद की जड़ वैश्वीकरण है। उपनिवेशवाद के इस नए अवतार को हम नव उपनिवेशवाद की भी संज्ञा दे सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण के चलते जमीनी स्तर पर आम आदमी में अप्रत्याशित रूप से किस्त दर किस्त बढ़ी क्रय शक्ति से जहां निम्न मध्यमवर्ग में बेहतर जीवन की अभिलाषा से भ्रष्टाचार को पोषण मिला है, वहीं शीर्ष स्तर पर सत्ता के लिए तेजी के साथ बढ़े गलाकाट संघर्ष ने कारपोरेट घरानों के लिए और बड़े दरवाजे खोले हैं। सत्ता से लेकर सड़क तक आज भारी पूंजी निवेश के चलते कारपोरेट घरानों का जोरदार दखल दिखता है। नतीजतन सियासतदार हों या नौकरशाह और या फिर इन सबों को आइना दिखाना वाला मुख्यधारा का मीडिया सबके सब इन्हीं कारपोरेट घरानों के इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को यूं आस्तीन में सांप की तरह पालने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बेहतर हो कि हम दुनिया में तेजी के साथ संभलती भारतीय अर्थव्यवस्था को असंतुलित करने वाले आर्थिक अपराधियों से अब सख्ती के साथ निपटें। इसके लिए हमें न केवल दलीय भावना से बाहर आना होगा अपितु आर्थिक मोर्चे पर निहित स्वार्थो की तिलांजलि भी देनी होगी। वर्ना एक बार यदि यह अर्थव्यवस्था टूटी तो न यह देश रहेगा और न हम सब। यह एक और स्वतंत्रता आंदोलन जैसा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नव उपनिवेशवाद से आजादी ,जैसा..
सर्वोच्च अदालत का कहना था कि केंद्र सरकार चाहे तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श कर ऐसी अदालतों का गठन कर सकती है,लेकिन विडंबना देखिए,भारत में आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए ना तो पर्याप्त कानून हैं और ना ही एक अदद विशेष न्यायाधिकरण। सच तो यह है कि सरकार इस सवाल पर सदैव मुंह चुराती रही है। असलियत तो यह भी है कि समूची भारतीय राजनीति इसी काली अर्थव्यवस्था पर टिकी है और यही कालाधन देश के अर्थतंत्र को तार-तार कर रहा है।
कहने को तो देश में धन कर अधिनियम-1958 से लेकर धन शोधन निवारण अधिनियम-2002 तक तकरीबन दो दर्जन कानून हैं लेकिन इनमें से एक भी कानून अपराधियों में वैसा खौफ नहीं पैदा करता है जैसा भय राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मसले पर देशद्रोह की धारा 124-ए से पैदा होता है। सवाल यहां राजद्रोह के मौजूदा कानून से सहमत होने का नहीं है।
सवाल सिर्फ इतना है कि ऐसा गंभीर आर्थिक अपराध जो देश की एकता,अखंडता और संप्रभुता के लिए घातक हो उसे देशद्रोह की संज्ञा देकर संज्ञान में लेने से सरकार को आखिर परहेज क्यों है?
वस्तुत: विवाद की जड़ वैश्वीकरण है। उपनिवेशवाद के इस नए अवतार को हम नव उपनिवेशवाद की भी संज्ञा दे सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण के चलते जमीनी स्तर पर आम आदमी में अप्रत्याशित रूप से किस्त दर किस्त बढ़ी क्रय शक्ति से जहां निम्न मध्यमवर्ग में बेहतर जीवन की अभिलाषा से भ्रष्टाचार को पोषण मिला है, वहीं शीर्ष स्तर पर सत्ता के लिए तेजी के साथ बढ़े गलाकाट संघर्ष ने कारपोरेट घरानों के लिए और बड़े दरवाजे खोले हैं। सत्ता से लेकर सड़क तक आज भारी पूंजी निवेश के चलते कारपोरेट घरानों का जोरदार दखल दिखता है। नतीजतन सियासतदार हों या नौकरशाह और या फिर इन सबों को आइना दिखाना वाला मुख्यधारा का मीडिया सबके सब इन्हीं कारपोरेट घरानों के इर्द-गिर्द ही नजर आते हैं। भ्रष्टाचार को यूं आस्तीन में सांप की तरह पालने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बेहतर हो कि हम दुनिया में तेजी के साथ संभलती भारतीय अर्थव्यवस्था को असंतुलित करने वाले आर्थिक अपराधियों से अब सख्ती के साथ निपटें। इसके लिए हमें न केवल दलीय भावना से बाहर आना होगा अपितु आर्थिक मोर्चे पर निहित स्वार्थो की तिलांजलि भी देनी होगी। वर्ना एक बार यदि यह अर्थव्यवस्था टूटी तो न यह देश रहेगा और न हम सब। यह एक और स्वतंत्रता आंदोलन जैसा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नव उपनिवेशवाद से आजादी ,जैसा..
