शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
एक गरीब की मौत पर संवेदनाओं का कर्मकांड
बीमारी से ज्यादा गरीबी पर कुर्बान नरपत अपने आखिरी सफर में भले ही कफन-दफन को तरस गया हो,लेकिन अपने पीछे वह सोती सरकार को झकझोर जरूर गया है। यह बूढ़ा शख्स एक ऐसा सवाल खड़ा कर गया है ,जो शायद ही इससे पहले कभी उठा हो? असल में इस खुदगर्ज जमाने से जाते-जाते नरपत गरीबों की मौत पर अंतिम संस्कार के लिए सरकारी आर्थिक सहयोग के प्रावधान की बुनियाद रख गया। छतरपुर के नारायण बाग का नरपत टीबी से तस्त्र था और बीमारी से ज्यादा गरीबी की असहनीय यंत्रणा उसे भीतर तक तोड़ चुकी थी। मौत तय थी। पत्नी सावित्री के सिवाय उसका अपना कोई नहीं था। अपना कहने को कुछ और था तो वह थी , घास फूस की छोटी सी झोपड़ी। बुजुर्ग बेसहारा दंपत्ति की महज इतनी ही दुनिया थी। कफन-दफन के लिए भीख मांग कर लकड़ियां जुटाई गईं तो वह भी कम पड़ गईं। सावित्री ने अपनी झोपड़ी के छप्पर भी चिता में स्वाहा कर दिए लेकिन बावजूद इसके लाश अधजली रह गई। इसी बीच कुछ समाजसेवियों ने मदद के लिए सरकारी नुमाइंदों के आगे हाथ पसारे मगर कलेक्टरसे कमिश्नर तक मदद का सवाल कानून-कायदे , शासकीय प्रावधान और सरकारी सिस्टम में ही उलझ कर रह गया। बदले में अफसरशाही से रटा-रटाया टका सा जवाब मिला कि सिर्फ लावारिश शवों को दफनाने के लिए पैसे का प्रावधान है। राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर भी मानते हैं कि नरपत जैसे मामलों में अंतिम संस्कार के लिए सरकारी तौर पर आर्थिक मदद का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन अब ध्यान में आई इस मांग पर विचार होगा। सवाल यह है कि निपट निर्धन नरपत को अब आखिर चाहिए ही क्या था? दो गज जमीन,थोड़ा सा कफन और महज एक चिंगारी आग ही संवेदनाओं की इस चिता के लिए बहुत ज्यादा थी। इसी छतरपुर में 6 माह के अंदर अंतिम संस्कार की ऐसी दूसरी घटना है। सच तो यह है कि प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े बुंदेलखंड में संवेदनाओं के ऐसे कर्मकांड इस अंचल की नीयति बन चुके हैं। मध्यप्रदेश का बुंदेलखंड वस्तुत: सिर्फ एक संबोधन नहीं है। खनिज-वनज संपदा से लबालब यह वही खूबसूरत अंचल है, जहां के बेशकीमती हीरों की दुनिया दीवानी है। बेहतरीन ग्रेनाइट, एक से बढ़ कर एक नैसर्गिक पर्यटन स्थल और मंदिरों के शहर। मगर इस पहचान की बुनियाद में बदहाली बहुत गहरे से पैबस्त है। केंद्र के अलावा एमपी-यूपी सरकारों को बुंदेलखंड से सालाना 500 अरब की राजस्व आय होती है। मध्यप्रदेश सरकार को अकेले पन्ना के हीरों की नीलामी से 1400 करोड़ का मुनाफा होता है। प्राय: आरोप लगते रहे हैं कि केंद्र -राज्य सरकारें स्थानीय विकास में इस आय का 20 प्रतिशत भी खर्च नहीं करती हैं। बुंदेलखंड के 56 फीसदी मूल बासिंदे पलायन कर चुके हैं। अवर्षा अभिशाप है। सात नदियों के इस अंचल की सूखा विकट समस्या है। खेत सूखे हैं और पेट भूखे । न पास में रोजगार है और न दूर-दूर व्यापार की उम्मीद है। एक सैम्पल सर्वे कहता है, बुंदेलखंड के 68 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं कि गरीबी ही इस अंचल की भाग्य रेखा है। सीमांत किसान साहूकारों के चंगुल में हैं। कहना न होगा कि नरपत ऐसे ही एक दयनीय सामाजिक जीवन की प्रतिनिधि है।
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
कन्या पूजन: एक और सरकारी नवाचार
बालिका अत्याचार की बदौलत पूरे देश में शर्मशार मध्यप्रदेश की सरकार क्या बेटियों के प्रति अब सचमुच संजीदा हो रही है? वोट की राजनीति के सतही सियासी नजरिए से इतर अगर इंदौर प्रवास के दौरान एयरपोर्ट में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की गोद में दुबकी महज ढाई साल की मासूम सौम्या को देखें तो किसी पत्थर दिल का भी कलेजा भी दहल जाएगा। एक दर्दनाक सड़क हादसे में अपना पूरा परिवार खो चुकी इस नन्हीं सी जान को दुलराते हुए जब सीएम ने उसे दो लाख का चेक पकड़ाने की कोशिश की तो वह नाकाम रहे। इस बड़ी कीमत से बेखबर र्निविकार सौम्या की आंखों में शायद एक ही सवाल था। जैसे कह रही हो,मुङो यह नहीं चाहिए। कहां है,मेरी मां..मुख्यमंत्री खुद को नहीं रोक पाए। सौम्या को मध्यप्रदेश की बेटी का खिताब देते हुए उन्होंने उसके लालन-पालन के लिए चार लाख की सरकारी एफडी का एलान किया। कहा-सरकार सौम्या की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। सरकार और समाज ही अब इसका परिवार है। वास्तव में ऐसी सरकारी संवेदना स्वागत योग्य है। सवाल यह है कि निजता तोड़ते ऐसे सामाजिक सरोकारों से संवेदना शून्य समाज कब सबक लेगा? पूरा देश जानता है। मध्यप्रदेश में बेटियों के हालात अच्छे नहीं हैं। एक दशक के दौरान प्रदेश में शून्य से 6 साल के बच्चों के लिंगानुपात में 20 अंकों की गिरावट आई है। राज्य के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है,जब प्रति हजार लड़कों के बीच लड़कियों के अनुपात 9 सौ से भी नीचे चला गया है। अनपढ़ों की तो छोड़ें इंदौर और ग्वालियर जैसे शुद्ध शहरी मानसिकता के महानगर हों या फिर तेजी के साथ अर्ध महानगरीय आकार ले रहे सतना-रीवा जैसे पढ़े लिखे शहर। आज अगर लिंगानुपात का संतुलन बिगाड़ रहे हैं तो इसके पीछे क्या विकृत सामाजिक सोच नहीं है? सरकार की भी अपनी सीमाएं और विवशताएं हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक इंसानियत को शर्मसार करता सच तो यह है कि मासूम बच्चों खासकर नाबालिग बालिकाओं के दैहिक शोषण के मामले में मध्यप्रदेश पूरे देश में शीर्ष पर है। जबलपुर और राजधानी भोपाल जैसे सभ्य शहर भी पीछे नहीं हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल पूरे देश में बलिकाओं से हुए रेप की अकेले 20 प्रतिशत वारदातें स्वर्णिम प्रदेश का दिवास्वप्न देख रहे मध्यप्रदेश में हुई हैं। क्या इसके लिए समाज नहीं सरकार जिम्मेदार है? शायद इन्हीं वारदातों से सबक लेकर सरकार अब सामाजिक दायित्व निभाने के एक और संकल्प को मूर्तरूप देने की कोशिश में है। शक्ति पूजा के पर्व नवरात्र से समूचे राज्य में शुरू हो रहे बेटी बचाओ अभियान का सरकारी इरादा गांव-गांव, गली-गली पहुंच कर अलख जगाना है। इस अभियान को अंजाम तक पहुंचाने के लिए सत्ता और संगठन के स्तर पर साझा कार्यक्रम को अंतिम रूप देने का जिम्मा सामाजिक न्यायमंत्री की अगुआई में 6 सदस्यीय मंत्रियों की एक टीम को दिया गया है। बेटी बचाओ अभियान को बढ़ावा देने के लिए अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री स्वयं कन्या पूजन कर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को भी इसके लिए प्रेरित करेंगे। उम्मीद लगाई जानी चाहिए कि कन्यादान और लाड़ली लक्ष्मी जैसे नवाचारों का सफलत आयोजन कर चुकी प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार राज्य में बेटी बचाओ अभियान चला कर देश के सामने एक और नजीर पेश करेगी।
बुधवार, 24 अगस्त 2011
और जब सरपट दौड़ी दहशत
विधान सभा भवन से कुछ ही फासले पर बीएचईएल के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में क्लोरीन गैस के रिसाव का आपात संकट भले ही टल गया हो, लेकिन ऐसे तमाम जानलेवा खतरे इतनी आसानी से खत्म होने वाले नहीं हैं। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी का दंश ङोल चुकी राजधानी भोपाल अब इस कदर संवेदनशील है कि हवा के रुख में जरा सी तल्खी भी रूह फना कर देती है। हत्यारिन मिथाइल आइसोसाइनेट के हाथों 15 हजार से भी ज्यादा मौतों का भुतहा मंजर देख चुके इस खूबसूरत शहर में अगर अब जरा सी रसोई गैस भी रिसती है तो सिहरन, सनसनी, अफरातफरी और हड़कंप के साथ दहशत सरपट दौड़ पड़ती है। मध्य प्रदेश के जल शोधन गृहों में 8 माह के दौरान क्लोरीन गैस रिसने की यह तीसरी और एक माह के अंदर दूसरी बड़ी घटना है। जनवरी में शहडोल के बरगवां स्थित एक जूट मिल के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में क्लोरीन के रिसाव से दो सौ लोगों की हालत बिगड़ गई थी। ऐसा ही एक हादसा पिछले माह राजगढ़ स्थित पीएचई के जलशोधन गृह में होने से सैकड़ों लोग चपेट में आ गए थे , बावजूद इसके हमारी मानवीय लापरवाही कभी भी और कैसा भी कातिलाना जोखिम लेने को तैयार है। बीएचईएल के जल शोधन गृह में जब क्लोरीन का रिसाव हुआ तब हवा उत्तर से पश्चिम की ओर बह रही थी। यानि बिड़ला मंदिर के विपरीत बसी झुग्गियां बाल-बाल बच गईं। आंखों में जलन और घुटन के बीच जब सच समझ में आया तब तक सौ से भी ज्यादा लोग फंस चुके थे। गनीमत थी कि गैस की सांद्रता 60 से कम थी। कहते हैं, इसकी अधिकता और निरंतरता सीधे फेफड़े फाड़ती है और समूचे श्वसन तंत्र को जख्मी कर देती है,इसके कहर से आंखें भी अछूती नहीं रहतीं। सरकारी दावे के मुताबिक हालात दो घंटे के अंदर काबू में आ गए, लेकिन क्या अकेले यही खुशफहमी काफी है? असल में क्लोरीन का आम आदमी के दैनिक जीवन से गहरा नाता है। ऐसे में अतिरिक्त सतर्कता के बगैर इन हादसों को रोक पाना संभव नहीं है। विशेषज्ञों की मानें तो क्लोरीन से जल का शोधन भी किसी साइलेंट किलर से कम नहीं है। जल जनित बीमारियां स्थाई समस्या है। जल में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के शमन के लिए क्लोरीन गैस के जरिए जल का उपचार किया जाता है। नियमानुसार जल शुद्धीकरण में क्लोरीन की निर्धारित मात्र का इस्तेमाल होना चाहिए। ओटी टेस्ट पॉजीटिव इसका मानक है, मगर ऐसा होता नहीं है। पानी में मिलाया जाने वाला क्लोरीन वास्तव में कैल्शियम हाइपो क्लोराइड होता है। जो पानी में मौजूद आक्सीजन के फ्री रेडिकल को खत्म कर देता है। यह एक ऐसा सॉल्ट है जिसके अपने साइड इफैक्ट हैं। मसलन-बालों का झड़ना, त्वचा के रोग, अल्सर और गैस्ट्रिक की समस्या। यही वजह है कि पेरू समेत विभिन्न देशों में जल शुद्धिकरण के लिए क्लोरीन और उसी के घटक ब्लीचिंग के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है। पानी में क्लोरीन के अत्याधिक इस्तेमाल के खतरों की तरफ पहली बार दुनिया का ध्यान तब गया था जब इसी वजह से दक्षिण अफ्रीका में हैजे के कारण हजारों लोग मारे गए। विडंबना यह है कि हमारा लापरवाह सरकारी तंत्र गैस रिसाव की भारी कीमत चुकाने के बाद भी सबक लेने को तैयार नहीं है। जल शुद्धीकरण के लिए क्लोरीन के इतर वैकल्पिक उपाय तो दूर की बात है।
मंगलवार, 23 अगस्त 2011
फांसी:कहीं देर न हो जाए..
सुप्रीम कोर्ट ने भारत की शान, स्वाधीनता और संप्रभुता के प्रतीक लाल किले पर हमले के दोषी लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक की सजा-ए-मौत पर अपनी मुहर लगा दी है। यह दशक बाद ही सही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल राष्ट्रीय हित में जनभावनाओं का सम्मान है,अपितु यह सरहद पार बैठे देश के दुश्मनों के बीच गया एक कठोर संदेश भी है। इस फैसले का बुनियादी पहलू तो यह भी कि जांच अधिकारियों के सामने यह मामला अंधेरे में सुई खोजने जैसा था। कोई सुराग नहीं,सिर्फ एक पर्ची थी। इसी सहारे जांच टीम पूरी तरह से निष्पक्ष, स्वतंत्र और फोरेंसिक पड़ताल में कामयाब रही। किसी विदेशी आतंकवादी को फांसी की सजा देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। वर्ष 2001 में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत, संसद भवन पर हमले के गुनाहगार जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी मोहम्मद अफजल गुरू को भी सर्वोच्च अदालत फांसी की सजा दे चुकी है। अफजल की सजा कम करने बावत एक दया याचिका राष्ट्रपति के समक्ष विचाराधीन है। हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से यह याचिका खारिज कर देने की सिफारिश की है। सरकार की इस सिफारिश के बाद अफजल गुरु को भी सजा-ए-मौत तय है। इसी तरह 26/11 के मुंबई अटैक के आतंकी अजमल कसाब को भी आरोप प्रमाणित होने पर मुंबई हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुना रखी है। सजा कम करने की याचिका के साथ कसाब भी सुप्रीम कोर्ट की शरण में है। कसाब को अगर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती है तो वह अफजल गुरू की तरह राष्ट्रपति के पास जा सकता है। अशफाक के सामने भी यही विकल्प खुला है। राष्ट्रपति के पास दया याचिका के लगभग 50 मामले लंबित हैं । इतना तो तय है कि देश के इन विदेशी दुश्मनों को राष्ट्रपति से दयादान संभव नहीं है,लेकिन सवाल यह है कि आखिर इन खतरनाक आतंकवादियों को यूं जिंदगी और मौत के बीच लटकाए रखने का फायदा क्या है? जेल में कैद इंसानियत के इन दुश्मनों की गिरफ्तारियों को क्या हम देश हित में इस्तेमाल कर पाए हैं? क्या हम इनसे इनके भारतीय संबंधों का पता लगा पाए हैं? सुरक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि देश में ऐसे आतंकी हमले बगैर लोकल सपोर्ट के संभव नहीं हैं। क्या इनका इस्तेमाल आस्तीन के सांपों को सामने लाने में नहीं किया जा सकता था? और अगर वास्तव में ऐसा संभव नहीं है तो फिर कसाब जैसे कसाइयों की हिफाजत में करोड़ों खर्च करने का आखिर अर्थ क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कंधार मामले में भारतीय विमान के अपहरण के दौरान भारत सरकार को आतंकियों के सामने किस तरह से घुटने टेकने पड़े थे। खूंखार साथियों की रिहाई के लिए आतंकी नीचता की किस हद तक जा सकते हैं ,यह किसी से छिपा नहीं है। यह भी कम हैरतंगेज नहीं कि देश में फांसी की सजाएं तो हो रही हैं, लेकिन फांसी देने की व्यवस्था दम तोड़ चुकी है। 16 साल से फांसी की एक भी सजा अमल में नहीं लाई जा सकी है। जबकि देश में 7 साल के अंदर ऐसी 279 से भी ज्यादा सजाएं सुनाई गई हैं। देश में एक भी जल्लाद नहीं बचा है। फंदे पर लटका कर फांसी देने की ब्रिटिशकालीन प्रथा के इतर मौत की सजा के दीगर उपायों पर भी विचार करना होगा।
सड़क पर नरसंहार और सरकार
सवारी बैठाने को लेकर हुए विवाद में एक बस के ड्राइवर-क्लीनर ने दूसरी बस के गेट बंद कर यात्रियों को बंधक बनाया और आग लगा दी। बड़वानी जिले में सेंधवा के करीब दिनदहाड़े हुई इस लोम हर्षक वारदात में 10 यात्री जलकर भस्म हो गए। 4 मरणासन्न हैं। गंभीर रूप से जख्मी 15 अन्य यात्रियों का इलाज चल रहा है। मरने वालों में ज्यादातर बच्चे और महिलाएं हैं क्योंकि वे लोग खिड़कियों से कूद कर भाग नहीं पाए थे। बालसमुद स्थित जिस चेक पोस्ट पर यह नरसंहार हुआ वह राज्य की अंतरराज्यीय सीमा पर स्थित प्रदेश सरकार की सबसे लाड़ली चेकिंग चौकी है। यह चौकी सरहद पर स्थित कुल 24 चेकपोस्टों में से न केवल सबसे ज्यादा कमाऊ है बल्कि मध्यप्रदेश का इकलौता हाईटेक चेक पोस्ट भी है। हर माह लगभग 50 लाख का राजस्व कमाने वाला यह वही चेकपोस्ट है, जहां तैनाती के लिए पुलिस-परिवहन और वाणिज्यिक विभाग का अमला बड़ी से बड़ी बोली लगाने में भी पीछे नहीं रहता है। सवाल यह है कि वारदात के समय ये सरकारी सूरमा आखिर कहां थे? इस लोमहर्षक कांड पर मुख्यमंत्री के दर्द को भी समझा जा सकता है। जिन परिवारों पर पीड़ा का असहनीय पहाड़ टूटा है, उन्हें शायद ही अधिकतम सरकारी इमदाद भी जरा सी राहत दे पाए? लेकिन कानून अपना काम कर रहा है। कलेक्टर ने मजिस्ट्रीयल जांच के आदेश दे दिए हैं। कहते हैं, अपराधी भी पुलिस के हाथ लग गए हैं। बिस्तर पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे यात्रियों को अफसर अस्पताल पहुंच कर पुचकार आए हैं। फौरी तौर पर सरकार जो कर सकती थी कर रही है। इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है। दोष तो उन बेकसूरों का था जो बेमौत मारे गए। उनका गुनाह यही था कि वे अराजक व्यवस्था में रहने को मजबूर थे। एक ऐसी व्यवस्था जहां किसी को यह जानने की फिक्र नहीं है कि यात्री बसें आखिर एक ही रूट पर एक ही समय पर परस्पर ओवरटेक करते हुए किस नियम के तहत चलती हैं? प्रदेश की कमोबेश सभी 681 अराष्ट्रीयकृत मार्गो पर बेलगाम दौड़ रहीं 15 हजार से भी ज्यादा यात्री बसों का यही रवैया है। लंबी दूरी की बसों के टुकड़ों में परमिट देखने वाला कोई नहीं है। अवैध बसों का भी कोई हिसाब नहीं है। यात्री सुविधा,सुरक्षा और किराया दर की निगरानी के सरकारी उड़न दस्ते कागजों पर दौड़ रहे हैं। मनमानी मुनाफे के लिए देखते ही देखते राज्य सड़क परिवहन निगम को ताकतवर परिवहन माफिया किस तरह खा गया,सब जानते हैं। निगम के बंद होने के बाद निजी बसों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रदेश के भौगोलिक हालात ऐसे हैं कि रेल का व्यापक विस्तार संभव नहीं है। आज भी तमाम जिला मुख्यालयों में रेल की कल्पना तक कठिन है। स्लीपर कोच बसों के लिए कानून तो है लेकिन किराए का कंट्रोल सरकार के पास नहीं है। खुली परमिट नीति, एकीकृत व्यवस्था की जगह स्वस्फूर्त किराया नीति,मोटरयान कर के त्रिस्तरीय परंपरागत प्रबंधों के विपरीत मुक्त सरल कराधान जैसे बस ऑपरेटर्स को उपकृत करते उपाय अपनाने में तो सरकार सबसे आगे है,लेकिन राजमार्गो पर ट्रामा सेंटर,ट्रांजिट सिस्टम,इलेक्ट्रॉनिक चेकपोस्ट और फिटनेस चेकिंग जैसे उसके अपने ही नीतिगत दावे धूल फांक रहे हैं। ऐसे में यह भ्रम स्वाभाविक है कि शायद सरकार परिवहन माफिया के कदमों पर नतमस्तक है। सड़क पर जिस की लाठी उसी की भैंस है।
मीडिया: आप तो ऐसे न थे
लोक के कदमों पर नतमस्तक तंत्र की लोकतांत्रिक शक्ति का यह अद्भुत दृश्य देखकर दुनिया दंग है। सिर्फ चंद घंटों में एक अभियान के यूं आंदोलित हो जाने का ऐसा अचरज सिर्फ विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में ही संभव है। गांधी की समाधि के समक्ष ध्यानस्थ एक गांधीवादी के शांत-चित्त चित्र जैसे ही दिलों में उतर कर मर्म तक मार करते हैं,दिल वालों की दिल्ली राजघाट की ओर सरपट दौड़ पड़ती हैऔर देखते ही देखते अहिंसा की अपार शक्ति से अभिभूत देश की तस्वीर तब देखते बनती है। संजीदा माहौल मगर तनाव का विचलन तक नहीं। चौतरफा जोश के साथ होश और गजब का जुनून। अतिशयोक्ति नहीं कि इसी क्षण अण्णा हजारे सविनय अवज्ञा के एक नए प्रबोधक बन कर उभरते हैं और किसी लोकनायक की तरह एक व्यापक जनवाद के स्वर मुखर होते हैं। ऐसा कैसे संभव है? महज 12 घंटे के भीतर कोई अभियान आखिर आंदोलन की शक्ल कैसे ले सकता है? किसी को जनमत एक झटके में बतौर लोकनायक कैसेअंगीकृत कर सकता है? असल में इस आंदोलन के नेपथ्य में एक ऐसा अभियान था जिसकी बुनियाद स्पष्टत: चार कारकों पर केंद्रित है। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार और जानलेवा महंगाई से आहत और तिरस्कृत बहुसंख्यक मध्यमवर्ग, न्यायिक सक्रियता की तर्ज पर मीडिया की अप्रत्याशित रूप से अति सक्रियता,सटीक मसले पर गैर राजनैतिक नि:स्वार्थ नेतृत्व की गारंटी और निरंकुश सत्ता के गलियारों में नक्कारखाने की तूती। यह श्रेय किसी एक को नहीं जाता है। इसमें अप्रकट रूप से उस आम धारणा की भी बड़ी भूमिका है जो सत्ता के साथ नौकरशाही और पूंजीपतियों के गठजोड़ को भ्रष्टाचार और इस भ्रष्टचार को महंगाई के लिए जिम्मेदार मानती है। कहना न होगा कि सोशल मीडिया के रास्ते एक ओर जहां यह अभियान नई पीढ़ी के फेसबुकिया इंडिया के कान भरता है वहीं अति उत्साही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने लाइव कवरेज में कदम-दर-कदम फॉलोअप और हर पल ताजा अपडेट से आंखे खोलता है।अपने परंपरागत आचरण के एकदम विपरीत मीडिया सरकारी कोपभाजन के दूरगामी नतीजों की फिक्र तक नहीं करता है। प्रोफेशनल मीडिया एकबारगी मार्गदर्शी मीडिया की नई भूमिका में अवतरित हो जाता है। सधे -सधाए संयमित न्यूज एंकर और सतर्क रिपोर्टर सनसनीखेज मसाला खबरों से बहुत दूर बमुश्किल तभी सूत्रों का हवाला देते हैं ,जब उन्हें लोगों से सीधे संवाद में अड़चन लगती है। चाहे वह तिहाड़ से अण्णा की रिहाई की अटकलें हों या फिर हिरासत में तबियत नासाज होने की अफवाहें। देश के साथ मीडिया निरंतर संवाद करता है। यह वही अभियान है जिसने एक अभियान को आंदोलन की शक्ति दे दी है। देश को मीडिया का स्वस्फू र्त समर्थन न केवल उससे जुड़े अब तक के तमाम मिथकों को तोड़ता है, अपितु सामाजिक सरोकार के प्रति अपनी संजीदगी को विश्वसनीय भी बनाता है। लोकपक्ष के इस दिव्य प्रकटीकरण के पीछे बेशक मीडिया की सकारात्मक समझ है। अखिल भारतीय स्तर पर यह पहला चमत्कारिक अनुभव है। जो साबित करता है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा पाया यूं ही नहीं है। बेलगाम विधायिका और अराजक कार्यपालिका के खिलाफ जब न्यायपालिका सक्रिय हो सकती है तो प्रेस अपनी भूमिका के प्रति निष्क्रिय कैसे रह सकता है?