देशद्रोह के दाग और विनायक
जैसे महात्मा गांधी की आत्मकथा रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता, वैसे ही नक्सली साहित्य रखने से कोई नक्सली कैसे हो सकता है.. छत्तीसगढ़ सरकार ऐसे कोई दस्तावेज या सबूत नहीं पेश कर पाई जो डॉ. विनायक सेन को देशद्रोही साबित करते हों..सुप्रीम कोर्ट की इस दो टूक टिप्पणी को आप आखिर किन अर्थो में परिभाषित करेंगे? विश्व के 40नोबल पुरस्कार विजेताओं के चहेते यह वही मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन हैं,जिन्हें एक साल पहले छत्तीसगढ़ की एक सेसन कोर्ट ने राष्ट्रदोह के इल्जाम में उम्र कैद की सजा सुनाई थी। कालांतर में जब हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के आदेश को बहाल रखा तो मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने विनायक को न केवल जमानत दे दी,वरन उन पर लगे देशद्रोह के खूनी धब्बे भी धो दिए ,लेकिन बात यही खत्म नहीं हुई। दरअसल, बात तो यहीं से शुरू होती है।
सवाल यह है कि न्याय जैसे संवेदनशील मामले में इस जनतांत्रिक देश के अंदर आखिर यह हो क्या रहा है? जब विनायक के खिलाफ राज्य सरकार के पास राष्ट्रदोह के पुख्ता सबूत थे ही नहीं तो फिर सेसन कोर्ट ने किस आधार पर उन्हे ताउम्र कैद की सजा सुना दी? सवाल यह भी कि आखिर इन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट ने भी कैसे निचली अदालत के इसी फैसले पर अपनी रजामंदी दे दी? कमाल है, विनायक के खिलाफ जिन आधारों पर सेसन सजा देती है,उन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट सहमत होता है और उन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट जमानत देकर राष्ट्रदोह के आरोपों को खारिज कर देती है। जाहिर है, सर्वोच्च अदालत के मातहत दोनों अदालतें कहीं न कहीं राज्य सरकार के प्रभुत्व से प्रेरित प्रतीत होती हैं। देश में निचले स्तर की न्यायिक सेवा में निरंतर आ रही गिरावट की यह एक और मिसाल है। ऐसे विसंगति पूर्ण न्यायिक फैसलों का यह कोई नया मामला नहीं है। अपहरण,हत्या और या फिर बलात्कार के किसी एक मामले में लोअर कोर्ट जिस आरोपी को जिन आधारों पर बाइज्जत बरी कर देती है,उसी आरोपी को उच्च अदालत उन्हीं आधारों पर सजा सुना देती है। यानी, आधार नहीं बदलते मगर फैसले बदल जाते हैं। फौरी तौर पर इसके उपाय नहीं सूझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज सबसे बड़ी फिक्र भी यही है, लेकिन न्यायिक सेवा के सुधार के सवाल पर उसकी भी अपनी वैधानिक बाध्यताएं हैं। तमाम मामलों में सर्वोच्च अदालत अपनी अधीनस्थ अदालतों को परिधि में रहने के प्रति कई बार आगाह कर चुकी है। वस्तुत:इस विसंगति की सबसे बड़ी वजह अदालतों पर जवाबदेही के सिद्धांत का लागू नहीं होना है। हमारी न्यायिक सेवाएं सत्ता से नियंत्रित हैं ।
सारे न्यायिक सुधार सत्ता को सहज रूप से स्वीकार तो हैं,मगर उसे यह मंजूर नहीं कि न्यायिक प्रणाली का नियंत्रण स्वायत्त स्वरूप में सामने आए। जबकि वक्त का तकाजा तो यही है कि हमारी संपूर्ण न्याय प्रणाली को स्वस्फूर्त बनाने के लिए उसे स्वायत्त शक्ति का अधिकार मिलना चाहिए। वर्ना यह बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार की तर्ज पर न्यायिक सुधारों का मसला भी एक बड़े जनांदोलन के तौर पर सामने आ सकता है। बेशक, न्याय की शक्ति से अंतत: जनतंत्र ही मजबूत होगा।
सवाल यह है कि न्याय जैसे संवेदनशील मामले में इस जनतांत्रिक देश के अंदर आखिर यह हो क्या रहा है? जब विनायक के खिलाफ राज्य सरकार के पास राष्ट्रदोह के पुख्ता सबूत थे ही नहीं तो फिर सेसन कोर्ट ने किस आधार पर उन्हे ताउम्र कैद की सजा सुना दी? सवाल यह भी कि आखिर इन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट ने भी कैसे निचली अदालत के इसी फैसले पर अपनी रजामंदी दे दी? कमाल है, विनायक के खिलाफ जिन आधारों पर सेसन सजा देती है,उन्हीं आधारों पर हाईकोर्ट सहमत होता है और उन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट जमानत देकर राष्ट्रदोह के आरोपों को खारिज कर देती है। जाहिर है, सर्वोच्च अदालत के मातहत दोनों अदालतें कहीं न कहीं राज्य सरकार के प्रभुत्व से प्रेरित प्रतीत होती हैं। देश में निचले स्तर की न्यायिक सेवा में निरंतर आ रही गिरावट की यह एक और मिसाल है। ऐसे विसंगति पूर्ण न्यायिक फैसलों का यह कोई नया मामला नहीं है। अपहरण,हत्या और या फिर बलात्कार के किसी एक मामले में लोअर कोर्ट जिस आरोपी को जिन आधारों पर बाइज्जत बरी कर देती है,उसी आरोपी को उच्च अदालत उन्हीं आधारों पर सजा सुना देती है। यानी, आधार नहीं बदलते मगर फैसले बदल जाते हैं। फौरी तौर पर इसके उपाय नहीं सूझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज सबसे बड़ी फिक्र भी यही है, लेकिन न्यायिक सेवा के सुधार के सवाल पर उसकी भी अपनी वैधानिक बाध्यताएं हैं। तमाम मामलों में सर्वोच्च अदालत अपनी अधीनस्थ अदालतों को परिधि में रहने के प्रति कई बार आगाह कर चुकी है। वस्तुत:इस विसंगति की सबसे बड़ी वजह अदालतों पर जवाबदेही के सिद्धांत का लागू नहीं होना है। हमारी न्यायिक सेवाएं सत्ता से नियंत्रित हैं ।
सारे न्यायिक सुधार सत्ता को सहज रूप से स्वीकार तो हैं,मगर उसे यह मंजूर नहीं कि न्यायिक प्रणाली का नियंत्रण स्वायत्त स्वरूप में सामने आए। जबकि वक्त का तकाजा तो यही है कि हमारी संपूर्ण न्याय प्रणाली को स्वस्फूर्त बनाने के लिए उसे स्वायत्त शक्ति का अधिकार मिलना चाहिए। वर्ना यह बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार की तर्ज पर न्यायिक सुधारों का मसला भी एक बड़े जनांदोलन के तौर पर सामने आ सकता है। बेशक, न्याय की शक्ति से अंतत: जनतंत्र ही मजबूत होगा।
शनिवार, 7 मई 2011