सिविल सोसायटी पर सियासी साया
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए जादुई अंदाज में उमड़ा अण्णा हजारे का आंदोलन क्या जाने-अनजाने पॉलीटिकली हाई जैक होता जा रहा है? कम से कम ताजा तस्वीर तो ऐसे ही संकेत देती है। सिविल सोसायटी और सरकारी लोकपाल के बीच एनसीपीआरआई के तीसरे रहस्यमयी लोकपाल का प्रकटीकरण, यूपी में बरेली से कांग्रेस के सांसद प्रवीण ऐरन का अण्णा मोह, यूपी के ही पीलीभीत से भाजपा सांसद वरूण गांधी द्वारा सिविल सोसायटी के जन लोकपाल को संसद में पेश करने का एलान, दिल्ली की सांसद शीला दीक्षित के सांसद बेटे संदीप दीक्षित का अण्णा गान , गतिरोध तोड़ कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का टीम अण्णा से बातचीत के लिए रास्ता बनाने की बेचैनी, महाराष्ट्र के अतिरिक्त गृह सचिव उमेश चंद्र सारंगी की अण्णा से मुलाकात। तेजी के साथ सामने आए ये तमाम ऐसे राजनीतिक नाटकीय मोड़ हैं, जो सरकार के निरंतर दबाव में आने की गवाही देते हैं। बेशक सरकार ने भी वैकल्पिक राह पकड़ने के लिए तरह-तरह के टोटके आजमाने शुरू कर दिए हैं। मसलन- कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएससी )की अरूणा राय का जन लोकपाल पर एक और मसौदा सरकार की ऐसी ही किसी रणनीति का हिस्सा कहा जा सकता है। अरूणा एनएससी के अलावा नेशनल कम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की भी सदस्य हैं और जनलोकपाल का यह तीसरा ड्रॉफ्ट कथित तौर पर इसी एनसीपीआरआई ने बनाया है। खासियत यह भी है कि यह प्रस्ताव सिविल सोसायटी के मसौदे से तकरीबन-तकरीबन मेल खाता है। खासकर कांग्रेस के दो सांसदों प्रवीण ऐरन और संदीप दीक्षित की अण्णा के प्रति पैरवी भी सरकारी रणनीति का ही कूटनीतिक हिस्सा लगती है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि सरकार गतिरोध तोड़कर टीम अण्णा के साथ बैक डोर से कोई बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश में है लेकिन अड़चन यह है कि भारी जन समर्थन से अभिभूत सिविल सोसायटी सत्ता को शिकस्त देने की राह पर भटक सी रही है। अण्णा की इच्छा सूची बढ़ती ही जा रही है। लगता नहीं कि यह किसी समाधान का सकारात्मक रास्ता है। सिविल सोसायटी को यह नहीं भूलना चाहिए कि आंदोलन आज निर्णय के जिस नाजुक मुकाम पर है उसके नीचे एक सियासी जमीन बनती जा रही है। आशय यह कि जन दबाव के चलते सरकार के दबाव में आने का भ्रम पालना ठीक नहीं है। सच तो यह है कि अगर सत्ता को घेरने का अवसर कैश कराने की कोशिश में लामबंद विपक्ष उसके बचाव में नहीं आया होता तो सिविल सोसायटी को उसकी संवैधानिक हैसियत बताकर सरकार संसदीय अवमान के आरोप में उसे कब का घेर कर घायल कर चुकी होती। सिविल सोसायटी के जनलोकपाल को संसद में ले जाने के भाजपा सांसद वरूण गांधी के एलान का तीर चलाकर पार्टी के रणनीतिकारों ने इस आंदोलन को एक नया मोड़ देने की कोशिश की है। इसे इत्तफाक ही कहें कि देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इन्हीं वरूण गांधी के पितामह फिरोज गांधी पहली बार 1956 में संसदीय कार्यवाही संरक्षण विधेयक ले कर आए थे। भाजपा के इस दाव को सत्तारूढ़ कांग्रेस की बैचेनी को यूं भी देखा जा सकता है। ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल की पीएम पद पर ताजपोशी की अटकलें भी लाजिमी ही हैं।
गुनाहों के कटघरे में इंसाफ के देवता
स्वतंत्र भारत के संसदीय न्यायिक इतिहास में यह पहला अवसर है, जब हाईकोर्ट के किसी न्यायाधीश के खिलाफ संसद के उच्च सदन ने महाभियोग के प्रस्ताव को पारित किया है। यह इस मायने में दूसरा दुर्भाग्य पूर्ण मौका है, जब 1993 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में ऐसा ही महाभियोग कांग्रेस के बायकाट के कारण खारिज हो गया था। लिहाजा रामास्वामी संसद में पेशी से पहले ही बाल-बाल बच गए थे, लेकिन राज्यसभा में 2 घंटे की दलीलों के बाद भी 53 साल की उम्र में वित्तीय कदाचार में फंसे कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन खुद को नहीं बचा पाए। इसे इत्तफाक ही कहें कि राज्य सभा में कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन के खिलाफ भी एक महाभियोग लंबित था, लेकिन इससे पहले कि फाइल खुलती दिनाकरन ने त्याग पत्र देकर महाभियोग के औचित्य को निर्थक कर दिया। शीर्ष न्यायिक प्रणाली में प्रदूषण के ये वो संगीन मामले हैं जो इस दावे को और भी पुख्ता करते हैं कि न्यायपालिका में आत्मनियंत्रण की नैतिकता मूलक प्रक्रिया प्राय: नाकाम हो चुकी है। शर्मशार करते ये वही साक्ष्य हैं जो नए सिरे से न्यायिक सुधारों के रोडमैप की जरूरत को रेखांकित करते हैं और इसी बहाने न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही पर राष्ट्रीय बहस का रास्ता बनाते हैं। वैसे भी महाभियोग के ये पóो तब फड़ फड़ाए हैं, जब पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभूतपूर्व माहौल है और सर्वोच्च अदालत को भी मजबूत लोकपाल के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए जादुई आंदोलन उफान पर है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर भ्रष्टाचार मुक्त न्यायिक व्यवस्था के लिए किस किस्म के भरोसेमंद और टिकाऊ प्रबंधों को अपनाया जाए? खासकर विरोधाभास इस तथ्य को लेकर है कि कमोवेश सभी राजनीतिक दल जहां सिविल सोसायटी के लोकपाल से राजी नहीं हैं ,वहीं वे न्यायिक शुचिता के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के प्रबल पक्षधर हैं। सवाल अकेले भ्रष्टाचार में फंसे उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को दंडित करने का नहीं है। चुनौती इनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया को अधिकतम निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने की भी है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आरोपी सिद्ध होने पर महाभियोग के जरिए न्यायाधीशों को अपदस्थ करने की प्रक्रिया जहां जटिल है, वहीं इसके राजनीतिक प्रभावों की आशंका से इंकार कर पाना भी कठिन है। रामास्वामी मामले में सत्तारूढ़ कांग्रेस के बायकट को इन्ही अर्थो में समझा जा सकता है। यह कहने में हर्ज नहीं कि देश की शीर्ष न्यायिक सेवा के शुद्धिकरण की दिशा में अब तक कोई ठोस उपाय नहीं किए गए हैं। मौजूदा समय में प्रचलित 1968 का न्यायाधीश जांच अधिनियम अकेले न्यायाधीशों की अवमानना प्रक्रि या पर केंद्रित है। यूपीए सरकार के एक दावे को मानें तो केंद्र के पास एक ऐसा विधेयक प्रस्तावित है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ न केवल न्यायाधीशों से निपटने में सक्षम है, अपितु उन्हें और ज्यादा उत्तरदायी बनाने की ताकत भी रखता है। इसे विडंबना ही कहें कि न्यायपीठ पर बैठे न्यायपालक को जब हम कानून से नियंत्रित करने की कल्पना करते हैं तो न्याय में नैतिकता ,आत्मनियंत्रण अर्थात् अंतरआत्मा की आवाज का कोई अर्थ नहीं रह जाता है,मगर बावजूद इसके उम्मीद नहीं मरती है।
शह-मात की सियासत
अण्णा आंदोलन पर संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ऐसे वक्तव्य की आशंका नहीं थी। उम्मीद लगाई जा रही थी कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संदेश के दौरान गांधीवादी अन्ना हजारे के अहिंसक आंदोलन को अलोकतांत्रिक बताने वाले प्रधानमंत्री अपनी भूल सुधारेंगे और विवाद के मसलों को सुलझाने के लिए उदारवादी रूख अपनाते हुए बीच का रास्ता बनाने के विकल्पों पर विचार के लिए सदन का साथ मांगेंगे। संसद के बाहर सड़क पर पहले ही नतमस्तक सरकार से संसद में भी समर्पण की अटकलें नाहक नहीं थीं, क्योंकि सरकार के राजनैतिक रणनीतिकार भी यह बखूबी समझ चुके हैं कि फसाद की जड़ में सत्ता की मदहोशी के सिवाय कुछ और नहीं है। अण्णा आज अगर हीरो बन बैठे हैं तो इसके पीछे शासकीय तौर पर अकुशल प्रबंधन,दूरदर्शिता का अभाव और नेतृत्व का कच्चपन है। इसके लिए टीम अन्ना पर तोहमत मढ़ने का कोई अर्थ नहीं है,लेकिन विडंबना देखिए यूपीए सरकार के हुक्मरान अभी भी अड़ी में हैं। हालत लकीर के फकीर जैसी है। अपने संसदीय व्यक्तव्य में प्रधानमंत्री ने कहा, अन्ना ने जो रास्ता अपनाया वो गलत है। इसमें शक नहीं कि सिविल सोसायटी की कुछ मांगें वाजिब नहीं है। उन्हें खारिज ही होना चाहिए ,लेकिन गणतंत्र में अगर विरोध के अनशन-उपवास जैसे शांतिपूर्ण अहिंसात्मक रास्ते ही अलोकतांत्रिक हैं तो फिर प्रधानमंत्री ही बताएं कि आखिर लोकतांत्रिक रास्ता क्या है? क्या भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार भी अलोकतांत्रिक हैं। संसद में पीएम का क्या यह हास्यास्पद तर्क नहीं कि निर्वाचित लोगों(सांसदों) को अपना काम करने दें। कम से कम ऐसा वक्तव्य उन मनमोहन सिंह को तो शोभा नहीं देता जो स्वयं मनोनीत सांसद हैं। यह निर्विवाद है कि कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद के पास है, लेकिन सवाल यह है कि जनपक्ष का प्रतिनिधत्व कर रही सिविल सोसायटी के जनलोकपाल बिल को संसद के सामने रखने में सरकार को आखिर परेशानी क्या है? यह संसद के विवेक पर था कि वह इस पर विचार करती या फिर खारिज कर देती। सच तो यह है कि चौतरफा घिरी सरकार के पास अब तार्किक तौर पर कहने को कुछ भी नहीं है। क्या संसद और क्या सड़क। मजबूत जनलोकपाल के मामले में गांधीवादी अन्ना हजारे को संसद के खिलाफ सड़क पर अकेला खड़ा करने की यूपीए सरकार की कुटिल साजिश भी अंतत: लामबंद विपक्ष ने खारिज कर दी है। सरकार अन्ना को संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने के कठिन कानूनी फंदे में फंसा कर झुलाने की कोशिश में थी ,लेकिन संसद के दोनों सदनों में हावी विपक्ष ने अण्णा पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 16 सूत्रीय वक्तव्य को शर्मनाक बताकर पलटी मार दी। कदचित कल तक सरकारी लोकपाल के पक्ष में सत्ता के साथ-साथ रहे विपक्ष से सरकार को ऐसी आशंका नहीं रही होगी, लेकिन राजनीति में अवसर ही शह-मात तय करते हैं। देश में अन्ना आंदोलन को मिल रहे अभूतपूर्व समर्थन को पॉलिटिकली हाईजैक करने की अपनी इस रणनीति को खासकर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा किस हद तक कैश करा पाती है यह तो भविष्य बताएगा? लेकिन अन्ना आंदोलन में कैसी भी सियासी भागीदारी सिविल सोसायटी के लिए आत्मघाती हो सकती है।
एक आंदोलन का गिरफ्तारी
लोकतंत्र के विकासक्रम में वह दिन दूर नहीं जब लोक का तंत्र से सीधा मुकाबला होगा और निश्चित रूप से लोक की विजय होगी। अपनी शहादत की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा लिखे गए उनके एक आखिरी दस्तावेत की यह भविष्यवाणी आज सच साबित होने के संकेत दे रही है। जनशक्ति का यह एकदम वैसा ही उफान है जिसे 1942 में गांधी ने हवा दी थी। 1974 की जेपी की संपूर्ण क्रांति का आंदोलन एक मर्तबा फिर से तारी है। न गांधी का कोई संगठन था न जेपी का कोई गुट और नाही अण्णा की कोई लॉबी है। सिर्फ देश के नाम एक संदेश तब भी था और आज भी है। संदेश साफ है कि यह किसी सरकार के तख्ता पलट की लड़ाई नहीं है। यह संघर्ष है उस व्यवस्था के विरूद्ध जो भ्रष्टाचार पैदा करने की मशीन बन चुका है। लोकतंत्र क्या है? तंत्र के खिलाफ आज संसद के बाहर सड़क पर तिहाड़ जेल,इंडिया गेट,जेपी पार्क और देश के चप्पे-चप्पे पर चौक-चौबारों पर खड़े लोक से पूछिए। यह कोई रटी-रटाई परिभाषा नहीं है। लोकतंत्र तो एक ऐसा व्यावहारिक सच है जो आज के सत्ताधारी सियासतदारों की तरह पढ़ी-पढ़ाई परिभाषाएं नहीं रटता। परिभाषाएं गढ़ता है। वह एक ऐसी स्वस्फू र्त शक्ति है जो इस तथ्य को रेखांकित करता है कि कत्ल करने के बाद मंदिर में घुसकर बैठ जाने से कोई पुजारी नहीं हो जाता है। तभी तो जनलोकपाल के सवाल पर संसदीय अवमानना के आरोपी अण्णा हजारे परवाह नहीं करते। वह संसद और संविधान से समर्थक हैं ,लेकिन वह सांसदों से सहमत नहीं हैं। आज 150 सौ से भी ज्यादा सांसद दागी हैं। इसीलिए बुनियादी व्यवस्था बदलनी है ताकि सांसद बेदाग हों। व्यवस्था परिवर्तन की यह वही मांग है जिसके साथ पूरा देश है। आज अगर पूरा राष्ट्रआंदोलित है तो वह टू जी स्पैक्ट्रम में कमीशन नहीं मांग रहा है । उसे खामोश रहने के एवज में आदर्श घोटाले का कोई एक अदद फ्लैट नहीं चाहिए है। देश तो सिर्फ साफ सुथरा हिसाब मांग रहा है। यह उसका हक है। उसके खून पसीने की क माई है। देश चाहता है कि हिसाब मांगने की नौबत ही क्यों आए? कल तक सत्ता मद में चूर रही यूपीए सरकार के होश ठिकाने हैं।
संसद के सामने सड़क पर खड़े अण्णा
सत्ता अंतत: निर्लज्जता की किस हद तक जा सकती है? मशहूर गांधीवादी अण्णा हजारे की उनके घर से गिरफ्तारी इसी तथ्य की ताजा मिसाल है। अण्णा का कसूर समूचा देश ही नहीं पूरी दुनिया जानती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत जनलोकपाल के लिए राष्ट्रीय जनपक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे अण्णा हजारे आज लोकनायक की भूमिका में हैं। दरअसल सत्ता इसी जनशक्ति से इस कदर भयभीत है कि वह अपना संतुलन खो बैठी है। बात-बात में लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाली यूूपीए सरकार की मनोदशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्वाधीनता दिवस के 65 वें समारोह को लगातार 8 वीं बार राष्ट्र के नाम संबोधित करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जनतंत्र में विरोध के सत्याग्रह,अनशन और उपवास जैसे अहिंसक उपायों को ही खारिज कर देते हैं और अण्णा हजारे को ऐसा नहीं करने की नसीहत दे बैठते हैं। क्या प्रधानमंत्री को भारत के स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मागांधी के 35 वर्षीय सक्रिय योगदान तक का ज्ञान नहीं है? क्या उन्हें नहीं मालूम कि ताकतवर सशस्त्र अंग्रेजी हुकूमत के समूल खात्मे में यही सत्याग्रह,अनशन और उपवास गांधी जी के अहिंसक हथियार थे? सवाल यह भी है कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संबोधन से पहले प्रधानमंत्री के राजघाट जाकर बापू के स्मारक में पुष्पांजलि समर्पित करने के स्वांग का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? इस लोकतांत्रिक राष्ट्र की इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक अहिंसक उपवास के लिए किसी बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को पहले तो जगह तक नहीं दी जाती है। फिर प्रतिबंधात्मक कार्यवाही की धमकी दी जाती है और अंतत: उसे घर से गिरफ्तार कर लिया जाता है। अण्णा को किस इल्जाम में गिरफ्तार किया गया है? क्या अण्णा ने जेपी पार्क पहुंचकर धारा 144 तोड़ दी थी? सरकारी दावे की मानें तो अण्णा पर सिर्फ एक आरोप प्रायोजित है। सरकार को लगता है कि अण्णा की लड़ाई उससे है और वह सुनियोजित तरीके से संसद की आड़ में है। वह सिविल सोसायटी के हर हमले संसद की ढाल से निढाल करने की रणनीति पर काम कर रही है और यह प्रचारित करने की कोशिश में है कि यह संसदीय अपमान है। जबकि सरकार भी इस सच से नावाकिफ नहीं है कि सिविल सोसायटी का संघर्ष संसद या सरकार से नहीं अपितु समूची व्यवस्था परिवर्तन से है। सरकार ने संसद के सामने साजिशन अण्णा और उनकी सिविल सोसायटी को खड़ा करने की रणनीति को उसी वक्त अंजाम दे दिया था जब लोकपाल के गैर सरकारी मसौदे को सर्वदलीय विमर्श के लिए ले जाया गया था। कुल मिलाकर सरकार इस मसले को कानूनी बाधाओं और सियासी दांवपेंचों में कुछ इस तरह से उलझा दिया कि सियासतदारों को अण्णा संसदीय लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक नजर आने लगे। अण्णा के मजबूत जनाधार के खिलाफ चतुर यूपीए सरकार कानून और संवैधानिक मूल्यों की दुहाई को ढाल बनाकर आक्र ामक अब आक्रामक रणनीति अपना चुकी है। की तैयारी में है। सियासी स्वांग कुछ भी हो लेकिन संकेत बताते हैं कि जनलोकपाल की राह आसान नहीं है। ताजा परिदृश्य यही है कि तनातनी के बीच सिविल सोसायटी संसद के सामने खड़ी है और सरकार पूरी कुटिलता के साथ उसे घेर कर मारने का भ्रम पाल बैठी है। बेहतर तो यही होगा कि सरकार को यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि अन्ना अब देश के व्यापक लोकपक्ष का प्रतिनिधित्व करने की हैसियत में हैं।
प्लीज,आपातकाल का डर न दिखाइए..
वैश्विक पटल पर भारत भ्रष्टाचार के सूचकांक में 87 वें पर है। अपनी आजादी के 65 वें पायदान पर खड़ा दुनिया का सबसे बड़ा यह लोकतांत्रिक राष्ट्र क्या इतिहास दोहराने की राह पर है? या फिर यह महज भ्रम है कि इस देश की कुटिल सियासी संघीय सत्ता कूटनीतिक तौर पर एक बार फिर से लोकतांत्रिक मूल्यों को अपहृत करने की ताक में है? अभूतपूर्व भ्रष्टाचार के सवाल पर चोरी और सीना जोरी। आम आदमी को बेमौत मारती महंगाई पर आंकड़ों की हेराफेरी। सर्वोच्च अदालत, कैग और पीएसी जैसी स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं को ठेंगा दिखाते, अल्पमत लंगड़ी सरकार के सियासी झंडाबरदार आखिर चाहते क्या हैं? जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की इस सरकार को क्या लगता है कि एक अण्णा के आंदोलन को कुचल देने से देश की जनभावनाएं मर जाएंगी? शायद ऐसा ही गुमान आज सत्ता के साथ सरेआम खड़े विपक्ष को भी है। कहना न होगा कि अपनी दबाव समूह की भूमिका को विस्मृत कर विपक्ष ऐतिहासिक भूल कर रहा है। स्वतंत्रता दिवस की 64 वीं वर्षगांठ पर पिछले साल लालकिले की इसी प्राचीर से अर्थशास्त्रीय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में सिर्फ सौ दिन के अंदर महंगाई मार देने का वायदा किया था। महंगाई तो मरी नहीं मगर आम आदमी मर रहा है। अकेले यूपीए सरकार के कार्यकाल में संसद के अंदर महंगाई पर 10 बार बहस हो चुकी है मगर नतीजा क्या है? महंगाईकी बदौलत 3 साल में अगर कालाबाजारियों की जेब में 6 लाख करोड़ चले गए तो कौन जिम्मेदार है। अकेले 20 माह की महंगाई में 5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। देश की तीन चौथाई आाबादी पहले से ही यह दारूण दर्द भोग रही है। सच तो यह है कि गुलाम भारत को भुगत चुकी एक पूरी पीढ़ी का जीवन स्वतंत्र भारत में गरीबी से लड़ते-लड़ते मर गया है। नई पीढ़ी इस सच से नावाकिफ नहीं है कि इस अभिशाप की जड़ में भ्रष्टाचार है और इसके पीछे सियासतदारों और अफसरशाही का शक्तिशाली गठजोड़ है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तेजी के साथ सामाजिक चेतना का विकास हो रहा है वैसे-वैसे राजनीति का चाल,चेहरा और चरित्र भी सामने आ रहा है। बेहतर तो यह हो कि नैतिक तौर पर कोमा में जा चुकी गठबंधन सरकार इतिहास से सबक ले। 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर कैग के खुलासे से दो-तिहाई बहुमतवाली तबकी राजीवगांधी सरकार बैकफुट पर आ गई थी। फर्क फकत इतना था कि तब-अब जैसा बिकाऊ विपक्ष नहीं था। वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंधी की तरह उठे राष्ट्रव्यापी आंदोलन के उफान ने 1989 के आम चुनाव में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी के र्धुे उड़ा दिए थे। यह दीगर बात है कि तब उन्हें सेंट किंट्स मामले में फंसाने की ठीक वैसी ही कोशिश की गई थी। जैसे आज गांधीवादी अण्णा हजारे पर कांग्रेस के बड़बोले कीचड़ उछाल रहे हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी के ऐसे ही नाजुक मुद्दे पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 37 साल पहले एक आंदोलन को राष्ट्रव्यापी स्वर दिए थे। यह वह दौर था जब इंदिरागांधी सरकार ने आपातकाल की दम पर लोकपक्ष का दमित करने की कोशिश की थी पर इंदिरा शासन के इस कुशासन का आखिर अंजाम क्या हुआ? एक सच यह भी है कि अब यह देश आपातकाल से नहीं डरता। इसे ऐसा डर दिखाने की भूल नहीं करनी चाहिए। सवाल अपनी जगह संजिदा हैं, क्या किसी लोकतंत्र के राज में दमन से जन भावनाएं मारी जा सकती हैं? क्या देश इतिहास दोहराने की राह पर नहीं है? लोकतंत्र में जवाबदेही और पारदर्शिता दोनों ही सत्ता के प्रति अनिवार्य शर्ते हैं लेकिन कांग्रेस की यूपीए सरकार इसकी अनदेखी कर देश को तानाशाही की ओर लिए जा रही है।