संकट में फंसी राज्य सरकार
जाने-अनजाने में ही सही,लेकिन ईसाइयों का ब्यौरा जुटाने की कवायद सरकार के गले में हड्डी की तरह फंस गई है। गुपचुप चल रही इस चाल की प्रदेश टुडे ने पोल क्या खोली, नेशनल मीडिया को तो जैसे मसाला मिल गया। आनन-फानन में एनडीटीवी ने अपने प्राइम टाइम पर इसी मसाले पर तड़का मारा और मसालेदार खिचड़ी पका दी। अब इसके सियासी निहितार्थो के तमाम अर्थो पर बहस का दौर है। देश में जातीयगत आधार पर जनगणना की तरफदार कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार इस मसले को किस नजरिए से लेती है, यह तो वक्त ही बताएगा,लेकिन यह खुलासा ऐसे समय पर सामने आया है ,जब राजधानी में कांग्रेस के नवनियुक्त प्रदेशाध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया के प्रथम प्रदेश आगमन पर कांग्रेसियों का मजमा है। कांग्रेस का ईसाइयत मोह जग जाहिर है। मतलब, मामले को तूल मिलना तकरीबन तय है। कदाचित इसी आशंका के मद्देनजर राज्य सरकार बचाव की मुद्रा में है, और सरकारी प्रवक्ता सच स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं , लेकिन खबर पुख्ता है कि पुलिस मुख्यालय ने 22 मार्च को राज्य के सभी एसएसपी और एसपी को इस आशय के सर्कु लर जारी किए थे। हालांकि मामले के खुलासे के बाद डीजीपी ने भूल सुधार ली ै,लेकिन कमाल की बात तो यह है कि सरकार वाकई ईसाइयों के ऐसे किसी भी सव्रेक्षण से बेखबर थी।
प्रदेश में ऐसा पहली बार नहीं है, जब सरकार बेखबर रहे और उसके मातहत सरकार की नजर में खुद के नंबर बढ़ाने के लिए ऐसी करामात चुपचाप कर दें। कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के जमाने सरकारी कर्मचारियों की संघ में भागीदारी पर पाबंदी लगा दी गई थी। भाजपा के शिवराज सत्त्ता में आए तो बैन हट गया। आमतौर पर ऐसी सियासी परंपराओं से प्रेरित सरकारी दज्रे के अधिकारी-कर्मचारी अपने सियासी आकाओं को खुश करने के लिए दो कदम आगे बढ़कर कब-क्या कमाल कर दें,कुछ कहा नहीं जा सकता है? प्रदेश पुलिस के मुखिया एसके राउत की इस स्वीकारोक्ति से कि पीएचक्यू में निचले स्तर से यह आदेश जारी हुआ, इस तथ्य की पुष्टि करता है। सरकार बैकफुट पर है और प्रदेश में ईसाईयों की यह नायाब पुलिसिया जनगणना उसके लिए सिरदर्द बन गई है। बाहर से न सही लेकिन सरकार भीतर से किस कदर हिली हुई है अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि असलियत सामने आते ही मामले की जांच का जिम्मा इंटेलीजेंस के एडीजी को सौंपा गया है। दस दिन के अंदर प्रदेश के ईसाइयों की राजनैतिक, आर्थिक और व्यापारिक हैसियत तलब करने वाला इतना बड़ा आदेश आखिर पुलिस मुख्यालय के ऐसे कितने छोटे स्तर से निकल गया कि किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी? यह भी एक बड़ा सवाल है। सियासी नजरिए से इस मामले को मंडला कुं भ से जोड़नेवालों की भी कमी नहीं है। इस मामले में कुछ और तर्क भी हैं, तर्क है कि केंद्र सरकार आमतौर पर राज्यों से ऐसी जानकारियां मांगती रहती है? आंकड़े इसीलिए जुटाए जा रहे थे। सवाल यह है कि ये ब्यौरा पुलिस का खुफिया तंत्र ही क्यों जुटा रहा था? आमतौर पर प्रदेश में ऐसे सव्रेक्षण का निर्वाह प्रशासनिक स्तर पर करने की परंपरा रही है।
प्रदेश में ऐसा पहली बार नहीं है, जब सरकार बेखबर रहे और उसके मातहत सरकार की नजर में खुद के नंबर बढ़ाने के लिए ऐसी करामात चुपचाप कर दें। कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के जमाने सरकारी कर्मचारियों की संघ में भागीदारी पर पाबंदी लगा दी गई थी। भाजपा के शिवराज सत्त्ता में आए तो बैन हट गया। आमतौर पर ऐसी सियासी परंपराओं से प्रेरित सरकारी दज्रे के अधिकारी-कर्मचारी अपने सियासी आकाओं को खुश करने के लिए दो कदम आगे बढ़कर कब-क्या कमाल कर दें,कुछ कहा नहीं जा सकता है? प्रदेश पुलिस के मुखिया एसके राउत की इस स्वीकारोक्ति से कि पीएचक्यू में निचले स्तर से यह आदेश जारी हुआ, इस तथ्य की पुष्टि करता है। सरकार बैकफुट पर है और प्रदेश में ईसाईयों की यह नायाब पुलिसिया जनगणना उसके लिए सिरदर्द बन गई है। बाहर से न सही लेकिन सरकार भीतर से किस कदर हिली हुई है अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि असलियत सामने आते ही मामले की जांच का जिम्मा इंटेलीजेंस के एडीजी को सौंपा गया है। दस दिन के अंदर प्रदेश के ईसाइयों की राजनैतिक, आर्थिक और व्यापारिक हैसियत तलब करने वाला इतना बड़ा आदेश आखिर पुलिस मुख्यालय के ऐसे कितने छोटे स्तर से निकल गया कि किसी को कानोंकान खबर नहीं लगी? यह भी एक बड़ा सवाल है। सियासी नजरिए से इस मामले को मंडला कुं भ से जोड़नेवालों की भी कमी नहीं है। इस मामले में कुछ और तर्क भी हैं, तर्क है कि केंद्र सरकार आमतौर पर राज्यों से ऐसी जानकारियां मांगती रहती है? आंकड़े इसीलिए जुटाए जा रहे थे। सवाल यह है कि ये ब्यौरा पुलिस का खुफिया तंत्र ही क्यों जुटा रहा था? आमतौर पर प्रदेश में ऐसे सव्रेक्षण का निर्वाह प्रशासनिक स्तर पर करने की परंपरा रही है।
सीबीआई क्यों जवाब दे
भोपाल गैस कांड: विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी..सुप्रीम कोर्ट: दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी अदालत..सीबीआई: देश की सबसे बड़ी सरकारी जांच एजेंसी..सिर्फ एक सवाल,सबसे बड़ा सवाल..रिव्यू पिटिशन दायर करने में डेढ़ दशक क्यों लगे? सकपकाई सीबीआई खामोश है। अॅटार्नी जनरल जीवी वाहनवती बगले झांक रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम सीबीआई ने ऐसा क्यों किया? सवाल का जवाब भी अंतत: सवाल ही है। सच तो यह है कि सीबीआई को भी नहीं मालूम कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया? सुप्रीम कोर्ट का एकदम सटीक सवाल मगर सीबीआई से क्यों?
सॉरी, मी लार्ड..सत्ता की बांदी ,बुझदिल और बिकाऊ सीबीआई से सवाल क्यों? सवाल तो उन सफेदपोश सियासतदारों से होना चाहिए जो खाते तो हिंदुस्तान की हैं, लेकिन बजाते अमेरिका की हैं। सवाल ,15 हजार मौतों और 5 लाख पीड़ितों के उन सत्ता सुख भोगी असली गुनहगारों से क्यों नहीं जिन्होंने यूनियन कारबाईड कारपोरेशन के तत्कालीन प्रेसीडेंट वारेन एंडरसन को भारत से भगाने के लिए कभी भोपाल से लेकर न्यूर्याक तक मखमली जाजम बिछाई थी। सवाल..इस भगोड़े कातिल को प्रत्यर्पण से बचाने वाले मौकापरस्त सियासतदारों से क्यों नहीं? सीबीआई तो महज मोहरा है। हुक्म की गुलाम। शह-मात की सियासी शतरंज के खिलाड़ी तो पर्दे की पीछे हैं? सेफ जोन में। कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । असल में असली जवाबदेहों पर सवाल ही नहीं बनता। वैधानिक बाध्यताएं हैं।
सवाल यह भी है कि आखिर किसके इशारे पर सीबीआई शुरू से ही मामले को कमजोर करने की कोशिश करती रही? किसकी शह पर सीबीआई ने एंडरसन समेत मुख्य आरोपियों के खिलाफ धारा 304(2)लगाने के बजाय मामले को इस कदर कमजोर कर दिया कि यही सर्वोच्च अदालत इससे पहले गैर इरादतन हत्या के इस संगीन जुर्म को महज लापरवाही का मामला मानने को मजबूर हो गई। भारतीय न्यायिक इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है,जब सुप्रीम कोर्ट अब अपने ही अंतिम फैसले पर अब पुनर्विचार कर रही है। संगीन सवालों की फेहरिस्त लंबी है। सुरक्षा मानकों की कमियां रही हों या फिर क्षतिपूर्ति का सही मूल्यांकन । सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकार ने कभी भी कोर्ट के सामने ईमानदारी से पीड़ितों का पक्ष नहीं रखा। नतीजा सामने है। अब पीड़ितों की कानूनी अभिभावक बन कर सामने आई केंद्रीय सत्ता का यह एक और मायावी चेहरा है। केस की जड़ों को पहले से ही दीमक की तरह चाट चुकी केंद्रीय सत्ता की चिंता मुआवजा दिलाने में नहीं,फिक्र दोषियों को देश की सर्वोच्च अदालत से क्लीन चिट दिलाने की है। अपने अमेरिकन आका को खुश करने के लिए केंद्र इसे अपनी वैश्विक विवशता बता सकता है। औद्योगिक साम्राज्यवाद का पोषक अमेरिका अपनी वैश्विक साख के लिए इसकी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। बतौर मुआवजा पहले से ही यह कीमत भी तय है। उतनी ही जितनी सीबीआई के जरिए केंद्र मांग रहा है। 55 सौ करोड़। केंद्र इस मामले में एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश में है,इसीलिए सीबीआई के पास जवाब नहीं है और अॅटार्नी जनरल बगले झांक रहे हैं।
सॉरी, मी लार्ड..सत्ता की बांदी ,बुझदिल और बिकाऊ सीबीआई से सवाल क्यों? सवाल तो उन सफेदपोश सियासतदारों से होना चाहिए जो खाते तो हिंदुस्तान की हैं, लेकिन बजाते अमेरिका की हैं। सवाल ,15 हजार मौतों और 5 लाख पीड़ितों के उन सत्ता सुख भोगी असली गुनहगारों से क्यों नहीं जिन्होंने यूनियन कारबाईड कारपोरेशन के तत्कालीन प्रेसीडेंट वारेन एंडरसन को भारत से भगाने के लिए कभी भोपाल से लेकर न्यूर्याक तक मखमली जाजम बिछाई थी। सवाल..इस भगोड़े कातिल को प्रत्यर्पण से बचाने वाले मौकापरस्त सियासतदारों से क्यों नहीं? सीबीआई तो महज मोहरा है। हुक्म की गुलाम। शह-मात की सियासी शतरंज के खिलाड़ी तो पर्दे की पीछे हैं? सेफ जोन में। कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । असल में असली जवाबदेहों पर सवाल ही नहीं बनता। वैधानिक बाध्यताएं हैं।
सवाल यह भी है कि आखिर किसके इशारे पर सीबीआई शुरू से ही मामले को कमजोर करने की कोशिश करती रही? किसकी शह पर सीबीआई ने एंडरसन समेत मुख्य आरोपियों के खिलाफ धारा 304(2)लगाने के बजाय मामले को इस कदर कमजोर कर दिया कि यही सर्वोच्च अदालत इससे पहले गैर इरादतन हत्या के इस संगीन जुर्म को महज लापरवाही का मामला मानने को मजबूर हो गई। भारतीय न्यायिक इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है,जब सुप्रीम कोर्ट अब अपने ही अंतिम फैसले पर अब पुनर्विचार कर रही है। संगीन सवालों की फेहरिस्त लंबी है। सुरक्षा मानकों की कमियां रही हों या फिर क्षतिपूर्ति का सही मूल्यांकन । सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकार ने कभी भी कोर्ट के सामने ईमानदारी से पीड़ितों का पक्ष नहीं रखा। नतीजा सामने है। अब पीड़ितों की कानूनी अभिभावक बन कर सामने आई केंद्रीय सत्ता का यह एक और मायावी चेहरा है। केस की जड़ों को पहले से ही दीमक की तरह चाट चुकी केंद्रीय सत्ता की चिंता मुआवजा दिलाने में नहीं,फिक्र दोषियों को देश की सर्वोच्च अदालत से क्लीन चिट दिलाने की है। अपने अमेरिकन आका को खुश करने के लिए केंद्र इसे अपनी वैश्विक विवशता बता सकता है। औद्योगिक साम्राज्यवाद का पोषक अमेरिका अपनी वैश्विक साख के लिए इसकी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। बतौर मुआवजा पहले से ही यह कीमत भी तय है। उतनी ही जितनी सीबीआई के जरिए केंद्र मांग रहा है। 55 सौ करोड़। केंद्र इस मामले में एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश में है,इसीलिए सीबीआई के पास जवाब नहीं है और अॅटार्नी जनरल बगले झांक रहे हैं।
चुनाव सुधारों की पहल हो