मध्यप्रदेश में विश्व स्तरीय पर्यटन की संभावनाएं
सिंगापुर के आईलैंड किसको नहीं लुभाते हैं। मध्यप्रदेश के इंदिरागांधी परियोजना क्षेत्र के नैसर्गिक टापुओं में मध्यप्रदेश सरकार, निजी क्षेत्र की भागीदारी से ऐसे ही आईलैंड को विकसित करने के अद्भुत सपने देख रही है। असल में देश में फारेस्ट स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्यप्रदेश को कुदरत ने सौगात में ऐसी प्राकृतिक संपदाएं सौंपी हैं ,जो सचमुच उसे विश्वधरोहर की श्रेणी में रखती है। झीलों और शैलशिखरों से समृद्ध इस प्रदेश का विशाल ग्रामीण फलक टूरिज्म का एक ऐसा जादुई त्रिकोण बनाता है ,जो राज्य के हर संभाग को न केवल पर्यटन का मेगा सर्किट बना सकता है बल्कि उसे देश-विदेश के टूरिज्म सर्किट से जोड़ कर देश के सामने टूरिज्म स्टेट का मॉडल भी पेश कर सकता है। असल में मध्यप्रदेश के 80 प्रतिशत पर्यटन केंद्र ग्रामीण इलाकों में स्थित हैं। ईको पर्यटन विकास बोर्ड बनाने वाले देश के इस सर्वप्रथम प्रदेश की भौगोलोगिक स्थिति ही कुछ ऐसी है जो ईको और ग्रीन टूरिज्म के साथ-साथ वाइल्ड लाइफ और एडवेंचर टूरिज्म के व्यावसायिक विकास के भी तमाम रास्ते बनाती है। यह अतिशयोक्ति नहीं कि मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में अंतरराष्ट्रीय स्तर के पर्यटन विकास की अपार संभावनाएं हैं।
संस्कृतियों का संगम मध्यप्रदेश : देश के दिल मध्यप्रदेश के ग्राम्य जीवन से तमाम ऐसे अनछुए और अव्यावसायिक पर्यटन स्थलों की लंबी फेहरिस्त जुड़ी है जो बरबस रोमांचित करती है। पांच लोक संस्कृतियों के समावेशी संसार मध्यप्रदेश का लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, कला, बोली और परिवेश ही नहीं अपितु जनजातियों की आदिम संस्कृति का विशाल फलक विदेशी सैलानियों को सदैव लुभाता रहा है। विंध्य - सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाएं इसे जहां नैसर्गिक बनाती हैं,वहीं नर्मदा समेत 6 बड़ी नदियों के उद्गम इसे और भी विहंगम बनाते हैं। कालिदास और तानसेन। कला,शिल्प और अद्भुत स्थापत्य। राजतंत्र का वैभवशाली इतिहास। प्रदेश में वैभवपूर्ण पर्यटन को और भी आश्चर्यजनक बनाता है।
भारत का जुरासिक खजाना : मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी क्षेत्र में अनमोल जुरासिक खजाना बिखरा पड़ा है। पश्चिमी मध्यप्रदेश के धार जिले के 90 हेक्टेयर में 4 करोड़ की शुरूआती लागत से राष्ट्रीय डायनासोर जीवाश्म उद्यान बनाने की सरकारी योजना प्रस्तावित है। भारतीय भू-गर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) के अध्ययन के अनुसार यहां वर्ष 2007 में डायनोसोर के सौरोपॉड परिवार के 150 से भी ज्यादा अंडो के जीवाश्म की खोज की गई थी। इस इलाके में साढ़े छह करोड़ साल पहले क्रि टेसियस काल 20-30 फुट ऊंचे शाकाहारी डायनासोरों की सल्लतनत हुआ करती थी।
विश्व में भित्तिचित्रों का सबसे बड़ा संग्रह: विंध्य पर्वत श्रृंखला के उत्तरी छोर में स्थित भीमबैठका की पाषाणयुगीन सैकड़ों अद्भुत गुफाएं ,जिसमें आदिमानव द्वारा निर्मित 6 सौ से भी ज्यादा भित्ति चित्रों का यह संग्रह संसार में पाए गए पाषाणकालीन भित्तिचित्रों का सबसे बड़ा संग्रह है। भृतहरि,उदयागिरी और गुप्तगोदावरी की प्राचीन प्राकृतिक गुफाएं कुदरती की पच्चीकारी का अनूठा उपहार हैं। जो विश्वधरोहर का दर्जा हासिल करने की दावेदार हैं।
व्हाइट टाइगर का घर: दरुलभ व्हाइट टाइगर से रूबरू होने का रोमांच आज भी यहीं है। सफेद शेर के घर बांधवगढ़ और टाइगर रिजर्व मोगली सेंच्युरी पेंच जैसे आधा दर्जन से भी ज्यादा सदाबहार नेशनल पार्क भी यहीं हैं। सिगरौली में काले हिरणों का अभयारण्य। सोन और चंबल के घड़ियाल अभ्यारण्य और पन्ना मेंअनमोल हीरे की खदानें देशी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं। बरगी,तवा और भोपाल की अपरलेक पर क्रू ज वोट की संभावनाएं भी मौजूद हैं। इतना ही नहीं अमरकंटक, मांडू,ओरक्षा,ग्वालियर,चंदेरी, मैहर,चित्रकूट , महाकालेश्वर,ओंकारेश्वर और भोजपुर। प्रदेश में वैभवपूर्ण पर्यटन की फेहरिस्त बड़ी लंबी है।
विश्व की सबसे प्राचीन ईमारत और खजुराहो : सैंड स्टोन से बनी भारत की सबसे प्राचीन ईमारत सांची के स्तूप राजधानी भोपाल से 45 किलोमीटर दूर स्थित हैं। जिन्हें सम्राट अशोक ने स्वयं बारहवीं शताब्दी में बनवाया था। जबलपुर से दूर भेड़ाघाट में नर्मदा किनारे सौ-सौ फीट ऊंची संगमरमर की चट्टानें सैलानियों को अचंभित कर देती हैं। कभी अंग्रेजों की ग्रीष्म कालीन राजधानी रही पहाड़ों की रानी पचमढ़ी प्रदेश का मशहूर हिल स्टेशन है। मैथुन मूर्तियों और स्थापत्य कला के लिए विश्व में मशहूर चंदेल कालीन खजुराहो के मंदिर आज भी पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
इंटरनेशनल एयरपोर्ट: राजधानी भोपाल का राजाभोज एयरपोर्ट अब इंटरनेशनल टर्मिनल से लेस है। भोपाल से दिल्ली-मुंबई समेत देश के 8 शहरों के लिए हवाई सेवा उपलब्ध है। सीधी अंतरराष्ट्रीय उड़ान सेवा हाल ही में उपलब्ध करा दी गई। राजधानी भोपाल के अलावा मिनी मुंबई के नाम से मशहूर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर , संस्कारधानी जबलपुर और विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के साथ-साथ एतिहासिक शहर ग्वालियर भी विमान सेवा से जुड़े हुए हैं।
एयर टैक्सी: सामरिक लिहाज से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रदेश के तमाम बड़े शहरों में बनाई गई हवाई पट्टियों को विकिसत कर इन्हें निकटतम हवाई अड्डों से जोड़ा जा सकता है। राज्य में हवाई सेवा के विस्तार के लिए भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने देश के जिन 35 हवाई अड्डों के विस्तार की योजना बनाई है, उनमें प्रदेश के भोपाल,इंदौर, खजुराहो और जबलपुर भी शामिल हैं। भोपाल के नेशनल एयरपोर्ट का विस्तार कार्गो कॉम्लेक्स के रूप में किया जा रहा है।
तेजी से बढ़ रहे हैं सैलानी: मध्यप्रदेश सरकार के पर्यटन विकास निगम के अनुसार प्रदेश के 80 प्रतिशत पर्यटन स्थल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित हैं। जहां पहुंच का संकट नहीं है। ये स्थल या तो रेल मार्गो से जुड़े हैं या फिर राष्ट्रीय और राज्यमार्गो से इन्हें जोड़ा गया है। शहरी पर्यटन के मुकाबले देशी-विदेशी सैलानियों का रूझान ग्रामीण इलाकों में स्थित पर्यटन केंद्रो के प्रति ज्यादा है। मिसाल के तौर पर पिछले साल राज्य के बड़े शहरों के पर्यटक केन्द्रों पर 63 लाख 50 हजार 183 पर्यटक पहुंचे। इनमें से 61 लाख 13 हजार 503 भारतीय तथा 2 लाख 36 हजार 680 विदेशी पर्यटक थे। इसके अलावा इस दौरान धार्मिक स्थलों पर 31 करोड 9 लाख 79 हजार 842 पर्यटक आए। इनमें 31 करोड 9 लाख 66 हजार 92 भारतीय तथा 13 हजार 750 विदेशी पर्यटक शामिल थे । जबकि इसके विपरीत पिछले साल ही ग्रामीण क्षेत्र में स्थित ओरछा में 12 लाख 68 हजार पर्यटक पहुंचे। इनमें 12 लाख 26 हजार भारतीय तथा 42 हजार 300 विदेशी पर्यटक थे। जबकि 7 लाख 60 हजार 683 पर्यटक मांडव पहुंचे। जिनमें 7 लाख 53 हजार 712 भारतीय तथा 6,971 विदेशी पर्यटक थे। इसी समयावधि में एक करोड़ 13 लाख 651 पर्यटक चित्रकूट आए। इनमें एक करोड़ 13 लाख 306 भारतीय तथा 345 विदेशी थे। मैहर में 72 लाख उज्जैन में साढ़े 36 लाख पर्यटक पहुंचे। देश की राजधानी दिल्ली और विश्व के लिए भारत में स्थित सबसे बड़े टूरिज्म प्वाइंट आगरा से हवाई सेवा से जुड़े खजुराहो में रोज 5 सौ के करीब विदेशी और एक हजार से भी ज्यादा देशी पर्यटक पहुंचते हैं।
निजी पूंजी निवेश और जनभागीदारी: हजार संभावनाओं के बाद भी इतना तय है कि मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में स्थित अंतरराष्ट्रीय स्तर के पर्यटन अपार संभावनाओं का व्यावसायिक विकास अकेले मध्यप्रदेश सरकार से संभव नहीं है। सरकार ने इसे लिए अपनी इनवेस्टर समिट स्कीम के तहत निजी पूंजी निवेश की रचनात्मक पहल की है। ग्रामीण पर्यटन स्थलों को राष्ट्रीय और राज्य मार्गो से सीधे जोड़े जाने का काम भी प्रदेश में बड़ी तेजी के साथ चल रहा है। सरकार इन क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्ययोजनाओं पर काम कर रही है। निजी पूंजी निवेश और जनभागीदारी से यदि ऐसा संभव हो पाया तो न केवल मध्यप्रदेश, विश्व के पर्यटन मानचित्र में खुद को स्थापित करने में सफल रहेगा अपितु प्रदेश की कुल श्रमशक्ति में से अकेले 6 प्रतिशत श्रमशक्ति के लिए स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हो जाएंगे। इन अंचलों में रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण श्रमशक्ति के लिए आउटसोर्सिग की भी आवश्यकता नहीं है।
आरक्षण की यूं छा जाना..