असम विधान सभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार फिर से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने से चूक गए। पीएम और उनकी पत्नी असम के दिसपुर विधानसभा क्षेत्र के मतदाता हैं। दरअसल मनमोहन चीन और कजाकिस्तान के दौरे की जल्दबाजी में थे।असम से राज्यसभा के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ ऐसा यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने वोट नहीं डाला था। यह दीगर बात है कि बावजूद इसके पांच राज्यों के लिए हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले दौर में असम में तकरीबन 71फीसदी मतदाताओं ने मतदान कर लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था जताई ,मगर यह मतदान के प्रति आम मतदाता की दिलचस्पी का अपवाद हैऔर आम चुनावों में गिरता वोट रेट गंभीर चिंता का विषय ।
जब भारत के प्रधानमंत्री ही अपने वोट के मूल्य का स्वयं ही अवमूल्यन कर रहे हों तो ऐसे में आम मतदाता का क्या दोष? पिछले दो दशक के दौरान मतदान के प्रति आम मतदाता की अरुचि जिस कदर बढ़ी है, उसने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। यही वजह है कि आज चुनाव सुधारों की जरूरत को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है। तेजी के साथ बदले राजनीतिक आचरण से आहत आम जनमानस का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा उठा है। चुनावों के दौरान प्रत्याशी चयन के सवाल पर प्राय: विकल्प का संकट सामने आ जाता है। मतदान के दौरान मतदाता को प्रत्याशी ठीक लगता है, तो दल नहीं और दल के प्रति आस्था होती है तो उम्मीदवार नहीं जमता। एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ..सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के दिलो-दिमाग में तेजी के साथ बनती यह छवि अच्छे संकेत नहीं देती है।
ख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे की भी कमोबेश यही फिक्र है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए केंद्र सरकार को झुकाने वाले अण्णा के भविष्य के एजेंडे में चुनाव सुधारों की पहल भी शामिल है। जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार के इस लोकतांत्रिक फार्मूले में निर्वाचन प्रक्रिया की भूमिका जग जाहिर है। कहना न होगा कि सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नए सिरे से समूची निर्वाचन प्रक्रिया के पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है। अण्णा को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर भरोसा नहीं है। वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को सौंपना चाहते हैं। प्रत्याशी तय करने की कमान भी अण्णा जनता के हाथों में सौंप कर उम्मीदवारों के बहुतेरे विकल्प खोलने की लाइन पर काम कर रहे हैं,लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता सुख भोग रहे हमारे सियासतदारों को गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और मतदान के प्रति आम मतदाता की बढ़ती अरुचि में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्या इस पर फिक्र उनकी जिम्मेदारी नहीं है? बात-बात पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाले इन सियासतदारों को समझना चाहिए कि अगर उनमें नैतिक मूल्य नहीं रहे तो सबसे पहले लोकतांत्रिक मूल्यों का ही अवमूल्यन होगा,और ऐसी हालत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र का इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
जब भारत के प्रधानमंत्री ही अपने वोट के मूल्य का स्वयं ही अवमूल्यन कर रहे हों तो ऐसे में आम मतदाता का क्या दोष? पिछले दो दशक के दौरान मतदान के प्रति आम मतदाता की अरुचि जिस कदर बढ़ी है, उसने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। यही वजह है कि आज चुनाव सुधारों की जरूरत को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है। तेजी के साथ बदले राजनीतिक आचरण से आहत आम जनमानस का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा उठा है। चुनावों के दौरान प्रत्याशी चयन के सवाल पर प्राय: विकल्प का संकट सामने आ जाता है। मतदान के दौरान मतदाता को प्रत्याशी ठीक लगता है, तो दल नहीं और दल के प्रति आस्था होती है तो उम्मीदवार नहीं जमता। एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ..सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के दिलो-दिमाग में तेजी के साथ बनती यह छवि अच्छे संकेत नहीं देती है।
ख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे की भी कमोबेश यही फिक्र है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए केंद्र सरकार को झुकाने वाले अण्णा के भविष्य के एजेंडे में चुनाव सुधारों की पहल भी शामिल है। जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार के इस लोकतांत्रिक फार्मूले में निर्वाचन प्रक्रिया की भूमिका जग जाहिर है। कहना न होगा कि सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नए सिरे से समूची निर्वाचन प्रक्रिया के पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है। अण्णा को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर भरोसा नहीं है। वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को सौंपना चाहते हैं। प्रत्याशी तय करने की कमान भी अण्णा जनता के हाथों में सौंप कर उम्मीदवारों के बहुतेरे विकल्प खोलने की लाइन पर काम कर रहे हैं,लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता सुख भोग रहे हमारे सियासतदारों को गिरते लोकतांत्रिक मूल्यों और मतदान के प्रति आम मतदाता की बढ़ती अरुचि में कोई दिलचस्पी नहीं है। क्या इस पर फिक्र उनकी जिम्मेदारी नहीं है? बात-बात पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाले इन सियासतदारों को समझना चाहिए कि अगर उनमें नैतिक मूल्य नहीं रहे तो सबसे पहले लोकतांत्रिक मूल्यों का ही अवमूल्यन होगा,और ऐसी हालत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र का इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
नापाक साजिश से सावधान
पाक अधिकृत कश्मीर की 778 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा पर मिसाइलों के साथ चीनी सैनिकों की जमावट के बाद भी भारत सरकार के गृह मंत्रलय को अपने सैन्य अफसरों के बजाय चीन की झूठी बयान बाजियों पर भरोसा है। देश की एकता,अखंडता और संप्रभुता जैसे बेहद नाजुक और संवेदनशील मामले पर ऐसी बेरुखी बेहद निंदनीय है। हमारे दो परंपरागत पड़ोसी दुश्मनों के बीच बढ़ती दोस्ती के बाद भी अगर हम इस मसले पर चीन पर भरोसा करते हैं, तो ऐसी कूटनीति फिलहाल समझ से परे है। नार्दन क मांड के चीफ लेफ्टीनेंट जनरल केटी नाइक पहले ही इस आशय का सनसनीखेज खुलासा कर चुके हैं कि सरहद पर पाक की मदद से चीन मिसाइलों के साथ भारी तादाद में सैनिकों की तैनाती कर रहा है। जनरल की इस आशंका के बाद भी कि हमें एक साथ दो ताकतवर दुश्मनों से सामरिक मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए, तैयारियां तो दूर केंद्रीय गृहमंत्रलय ने इस आशंका को न केवल हवा में उड़ा दिया, बल्कि उसने चीन के इस बयान को अपना समर्थन दे दिया कि ऐसी कोई बात नहीं है। यह तो हथियारों के सौदागर अमेरिका की साजिश है। अमेरिका हर हाल में एशिया में तनाव का माहौल चाहता है। भारत-पाक सीमा पर चीनी सेना की गर्दिश पर अमेरिकन खुफिया एजेंसी से रॉ की मिली इस आशय की सूचनाओं को भी केंद्रीय गृह मंत्रलय इन्ही अर्थो में ले रहा है।
अमेरिका हमारा कितना शुभचिंतक है, यह किसी से छिपा नहीं है,लेकिन सामरिक लिहाज से हम, हमारे दो पड़ोसी दुश्मनों के बीच बढ़ती दोस्ती की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। फिलवक्त हमें अमेरिकन साजिश के बजाय चीन-पाक की उस साजिश को समझना होगा जो सीमा पर सैन्य जमावट के लिए जिम्मेदार है। पाक अधिकृत कश्मीर में नियत्रंण रेखा पर पाकिस्तान के कई ऐसे प्रोजेक्ट चल रहे हैं,जिनका ठेका चीनी कंपनियों के पास है। इन्हीं कंपनियों के रक्षा की आड़ और तालिबानियों के हमले का खौफ दिखा कर चीन अपनी फौज को तैनात कर रहा है। इतना ही नहीं पाकिस्तान ने चीन की ही मदद से जहां एक नया परमाणु संयंत्र शुरू कर लिया है,वहीं उसके दो और ऐसे प्रोजेक्ट पर तेजी के साथ काम चल रहा है। चीन इससे पहले भारत-पाक सीमा से सटी लगभग 4 हजार किलोमीटर लंबी सरहद पर सैन्य इंफ्र ास्ट्रक्चर का खतरनाक जाल बिछा चुका है। अब उसकी नजर नेपाल-बांग्लादेश से सटे सीमाई इलाके पर भी है।
चीन के साथ पाकिस्तान के बढ़ते याराने से अमेरिका की बेचैनी स्वाभाविक है,मगर नींद हमारी क्यों नहीं उड़ रही है? यह एक बड़ा सवाल है? क्या हमें एहतियाती तौर पर अपने सैन्य अफसरों पर भरोसा करते हुए वक्त रहते जरूरी कदम नहीं उठाने चाहिए। क्या हम सामरिक मोर्चे पर एक साथ चीन और पाकिस्तान जैसे दो देशों का मुकाबला करने में सक्षम हैं? क्या हमारी सरकार कोअविलंब इस आशय की आवश्यक समीक्षा नहीं करनी चाहिए? दगाबाज चीन की नापाक साजिश से सावधान रहने की आवश्यकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सरहद पर सक्रिय ये शैतान पीठ पर छुरा मारने में माहिर हैं।
अमेरिका हमारा कितना शुभचिंतक है, यह किसी से छिपा नहीं है,लेकिन सामरिक लिहाज से हम, हमारे दो पड़ोसी दुश्मनों के बीच बढ़ती दोस्ती की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। फिलवक्त हमें अमेरिकन साजिश के बजाय चीन-पाक की उस साजिश को समझना होगा जो सीमा पर सैन्य जमावट के लिए जिम्मेदार है। पाक अधिकृत कश्मीर में नियत्रंण रेखा पर पाकिस्तान के कई ऐसे प्रोजेक्ट चल रहे हैं,जिनका ठेका चीनी कंपनियों के पास है। इन्हीं कंपनियों के रक्षा की आड़ और तालिबानियों के हमले का खौफ दिखा कर चीन अपनी फौज को तैनात कर रहा है। इतना ही नहीं पाकिस्तान ने चीन की ही मदद से जहां एक नया परमाणु संयंत्र शुरू कर लिया है,वहीं उसके दो और ऐसे प्रोजेक्ट पर तेजी के साथ काम चल रहा है। चीन इससे पहले भारत-पाक सीमा से सटी लगभग 4 हजार किलोमीटर लंबी सरहद पर सैन्य इंफ्र ास्ट्रक्चर का खतरनाक जाल बिछा चुका है। अब उसकी नजर नेपाल-बांग्लादेश से सटे सीमाई इलाके पर भी है।
चीन के साथ पाकिस्तान के बढ़ते याराने से अमेरिका की बेचैनी स्वाभाविक है,मगर नींद हमारी क्यों नहीं उड़ रही है? यह एक बड़ा सवाल है? क्या हमें एहतियाती तौर पर अपने सैन्य अफसरों पर भरोसा करते हुए वक्त रहते जरूरी कदम नहीं उठाने चाहिए। क्या हम सामरिक मोर्चे पर एक साथ चीन और पाकिस्तान जैसे दो देशों का मुकाबला करने में सक्षम हैं? क्या हमारी सरकार कोअविलंब इस आशय की आवश्यक समीक्षा नहीं करनी चाहिए? दगाबाज चीन की नापाक साजिश से सावधान रहने की आवश्यकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सरहद पर सक्रिय ये शैतान पीठ पर छुरा मारने में माहिर हैं।