लंबे अर्से से सुर्खियों में रही हिंदी फीचर फिल्म आरक्षण अंतत: रूपहले पर्दे पर आकर छा गई। भयावह सियासी आशंकाओं के विपरीत आश्यर्च तो यह है कि न तो कहीं सामाजिक वैमनस्यता की सुगबुगी दिखी और ना ही शांति-व्यवस्था का संकट। अलबता,फस्र्ट डे के फस्र्ट शो ने एक बड़ी विवादास्पद बहस के तमाम भ्रम इंटरवल के पहले ही तोड़ दिए ,लेकिन बावजूद इसके राजधानी भोपाल में बनी इस मुंबइया फिल्म के इर्द-गिर्द अभी भी कई कथानक तेजी के साथ घूम रहे हैं। मसलन- उत्तरप्रदेश,पंजाब और आंध्रप्रदेश में प्रतिबंध के खिलाफ निर्देशक प्रकाश झा सुप्रीमकोर्ट चले गए हैं। अभिनय सम्राट अमिताभ बच्चन के मुंबई स्थित प्रतीक्षा और जलसा बंगलों में सुरक्षा सख्त कर दी गई है। मुंबई और मद्रास हाईकोर्ट से बाकायदा हरीझंडी के बाद भी महाराष्ट्र में छगन भुजबल की महात्मा फुले समता परिषद फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देने की धमकियां दे रही है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने फिल्म के कुछ सीन्स और डायलॉग पर अपनी आपत्ति से सेंसर बोर्ड को अवगत करा कराकर उन्हें हटाने की अड़ी डाल दी है। आशय यह कि आरक्षण की पृष्ठभूमि से शिक्षा के व्यावसायीकरण को फोकस करती यह सामाजिक-राजनैतिक फिल्म अब थियेटर के बाहर अभिव्यक्ति की रचनात्मक स्वतंत्रता के दमन का पर्याय हो गईहै। सामाजिक सरोकार से जुड़े तमाम संजीदा संदेश पर्दे के पीछे अंधेरे में हैं। राजनैतिक निहितार्थ साफ तौर पर सामने हैं। फिल्म के विवादित संवादों को बीप और दृश्यों को संपादित करने के बाद भी विरोध के तेवर अंतत: इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं कि आरक्षण की आड़ में सियासत सिर्फ अपनी रोटियां सेंक रही है। मध्यप्रदेश समेत देश के दीगर राज्यों में आरक्षण की सुपरहिट कामयाबी इन आरोपों को और भी तल्ख करती है कि झगड़े की जड़ फिल्म की आरक्षण केंद्रित कथावस्तु और प्रस्तुति नहीं अपितु समाज के सियासी ठेकेदार ही हैं। जो अपने नफे-नुकसान के लिए न केवल सामाजिक समरसता में विष घोलते हैं बल्कि शांति व्यवस्था के खतरों का खौफ दिखाकर मनमानी भी करते हैं। आरक्षण के खिलाफ यूपी और पंजाब जैसे उत्तरभारत के जिन दो राज्यों ने सबसे ज्यादा सक्रियता दिखाई वहां अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। यूपी में दलितों की कथित हमदर्द मायावती की सरकार है। सोशल इंजीनियरिंग की दम पर एक मर्तबा फिर से सत्ता के सपने देख रहीं माया हरगिज नहीं चाहती कि ऐसे नाजुक मौके पर बोतलबंद आरक्षण का जिन्न बाहर आए। सच तो यह भी है कि केंद्रीय अनसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष पन्नालाल पुनिया को भी आरक्षण फिल्म से कोई खास लेना-देना नहीं है। पुनिया की परेशानी भी कुछ और ही है। सेवानिवृत्त आईएएस अफसर पीएल पुनिया कभी यूपी की बसपा सरकार में मुख्यमंत्री मायावती के सचिव हुआ करते थे। अब वह पाला बदल कर न केवल कांग्रेस के सांसद हैं अपितु माया से उनकी खांटी अदावत के चलते वह केंद्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष के रूप से सत्ता सुख भोग रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति मामलों में प्राय: माया सरकार को घेरने में माहिर पुनिया इससे पहले कि इसका सियासी लाभ लेने की कोशिश करते सतर्क मायावती सरकार ने आनन-फानन में आरक्षण पर उत्तरप्रदेश चल चित्र (विनियमन) 1955 की आड़ लेकर पुनिया को किनारे लगा दिया। आरक्षण फिल्म के खिलाफ पूरे देश में कमोबेश यही सियासी सच है।
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
फेसबुक पर फर्जी हाईप्रोफाइल
सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की फर्जी प्रोफाइल के मामले में एमपी पुलिस अभी किसी ठोस नतीजे पर पहुंची भी नहीं थी कि यू टय़ूब में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विवादास्पद वीडियो ने पुलिस की नींद उड़ा दी। सीएम के नाम पर प्रदेश में साइबर क्राइम का यह पहला मामला है। साइबर सेल के आईजी राजेंद्र कुमार कहते हैं,जांच जारी है,लेकिन सवाल यह है कि अंतत: अंजाम क्या होगा? सच तो यह है कि साइबर क्राइम के केस कोर्ट में साबित करना तो दूर अपराधी को ट्रेस कर पाना तक संभव नहीं है। साइबर क्राइम कितना सुरक्षित है, इस बात का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब पुलिस ने फेसबुक मुख्यालय से जानकारी चाही तो निजता भंग होने की कानून आड़े आ गया। हार कर पुलिस को इंटरपोल की मदद लेनी पड़ी और तब कहीं इंदौर के वो दो नाबालिग छात्र पकड़ में आए जिन्होंने ये शरारत की थी। सवाल यह भी है कि अगर यह सीएम से सीधे जुड़ा हाईप्रोफाइल मामला नहीं होता तो क्या फेसबुक के इस फर्जी प्रोफाइल मामले में मध्यप्रदेश पुलिस इंटरपोल तक जाती? कहने को तो साइबर सेल भी सक्रिय है लेकिन सच यह है कि राज्य के इंदौर,उज्जैन और रतलाम में साइबर क्राइम के खिलाफ मॉडल सिटी का प्रस्ताव फाइलों में ही फंस कर रह गया है। नेशनल साइबर सिक्योरिटी एलायंस इंडिया(एनसीएसए)ने देश के 6 राज्यों के 17 शहरों को इसके लिए चिन्हित किया था ,जहां साइबर अपराध के खिलाफ पुलिस को न केवल प्रशिक्षित किया जाना था बल्कि ऐसे अत्याधुनिक सॉफ्टवेयर भी उपलब्ध कराए जाने थे जो अपराधों का विश्लेषण कर सकें। आमतौर पर साइबर क्रिमिनल इतने सतर्क और दक्ष होते हैं कि पलक झपकते ही क्राइम के फुट-फ्रिंगर प्रिंट मिटा देते हैं ,जबकि इसके मुकाबले ना तो पुलिस में इतनी विशेषज्ञता है और नाही वह तकनीकी तौर पर मजबूत है। ऐसे में अपराधी कब-किसकी ऑनलाइन इज्जत उतार दें, कुछ कहा नहीं जा सकता है? यह अकेले मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे देश की विडंबना है। सिमेंटेक को आशंका है कि देश के लगभग 76 प्रतिशत इंटरनेट उपभोक्ता किसी न किसी रूप में साइबर क्राइम के शिकार हैं। यह अपराध सालाना 50 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है। तीन साल में 9 हजार भारतीय वेबसाइट हैक हो चुकी हैं। अमेरिकन की सुरक्षा एजेंसी एफबीआई का भी मानना है कि दुनिया में भारत साइबर क्राइम का पांचावा सबसे बड़े शिकार है। देश के लिए हैकिंग के खतरे कितने संवेदनशील हैं अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल दिसंबर में चीनी हैकर्स ने अति सुरक्षित माने जाने वाले पीएमओ कार्यालय के कंप्यूटर हैक कर लिए । देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, कैबिनेट सचिव, और प्रधानमंत्री के विशेष दूत के निजी कंप्यूटरों तक में सेंधमारी हुई। मई 2008 चीनी हैकरों ने विदेश मंत्रलय की वेबसाइट हैक कर ली थी। 1998 में देश में पाकिस्तान की ओर से पहला साइबर अटैक पोखरण में परमाणु परीक्षण के दौरान हुआ था जब हैकर्स ने भारतीय मीडिया की वेबसाइट्स हैक कर ली थी। 1999 में आर्मी की साइट के अलावा 2001 में संसद अटैक और 26/11 में मुंबई हमले के दौरान भी सरहद पार बैठे हैकर्स ने ऐसे ही हमले किए थे। नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज (नैसकॉम)और सीबीआई की साइबर सेल की साझा कोशिशों के बाद भी भारतीय डॉटा सुरक्षा परिषद (डीएससीआई)लाचार है। देश अपनी डॉटा प्रणाली तक सुरक्षित नहीं है। यहां गौर तलब तथ्य यह भी है कि बतौर इंटरनेट यूजर भारत पूरी दुनिया में चौथे नंबर पर है। ऑरकुट में विश्व में इसका दूसरा स्थान है। देश में सोशल नेटवर्किग साइट्स के 250 लाख यूजर हैं। दो साल पहले यही तादाद महज 30 लाख थी। 90 प्रतिशत यूजर 16 से 40 साल के हैं। विश्व के कुल14 करोड़ फेसबुक यूजर्स में से अकेले पौने 2 करोड़ भारतीय हैं। एक अनुमान के अनुसार दुनिया के कुल फेसबुक यूजर्स में से1 करोड़ फर्जी हैं। जालसाजों की यह जमात कब गुल खिला दे कुछ कहा नहीं जा सकता है?
बुधवार, 10 अगस्त 2011
कृषि कैबिनेट:नीति और नीयत
खेती को लाभ का सौदा बनाने को बेताब राज्यसरकार ने कृषि कैबिनेट को अंतत: हरी झंडी दे दी है। अब मध्यप्रदेश समूचे देश में ऐसा पहला राज्य होगा जहां ऐसे रचनात्मक नवाचार के तहत कृषि बजट के लिए पृथक से प्रावधान होगा। यह सच है कि असली अर्थो में कृषि मध्यप्रदेश के जीवन का आधार है। राज्य की तीन चौथाई से भी ज्यादा आबादी कृषि या फिर इससे जुड़े कारोबार पर ही निर्भर है, लेकिन यह भी असत्य नहीं कि राज्य में प्राकृतिक संसाधनों और कृषि क्षेत्र की तमाम संभावनाओं के बाद भी कभी इसका समुचित इस्तेमाल नहीं हुआ है, लेकिन बावजूद इसके अगर सरकारी दावों पर यकीन करें तो मौजूदा समय में प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पादन में कृषि का अंशदान 22.47 प्रतिशत है। ऐसे में तमाम प्राकृतिक विपदाओं के बीच राज्य की 7.53 फीसदी कृ षि विकास दर भी नई उम्मीदें जगाती है। यह उपलब्धि तब और भी अहम हो जाती है , जब राष्ट्रीय कृषि औसत विकास दर में सिर्फ .04 प्रतिशत वृद्धि ही दर्ज की गई हो। सरकार इसे किसी चमत्कार से कम नहीं मानती है। खुशफहमी का आलम तो यह है कि वह कृषि विकास के कथित ठोस आधारों की दम पर मध्यप्रदेश में कृषि विकास दर के कभी भी नकारात्मक नहीं होने का दावा भी करती है। विगत खेती सीजन में सामान्य से 35 प्रतिशत कम बारिश के बाद भी अप्रत्याशित विकास दर का नतीजा यह है कि केन्द्रीय योजना आयोग भी मध्यप्रदेश में दो गुना से भी अधिक वृद्धि को कृषि विकास की दृष्टि से फास्ट ट्रेक का दर्जा दे चुका है। अति उत्साहित सरकार अब कृषि विकास दर में 10 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रही है। सवाल यह है कि क्या किसानों को कृषि कैबिनेट की सौगात देने वाली सरकार वास्तव में खाद्यान्न उत्पादन को ही प्रोत्साहित करना चाह रही है। या फिर वह अपने बेहतर कृषि आधारों को सिर्फ खुले बाजार के लिए तैयार कर रही है? शक इस तथ्य पर भी स्वाभाविक है कि कृषि कैबिनेट की कवायद कहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लुभाने की महज ब्रांडिंग भर तो नहीं है? सरकारें जिस तरह से आर्थिक उदारवाद की नीतियों को नीतिगत रूप से स्वीकार कर चुकी है। ऐसे में यह आशंका नाहक नहीं कही जा सकती है। सरकारी तौर पर अब तक खाद्यान्न उत्पादन की बजाय सोयाबीन, जेट्रोपा और कपास जैसी नकदी फसलों के उत्पादन का प्रोत्साहन हो या फिर फल-सब्जियों की अनुबंधित खेती। ऐसी ही आशंकाओं की पुष्टि करते हैं। कृषि क्षेत्र के प्रति तेजी के साथ निजी कंपनियों का बढ़ता रूझान भी किसी से छिपा नहीं है। नई कृषि नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब बाजार की मांग के मुताबिक किसानों से फसलों का उत्पादन करा सकेंगी। मसलन-आलू सिर्फ सब्जी के लिए नहीं चिप्स के लिए भी पैदा किया जाएगा। इससे सरकार और बाजार को तो बहुत कुछ मिलेगा,लेकिन किसान को क्या मिलेगा? ऐसे में संभव है उसे एक ऐसा बाजारू वातावरण मिले जहां उसकी हैसियत उत्पादक नहीं अपितु उपभोक्ता जैसी ही हो। ऐसे में हमें यह भी सोचना होगा कि धन का बहाव बढ़ाने की कोशिश में कहीं हमारी खाद्य सुरक्षा किसी गंभीर संकट में न फंस जाए। वैश्विक आर्थिक मंदी के इस विकट दौर में घरेलू अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए बाजारीकरण से परहेज नहीं ,लेकिन इसकी भी सीमाएं होनी ही चाहिए। नीयत साफ होनी चाहिए।
मंगलवार, 9 अगस्त 2011