भारतीय समाज और सुराज
आजादी के बाद से ही भारतीय समाज की आंखों में सुराज का सपना पल रहा है। हमारी संस्कृति और संस्कारों मे जमाने से पल रही रामराज की परिकल्पना का संभवत: यह आधुनिक अर्थ है,लेकिन इसी आशय के अत्याधुनिक अर्थो को कालांतर में त्रिस्तरीय पंचायती राज की संज्ञा दी गई। सत्ता के विकेंद्रीय करण के नाम पर आज देश के अंदर इस व्यवस्था की क्या दशा है? यह व्यथा किसी से छिपा नहीं है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में हमने समता मूलक समाजवाद के संकल्प को स्वीकार किया है। कहना न होगा कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्थतागत भटकाव में भ्रष्टाचार हमारी सबसे बड़ी विडंबना रही है। यही वजह है कि जनलोकपाल के सवाल पर हाल ही में हमने देश के अंदर एकबारगी जितना बड़ा बदलाव देखा वैसा बदलाव इससे पहले संभवत: दुनिया के किसी भी देश में पहले कभी नहीं देखा गया है। बेशक, अण्णा आंदोलन के अपने राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं, लेकिन इतना तय है कि अकेले कानून बना देने से कुछ भी नहीं होने वाला है। देश में कानूनों की कमी नहीं है, अगर कमी है तो इन कानून कायदों को स्वीकार करने और ईमानदारी के साथ क्रियान्वित करने की। जब कोई प्रस्ताव ,विधेयक का रूप लेने के बाद कानून बनने प्रकिया पूरी करता है तो प्राय: वह दो चुनौतियों से गुजर रहा होता है। एक तो यह कि वह व्यावहारिक तौर पर कितना स्वाभाविक है और दूसरा यह कि क्या वह वास्तव में पूरी सरलता के साथ क्या उन हितों का पोषण करता है, जिनके लिए उसे बनाया गया है।
मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित विशेष न्यायालय विधेयक में ऐसी ही विसंगतियां मौजूद हैं। भ्रष्टाचारियों पर सख्त लगाम लगाने के लिए प्रस्तावित यह विधेयक यूं तो सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और पंचायत सचिव से लेकर प्रमुख सचिव तक को अपने दायरे में लेता है। इसमें काली कमाई को राजसात करते हुए उसे सरकारी मद में खर्च करने और खासकर ऐसे आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का प्रस्ताव है ,लेकिन इस विधेयक की एक बड़ी व्यावहारिक विसंगति यह है कि आरोप की जांच और चाजर्शीट पेश करने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। आमतौर पर ऐसी विसंगतियां सुनियोजित होती हैं और अंतत: ये वही कारण होते हैं जो आगे चलकर या तो अप्रकट रूप से कानून को कमजोर कर देते हैं या फिर आरोपी को संदेह का लाभ देते हैं। आशय यह कि जनलोकपाल बिल की सार्थकता तभी होगी जब इसके लिए तैयार किए जाने वाले प्रारूप को इन व्यावहारिक विसंगतियों से बचाया जाए। वर्ना एक और कानून का कोई अर्थ नहीं होगा। वैसे इन कानूनी प्रावधानों से इतर एक आदर्श समाज की बुनियादी शर्त क्या हो सकती है? एक ऐसा समाज जो स्वस्फूर्त हो,जिसे चलाने के लिए किसी कानून की जरूरत न हो और अगर उसे चलाने के लिए कानून की अनिवार्यता है तो उसे एक आदर्श समाज की पात्रता कैसे मिल सकती है? बेहतर हो हर हिंदुस्तानी एक ऐसे ही आदर्श समाज के निर्माण का संकल्प लें।
मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित विशेष न्यायालय विधेयक में ऐसी ही विसंगतियां मौजूद हैं। भ्रष्टाचारियों पर सख्त लगाम लगाने के लिए प्रस्तावित यह विधेयक यूं तो सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और पंचायत सचिव से लेकर प्रमुख सचिव तक को अपने दायरे में लेता है। इसमें काली कमाई को राजसात करते हुए उसे सरकारी मद में खर्च करने और खासकर ऐसे आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का प्रस्ताव है ,लेकिन इस विधेयक की एक बड़ी व्यावहारिक विसंगति यह है कि आरोप की जांच और चाजर्शीट पेश करने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। आमतौर पर ऐसी विसंगतियां सुनियोजित होती हैं और अंतत: ये वही कारण होते हैं जो आगे चलकर या तो अप्रकट रूप से कानून को कमजोर कर देते हैं या फिर आरोपी को संदेह का लाभ देते हैं। आशय यह कि जनलोकपाल बिल की सार्थकता तभी होगी जब इसके लिए तैयार किए जाने वाले प्रारूप को इन व्यावहारिक विसंगतियों से बचाया जाए। वर्ना एक और कानून का कोई अर्थ नहीं होगा। वैसे इन कानूनी प्रावधानों से इतर एक आदर्श समाज की बुनियादी शर्त क्या हो सकती है? एक ऐसा समाज जो स्वस्फूर्त हो,जिसे चलाने के लिए किसी कानून की जरूरत न हो और अगर उसे चलाने के लिए कानून की अनिवार्यता है तो उसे एक आदर्श समाज की पात्रता कैसे मिल सकती है? बेहतर हो हर हिंदुस्तानी एक ऐसे ही आदर्श समाज के निर्माण का संकल्प लें।
नागरिक जीवन में भ्रष्टाचार
देश में हर तरफ भ्रष्टाचार का महाशोर है। यह पहला मौका है, जब इस मसले पर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन एक बारगी सामने आकर खड़ा हो गया है। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि नैतिक सिद्धांतों के इस लोकतांत्रिक देश में कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी बगावत होगी। भ्रष्टाचार के सवाल पर समूचा भारतीय समाज आज संक्रमण के संकटकालीन दौर से गुजर रहा है। आखिर ये नौबत क्यों आई है? क्या इसके लिए अकेले हमारे सियासतदार और उनके मातहत नौकरशाह जिम्मेदार हैं?
इस सवाल पर विचार करना भी वक्त की एक बड़ी मांग है। असलियत तो यह है कि हमें हमारा गिरेबान भी देखना होगा। दरअसल भ्रष्टाचार की जहरीली जड़ें भारतीय समाज के उसी आम नागरिक जीवन से पोषण पाती हैं, जिस परिवेश में ये बदनामशुदा सियासतदार और उनके नौकरशाह पलते हैं।
कहना न होगा कि चाहे अनचाहे , प्रत्यक्षत या फिर अप्रकट रूप से भ्रष्ट आचरण हमारे आम व्यवहार का हिस्सा बन चुका है। सिर्फ सियासी ही नहीं भ्रष्टाचार हमारी एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है। हम जब तक इस सच्चई को स्वीकार कर इसके समूल खात्मे के लिए अपने आप में कोई ईमानदार संकल्प नहीं लेते हैं तब तक एक क्या हजार अण्णा हजारे भी हमारे हित में खुद को कुर्बान क्यों न कर दें इस देश का भला होने वाला नहीं है।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार किसी शिष्टाचार से कम नहीं रहा। ट्रेन में अनाधिकृत रूप से आरक्षित सीट की सुविधा हो या रसोई गैस के लिए बिनबारी का लाभ। बिजली का मीटर जाम कराने के लिए बतौर घूस लाइन मैन को सुविधा शुल्क का नजराना पेश करने की पेशकश हो या फिर टैक्स चोरी के लिए तरह-तरह के जुगाड़। इन सब के पीछे आखिर कौन होता है? ऐसी घड़ी में हमारी सहज स्वीकार्यता क्यों होती है? प्रत्युत्तर में प्रखर प्रतिकार क्यों नहीं होता है? ऐसे में हम एलानिया अण्णा के साथ तो खड़े हो सकते हैं,लेकिन खुद के साथ पल भर के लिए भी आखिर क्यों नहीं ठहर पाते हैं? घूस देकर अपना काम बना लेने में हम अपनी शान समझते हैं। भ्रष्टाचार हमारी आमधारणा में स्वाभाविक शिष्टाचार है। काली कमाई के सवाल पर हमारी आत्ममुग्धता का सिर्फ एक तर्क है, जिसे अवसर नहीं मिला वही चिल्लाता है मगर यह अर्धसत्य है। जो लोग प्रख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे को करीब से समझते हैं, वो लोग जानते हैं कि 72 वर्ष के इस बुजुर्ग शख्स के पास कभी अवसरों की कमी नहीं रही। अवसर पैदा कर लेने में माहिर इस जादूगर के पास आज भी कुछ नहीं है, मगर आज उम्र के इस नाजुक दौर में खड़ा यह आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ क्यों चिल्ला रहा है? क्योंकि इस इंसान के अंदर लोकतंत्र अभी जिंदा है। आत्मबल उफान पर है। यह देशव्यापी तूफान इसी स्वायत्त और स्वस्फरू त शक्ति का परिणाम है। बेशक राष्ट्रहित में हमें ऐसे निर्विवाद नेतृत्व का अनुसरण करना चाहिए हमें अब तय ही करना होगा कि हम किसके साथ हैं?
इस सवाल पर विचार करना भी वक्त की एक बड़ी मांग है। असलियत तो यह है कि हमें हमारा गिरेबान भी देखना होगा। दरअसल भ्रष्टाचार की जहरीली जड़ें भारतीय समाज के उसी आम नागरिक जीवन से पोषण पाती हैं, जिस परिवेश में ये बदनामशुदा सियासतदार और उनके नौकरशाह पलते हैं।
कहना न होगा कि चाहे अनचाहे , प्रत्यक्षत या फिर अप्रकट रूप से भ्रष्ट आचरण हमारे आम व्यवहार का हिस्सा बन चुका है। सिर्फ सियासी ही नहीं भ्रष्टाचार हमारी एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है। हम जब तक इस सच्चई को स्वीकार कर इसके समूल खात्मे के लिए अपने आप में कोई ईमानदार संकल्प नहीं लेते हैं तब तक एक क्या हजार अण्णा हजारे भी हमारे हित में खुद को कुर्बान क्यों न कर दें इस देश का भला होने वाला नहीं है।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार किसी शिष्टाचार से कम नहीं रहा। ट्रेन में अनाधिकृत रूप से आरक्षित सीट की सुविधा हो या रसोई गैस के लिए बिनबारी का लाभ। बिजली का मीटर जाम कराने के लिए बतौर घूस लाइन मैन को सुविधा शुल्क का नजराना पेश करने की पेशकश हो या फिर टैक्स चोरी के लिए तरह-तरह के जुगाड़। इन सब के पीछे आखिर कौन होता है? ऐसी घड़ी में हमारी सहज स्वीकार्यता क्यों होती है? प्रत्युत्तर में प्रखर प्रतिकार क्यों नहीं होता है? ऐसे में हम एलानिया अण्णा के साथ तो खड़े हो सकते हैं,लेकिन खुद के साथ पल भर के लिए भी आखिर क्यों नहीं ठहर पाते हैं? घूस देकर अपना काम बना लेने में हम अपनी शान समझते हैं। भ्रष्टाचार हमारी आमधारणा में स्वाभाविक शिष्टाचार है। काली कमाई के सवाल पर हमारी आत्ममुग्धता का सिर्फ एक तर्क है, जिसे अवसर नहीं मिला वही चिल्लाता है मगर यह अर्धसत्य है। जो लोग प्रख्यात समाजसेवी अण्णा हजारे को करीब से समझते हैं, वो लोग जानते हैं कि 72 वर्ष के इस बुजुर्ग शख्स के पास कभी अवसरों की कमी नहीं रही। अवसर पैदा कर लेने में माहिर इस जादूगर के पास आज भी कुछ नहीं है, मगर आज उम्र के इस नाजुक दौर में खड़ा यह आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ क्यों चिल्ला रहा है? क्योंकि इस इंसान के अंदर लोकतंत्र अभी जिंदा है। आत्मबल उफान पर है। यह देशव्यापी तूफान इसी स्वायत्त और स्वस्फरू त शक्ति का परिणाम है। बेशक राष्ट्रहित में हमें ऐसे निर्विवाद नेतृत्व का अनुसरण करना चाहिए हमें अब तय ही करना होगा कि हम किसके साथ हैं?
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