आरक्षण पर अब सियासी सेंसर
यदि आपके पास सिर्फ दो ही विकल्प हों तो आप क्या करेंगे? इलाज के लिए उच्चवर्ग के उस डॉक्टर के पास जाएंगे ,जिसने डोनेशन देकर मेडिकल में दाखिल लिया था या फिर ऐसे डॉक्टर के पास जिसने आरक्षित कोटे से मेडिकल की पढ़ाई पूरी की है? शायद दोनों के पास नहीं। तो फिर क्या आप बगैर इलाज के मर्ज से ही मर जाना चाहेंगे..असल में देश में आरक्षण की राजनीति ने इस नाजुक मसले को कुछ यूं ही अनुत्तरित कर दिया है । न्याय और नैतिकता का तकाजा तो यह है कि आरक्षण के सवाल पर शर्मसार करती सियासत के लिए चुल्लूभर पानी ही काफी है। बेशक,आरक्षण एक संवैधानिक सत्य है और प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इसका पालन एक कानूनी बाध्यता है,लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि आरक्षण के पैरोकार कभी यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करते कि इस संवैधानिक व्यवस्था के अब तक के नतीजे क्या रहे हैं? क्या वाजिबों को वाकई उनका हक मिल रहा है? या फिर आरक्षण की आड़ में अकेले क्रीमीलेयर ही मलाई मार रहे हैं? यह जाने बगैर कि सच क्या है,आरक्षण का नाम आते ही राजनीति के सामाजिक ठेकेदार उग्रता की हद तक आंदोलित हो जाते हैं। आज अगर आरक्षण का नाम ही आग का पर्याय है तो दोषी कौन है? प्रदर्शन को तैयार हिंदी फीचर फिल्म आरक्षण को लेकर कमोबेश पूरे उत्तर भारत में उठे बवाल के पीछे आखिर कौन लोग हैं? मध्यभारत के इसी भोपाल शहर में बनी इस मुंबइया फिल्म का मध्यप्रदेश में भले ही बेसब्री से इंतजार चल रहा हो मगर, अगर यूपी में पिछड़ों के पैरोकार विरोध कर रहे हैं ,तो राजस्थान में अगड़े भी पीछे नहीं हैं। मुंबई हाईकोर्ट में मामला विचाराधीन है तो बिहार में अभिनय सम्राट अमिताभ बच्चन के खिलाफ मुकदमा कायम हो चुका है। और तो और बगैर फिल्म दिखाए प्रदर्शन की अनुमति देने पर राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड(सीबीएफसी) की अध्यक्ष लीला सेमसन पर लालपीले हो रहे हैं। सब जानते हैं कि सेंसर बोर्ड भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय के अधीन एक ऐसा विनियामक आयोग है, जो भारत में फिल्मों, टीवी धारावाहिकों,टीवी विज्ञापनों और विभिन्न प्रसारण सामाग्री की समीक्षा कर अतिवाद को नियंत्रित करता है। आमतौर पर चार सदस्यीय सेंसर बोर्ड किसी भी फिल्म को हरी झंडी देने के लिए काफी होता है लेकिन आरक्षण का 9 सदस्य इंतजार कर रहे थे। जिसमें आरक्षण से लाभान्वित समुदाय विशेष के प्रतिनिधि, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक पूर्व जज भी शामिल थे। सेंसर बोर्ड ने बगैर कैंची चलाए फिल्म जाने दी हंगामा शुरू हो गया। विरोध के आधार क्या हैं? किसी को कुछ भी नहीं मालूम। अकेले प्रोमो झगड़े की जड़ है। इसमें शक नहीं कि उत्तेजक प्रोमो का उदे्श्य बॉक्स ऑफिस में फिल्म को सुपर हिट करना है। जहां तक सवाल आरक्षण के निर्देशक प्रकाश झा का है तो उनकी फिल्मों से विवाद का गहरा नाता रहा है। दामुल,मृत्युदंड,गंगाजल,राजनीति और अब आरक्षण उनकी फिल्मों की कथा वस्तु ही कुछ ऐसी होती है जो राजनीतिक-सामाजिक सच को कुरेदने के कारण प्रदर्शन से पहले तूफान जरूर लाती है। आरक्षण को लेकर उठी आग के पीछे अगर फिल्म प्रोमटरों की मार्केटिंग को भी देखें तो 90 के दशक में वीपी सिंह सरकार के पतन का कारण रहा यह वही आरक्षण है जिसके सियासीकरण ने उसे सरेबाजार नीलाम कर दिया है।
ग्रामीण बाजार प्रबंधन में पंचायतों की भूमिका
असली भारत गांवों में रहता है। कृषि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है,लेकिन अन्नदाता किसान की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। गांवों के परंपरागत कुटीर उद्योगों के खात्मे के बाद गांवों की हाट बाजार व्यवस्था भी लगभग टूट चुकी है। किसान (उत्पादक)और उपभोक्ता के बीच बिचौलियों(दलालों)का एक बड़ा नेटवर्क सक्रि य है ,जो मात्र माध्यम होने के कारण मनमानी मुनाफा कमाता है। जबकि किसानों का वाजिब मूल्य तो दूर प्राय: लागत मूल्य तक नहीं मिल पाता है। दलालों के कारण वस्तु का दाम बढ़ने से इसका असर उपभोक्ता पर पड़ता है। जिसका लाभ सीधे बड़े व्यापारियों को मिलता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि आत्म निर्भर ग्रामीण बाजार
के अभाव के कारण जहां असली उत्पादक किसान भुखमरी का शिकार है। वहीं उपभोक्ता को सस्ती वस्तुओं के मनमानी दाम चुकाने पड़ रहे हैं और लाभ बड़े व्यापारी और दलाल कमा रहे हैं। आत्मनिर्भर ग्रामीण बाजार नहीं होने के कारण भ्रष्ट सरकारी तंत्र भी किसानों और ग्रामीण व्यापारियों का आर्थिक और मानसिक शोषण करता है।
1-हाट-बाजार :
ग्रामीण भारत की हाट की प्राचीन बाजार व्यवस्था की फिर से स्थापना ही एक मात्र रास्ता है। ताकि उत्पादक अपनी वस्तु को सीधे उपभोक्ता तक ले जाए। इससे उपभोक्ता को जहां वाजिब दाम पर वस्तु मिलेगी वहीं उत्पादक को भी उसका उचित दाम मिल सकेगा। वस्तु की गुणवत्ता की गारंटी भी सुनिश्चित हो जाएगी। निकटतम शहरों के साप्ताहिक बाजारों में पहुंच को और भी आसान किए जाने के उपाय भी इस मामले में अत्यंत लाभकारी साबित हो सकते हैं।
2- पंचायतीराज व्यवस्था:
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था वास्तव में ग्रामीण बाजार के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। गांवो का विकास मूलत: पंचायतीराज व्यवस्था पर ही निर्भर है। लेकिन सत्ता के विकेंद्रीकरण की यह व्यवस्था अभी सिर्फ ग्रामीण विकास के आधारभूत ढांचे को विकसित करने पर ही केंद्रित है। महात्मागांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)की तर्ज पर पंचायतीराज व्यवस्था के तहत ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन को प्राथमिकता में लेकर हमारी केंद्र और राज्य सरकारें देश में जमीनी स्तर पर आर्थिक सुधारीकरण का मॉडल पेश कर सकती हैं।
3-जनभागीदारी और सरकारी सहयोग:
इसमें ज्यादा से ज्यादा जनभागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारें समाजसेवी संगठनों और आमजन का सहयोग ले सकती हैं। इसके लिए कानून बना कर सरकार ग्राम पंचायत स्तर पर एक ऐसी एकल खिड़की खोल सकती है, जिसमें पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,कृषि,कृषि विस्तार,उद्योग,वाणिज्य एवं व्यापार विभाग और पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग जैसे संबंधित विभागों को एक छत के नीचे लाकर ग्रामीण बाजार प्रबंधन को फलीभूत किया जा सकता है।
4-कार्ययोजना:
ग्रामीण बाजार प्रबंधन में पंचायती राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसमें ग्रामीणों किसानों,गरीबों खासकर अनुसूचित जाति,अनुसूचित जन जाति, पिछड़ा वर्ग और महिलाओं की आत्म निर्भरता के लिए भी पृथक से कार्ययोजनाएं बनाई जा सकती हैं। प्रबंधन की प्रक्रिया को भी विस्तार से रेखांकित किया जा सकता है।
5- संदर्भ:
ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन में पंचायती राज की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग,कृषि एवं विस्तार विभाग और वाणिज्य एवं व्यापार विभाग की विभिन्न कल्याणकारी विकास योजनाओं का भी अनुभवों को भी संदर्भ के रूप में देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ)के क्रियाकलापों का भी समग्र रूप से अध्ययन किया जा सकता है।
6- निष्कर्ष :
निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था के केंद्र ग्रामीण भारत में बाजार व्यवस्था का प्रबंधन और विकास वक्त की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह गरीबी निर्मूलन में भी अहम रोल अदा कर सकती है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि पंचायतीराज व्यवस्था इसके लिए अत्यंत आसान और कारगर मददगार साबित हो सकती है।
के अभाव के कारण जहां असली उत्पादक किसान भुखमरी का शिकार है। वहीं उपभोक्ता को सस्ती वस्तुओं के मनमानी दाम चुकाने पड़ रहे हैं और लाभ बड़े व्यापारी और दलाल कमा रहे हैं। आत्मनिर्भर ग्रामीण बाजार नहीं होने के कारण भ्रष्ट सरकारी तंत्र भी किसानों और ग्रामीण व्यापारियों का आर्थिक और मानसिक शोषण करता है।
1-हाट-बाजार :
ग्रामीण भारत की हाट की प्राचीन बाजार व्यवस्था की फिर से स्थापना ही एक मात्र रास्ता है। ताकि उत्पादक अपनी वस्तु को सीधे उपभोक्ता तक ले जाए। इससे उपभोक्ता को जहां वाजिब दाम पर वस्तु मिलेगी वहीं उत्पादक को भी उसका उचित दाम मिल सकेगा। वस्तु की गुणवत्ता की गारंटी भी सुनिश्चित हो जाएगी। निकटतम शहरों के साप्ताहिक बाजारों में पहुंच को और भी आसान किए जाने के उपाय भी इस मामले में अत्यंत लाभकारी साबित हो सकते हैं।
2- पंचायतीराज व्यवस्था:
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था वास्तव में ग्रामीण बाजार के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। गांवो का विकास मूलत: पंचायतीराज व्यवस्था पर ही निर्भर है। लेकिन सत्ता के विकेंद्रीकरण की यह व्यवस्था अभी सिर्फ ग्रामीण विकास के आधारभूत ढांचे को विकसित करने पर ही केंद्रित है। महात्मागांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)की तर्ज पर पंचायतीराज व्यवस्था के तहत ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन को प्राथमिकता में लेकर हमारी केंद्र और राज्य सरकारें देश में जमीनी स्तर पर आर्थिक सुधारीकरण का मॉडल पेश कर सकती हैं।
3-जनभागीदारी और सरकारी सहयोग:
इसमें ज्यादा से ज्यादा जनभागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारें समाजसेवी संगठनों और आमजन का सहयोग ले सकती हैं। इसके लिए कानून बना कर सरकार ग्राम पंचायत स्तर पर एक ऐसी एकल खिड़की खोल सकती है, जिसमें पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,कृषि,कृषि विस्तार,उद्योग,वाणिज्य एवं व्यापार विभाग और पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग जैसे संबंधित विभागों को एक छत के नीचे लाकर ग्रामीण बाजार प्रबंधन को फलीभूत किया जा सकता है।
4-कार्ययोजना:
ग्रामीण बाजार प्रबंधन में पंचायती राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसमें ग्रामीणों किसानों,गरीबों खासकर अनुसूचित जाति,अनुसूचित जन जाति, पिछड़ा वर्ग और महिलाओं की आत्म निर्भरता के लिए भी पृथक से कार्ययोजनाएं बनाई जा सकती हैं। प्रबंधन की प्रक्रिया को भी विस्तार से रेखांकित किया जा सकता है।
5- संदर्भ:
ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन में पंचायती राज की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग,कृषि एवं विस्तार विभाग और वाणिज्य एवं व्यापार विभाग की विभिन्न कल्याणकारी विकास योजनाओं का भी अनुभवों को भी संदर्भ के रूप में देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ)के क्रियाकलापों का भी समग्र रूप से अध्ययन किया जा सकता है।
6- निष्कर्ष :
निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था के केंद्र ग्रामीण भारत में बाजार व्यवस्था का प्रबंधन और विकास वक्त की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह गरीबी निर्मूलन में भी अहम रोल अदा कर सकती है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि पंचायतीराज व्यवस्था इसके लिए अत्यंत आसान और कारगर मददगार साबित हो सकती है।
सभ्य संसदीय आचरण का संकट
15 वीं लोकसभा के आठवें सत्र का दूसरा दिन भी अंतत: हंगामे की भेंट चढ़ गया। सब जानते हैं कि संसद का यह सत्र देश में व्यापक जनहित के लिए कितना महत्वपूर्ण है। देश महंगाई,भ्रष्टाचार, आतंकवाद,और अांतरिक सुरक्षा जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है । संसद पर भी निरंतर काम का बोझ बढ़ रहा है। 83 विधेयक पहले से प्रस्तावित हैं। 35 नए विधेयक कतार में हैं। लेकिन सियासी खेमे सिर्फ स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और शक्तिसंपन्न साबित करने पर तुले हुए हैं। सत्ता हो या विपक्ष सवाल यह है कि आखिर सभ्य संसदीय आचरण क्या है? संसद का शांतिपूर्ण संचालन या फिर यूं ही आरोप-प्रत्यारोप और हंगामा। संसद के मानसून सत्र से पूर्व लोक सभाध्यक्ष अध्यक्ष द्वारा सर्वदलीय बैठक के आयोजन की संवैधानिक परंपरा का अर्थ ही यही है कि विधायी कार्य प्रभावित नहीं होने पाएं लेकिन इस कयावद के फौरन बाद बजरिए बयानबाजी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस तरह से एलान-ए-जंग कर दिया उससे साफ जाहिर है कि सरकार स्वयं सदन के शांतिपूर्ण संचालन के प्रति गंभीर नहीं है। इससे पहले संसद का शीतकालीन सत्र जिस टेलीकॉम घोटाले की भेंट चढ़ गया था आज वही स्कैंप अब और भी ताकतवर हो गया है। अब तो स्वयं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी आरोपों की आंच से जल रहे हैं। संसद के विधायी कार्यो को बाधित होने से बचाना वस्तुत: सरकार की जिम्मेदारी होती है और सरकार इस दायित्व का निर्वाह सिर्फ तभी कर सकती है जब वह विपक्ष के मुद्दों को नजरअंदाज न करे मगर विडंबना यह है कि विपक्ष का ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है सरकार जिसका आंखों से आंखे मिलाकर मुकाबला कर सके। कालाधन समेत जनहित से जुड़े तमाम अहम मामलों में सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रूख, कमजोर जनलोकपाल पर अण्णा हजारे की अड़ी, तीन अति चर्चित घोटालों पर कैग की रिपोर्ट और यूपीए के आगे एकजुट विपक्ष के साथ थोड़ा कम भ्रष्ट एनडीए के मोर्चाबंदी से केंद्र सरकार बैकफुट पर है। मतदान नियम के जरिए सदन में चर्चा से बच रही सरकार यह भी जानती है कि उसके पास सच कहने के लिए कुछ भी नहीं है। भाजपा किसी भी हालत में मैनेज होने को तैयार नहीं लगती है। अंदरखाने का सच तो यह है कि संसद के अंदर कांग्रेस के नेतृत्ववाली गठबंधन सरकार सरकार में से सिर्फ कांग्रेस ही बची है। यूपीए के दीगर सहयोगी दल उसके साथ खड़े नजर नहीं आते हैं। ममता बैनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस और तृणमूल में जिस तरह से फासले बढ़े हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं। तृणमूल ने पश्चिमी बंगाल के लिए विशेष पैकेज की मांग को लेकर केंद्र पर दबाव बनाने का फरमान जारी कर जहां कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं,वहीं कनिमोझी की रिहाई पर ही डीएमके भी कांग्रेस से दिल मिलने की शर्त रख चुकी है। एक और अहम सहयोगी दल एनसीपी के मौकापरस्त शरद पवार कब,क्या गुल खिला दें कुछ कहा नहीं जा सकता है? ऐसे मौकों पर कांग्रेस की संकट मोचक सपा-बसपा भी यूपी में आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्ेनजर कांग्रेस से दूरी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझ रही हैं। सच तो यह है कि सत्ता में सहयोगी तीन सांसदों के जेल जाने और तेलंगाना मसले पर कांग्रेस के एक दर्जन सांसदों के इस्तीफे के बाद भी यूपीए सरकार सिर्फ संख्या बल की दम पर जीवित है। वह अपना नैतिक बल खो चुकी है। लोकपाल के सवाल पर सर्वदलीय एकजुटता भले ही हो लेकिन महिला आरक्षण एक ऐसा मसला है जो विपक्ष की एकजुटता को बिखेर सकता है लेकिन सरकार जानती है कि सिर्फ इतना काफी नहीं है। शायद शोर-शराबा और संसदीय कार्य में बाधा ही टाइम पास का सबसे अच्छा रास्ता है।
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Rohit Mishra
कर्नाटक से कुछ तो सीखो
16 हजार 85 करोड़ के खनन घोटाले पर लोकायुक्त द्वारा राज्यपाल से मुख्यमंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिश के बाद बीएस येदियुरप्पा कर्नाटक की कुर्सी में बने रहने का अधिकार खो चुके थे। ऐसे में भाजपा के पास भी उनसे इस्तीफा लेकर लीडरशिप बदलने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं था,लेकिन राजनीति की तासीर ही कुछ इतनी बेशर्म है कि येदियुरप्पा दादागिरी दिखाना नहीं भूले। अब वह लोकायुक्त की रिपोर्ट को कानूनी चुनौती देने की तैयारी में हैं। देश के लिए यह पहला मौका है, जब लोकायुक्त ने किसी राज्य के मुख्यमंत्री को सीधे भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया है। संभवत: देश में अकेले कर्नाटक ही इकलौता ऐसा राज्य होगा जहां लोकायुक्त नख-दंत विहीन कागजी शेर नहीं है। लोकायुक्त संतोष हेगड़े की 26 हजार पन्नों की रिपोर्ट बताती है कि अकेले मुख्यमंत्री ही नहीं 4 मंत्रियों के साथ तकरीबन 6 सौ से भी ज्यादा अधिकारियों के ताकतवर नेटवर्क ने 3 साल के अंदर किस तरह से करोड़ों की संपदा लूटी। किस तरह से सौ से अधिक कंपनियां देश की बहुमूल्य संपदा को चोरी-छिपे सीधे चीन पहुंचा रही थीं। 4 लाख फाइलों और 50 लाख प्रविष्टियों की जांच से तैयार यह रिपोर्ट इस तथ्य का भी खुलासा करती है कि सियासी हमाम में आखिर सब कैसे नंगे होते हैं? क्या भाजपा और क्या कांग्रेस? खनन घोटाले में भाजपा के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को 30 करोड़ का लाभ पहुंचाने वाली साउथ वेस्ट माइनिंग कंपनी कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल के भाई सज्जन जिंदल की है और जिंदल परिवार के साथ कांग्रेस की यारी किसी से छिपी नहीं है। सज्जन के पिता ओपी जिंदल हरियाणा में कांग्रेस के मंत्री हुआ करते थे और मां सवित्री मौजूदा समय में भी हरियाणा सरकार में मंत्री हैं। येदियुरप्पा के इस्तीफे और उनके उत्तराधिकारी की तलाश की कवायद के बाद यह मानना जल्दबाजी ही होगी कि कर्नाटक का संकट अब समाप्त हो चुका है। असल में दक्षिण भारत में भाजपा की पहली और इस इकलौती सरकार के सामने अब असली संकट मुख्यमंत्री की एक अदद कुर्सी के लिए सामने आए आधा दर्जन से भी ज्यादा दावेदारों में से किसी एक को चुनने का है। सवाल यह है कि भाजपा के लिए कर्नाटक महत्वपूर्ण है या येदियुरप्पा का राजनीतिक वजूद? बेशक,कर्नाटक में भाजपा की सत्ता पार्टी के लिए नए युग की शुरूआत थी और इसमें भी शक नहीं कि भाजपा के लिए दक्षिण भारत में मार्ग प्रशस्त करने वाले कोई और नहीं यही येदियुरप्पा ही थे। शायद यही वजह है कि पार्टी हाईकमान नए मुख्यमंत्री के चयन के मामले में मुख्यमंत्री कम और येदियुरप्पा का उत्तराधिकारी चुनने की रणनीति पर ज्यादा काम कर रही है। वैसे इस मामले में मूल पेंच भाजपा हाईकमान के भीतर ही है। पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी येदियुरप्पा से जबरन इस्तीफा लेने के पक्ष में नहीं थे वह स्वयं येदियुरप्पा के इस्तीफा देने के पक्ष में थे लेकिन पार्टी बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज ने इसे नाक का सवाल बना लिया। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के करीबी माने जाने वाले आडवाणी असल में येद्दी की जगह अनंत कुमार की ताजपोशी भी चाहते हैं। लेकिन येदियुरप्पा अब ऐसा होने देंगे। आसार नहीं हैं। बेशक,कर्नाटक में भाजपा की अपनी मजबूरियां हैं। विधानसभा में उसका बहुमत मामूली है। येदियुरप्पा बगावत करते तो सत्ता हाथ से जाती। कर्नाटक में दो साल बाद चुनाव हैं। सिर पर मानसून सत्र सवार है लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार पर मानसून सत्र में कांग्रेस पर दबाव बनाने की खुशफहमी पाल कर बैठी भाजपा की कर्नाटक के संकट ने हवा निकाल दी है।
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स्टॅलवॉक : यही पैगाम हमारा..
टोरंटों से सीधे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल और फिर देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंचा स्टॅलवॉक अब देश के दूसरे बड़े शहरों की ओर रूख करने की तैयारी में है। ऐसी में इसके औचित्य पर बहस का छिड़ना भी लाजिमी है, लेकिन महिलाओं की इस मोर्चाबंदी पर बहस के केंद्र से बुनियाद मुद्दे गायब हैं। सवाल अकेले मॉड,मिनी और माइक्रो ड्रेस पर आकर टिक गए हैं। यानि यौन हमलों के लिए उत्तेजक पोषाक आखिर कितनी जिम्मेदार है? स्टॅलवॉक के समर्थकों और विरोधियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले में एक पक्ष अपने तमाम तर्को से जहां खुले लिबास को दोषी ठहरा रहा है, वहीं दूसरा पक्ष खुले लिबास के मुकाबले इसके लिए तंग सामाजिक नजरिए को दोषी मान रहा है। सच तो यह भी है कि बेशर्मी मोर्चा रातोंरात यूं ही मशहूर नहीं हो गया है। इसकी पहचान के केंद्र में वही दृष्टिदोष है जिसने नारीवादियों के वास्तविक संदेश को नेपथ्य में डालकर यह उत्सुकता जगा दी कि आखिर भारतीय महिलाओं का अश्लील प्र्दशन कैसा होगा? टोरंटों,लंदन और अमेरिका में स्टॅलवॉक के नग्न प्र्दशनों से पैदा हुई जिज्ञासा तब हवा हो गई जब बेशर्मी मोर्चे की शक्ल में पहले एशियाई शहर भोपाल पहुंचे स्टॅलवॉक मे शामिल आधा सैकड़ा से भी ज्यादा समर्थक उत्तेजक नहीं अपितु आकर्षक परिधानों में सड़क पर आए। अंग प्रदर्शन की आस लगाकर बैठे मीडिया को ऐसा ही झटका राजधानी दिल्ली में भी लगा। वस्तुत: वस्तुस्थिति तो यह भी है कि शुरूआती दौर में बेशर्मी मोर्चे के आयोजक स्वयं अपने सामाजिक सरोकार का साफतौर पर सामने रखने में नाकाम रहे लिहाजा सवाल ऐसे उठे कि आयोजकों को बार-बार सफाई देनी पड़ी और आलोचकों को मुह बिचकाने का मौका मिला। सच पीछे ही रह गया और यौनिक हमलों के लिए माइक्रो ड्रेस फोकस पर हो गई। यह एक वजह हो भी सकती है और नहीं भी लेकिन औरत की अस्मिता से जुड़े इस गंभीर विषय को समग्र रूप से देखने की जरूरत है। पूरा देश हो या देश का दिल मध्यप्रदेश महिलाओं की हालत ठीक नहीं है। महिलाओं के मामले में भारत देश का चौथा सबसे खतरनाक देश है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्ड वूमेन के मुताबिक 30 फीसदी महिलाएं अपने ही जीवन साथी के हाथों शारीरिक और मानसिक हिंसा की शिकार हैं । 10 प्रतिशत महिलाएं तो ऐसी हैं जो गंभीर किस्म की यौन प्रताड़ना का दर्द भुगत रही हैं। सीबीआई की एक आंशका के अनुसार देश में सालाना 30 लाख लड़कियों की वैश्यावृत्ति के लिए तस्करी होती है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है कि 5साल के अंदर देश में वैश्याओं की तादाद बढ़ कर दो गुनी हो गई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक बलात्कार की वारदातों में मध्यप्रदेश देश में सबसे आगे है। देश में होने वाली इस किस्म की वारदातों में अकेले 16 प्रतिशत हिस्सेदारी मध्यप्रदेश की होती है। ऐसे में यहां बेशर्मी मोर्चे जैसे अभियानों को जमीन मिलना भी स्वाभाविक भी है। महिलाओं के हक और सम्मान के खिलाफ जंग के इस एलान में केंद्र में क्या होना चाहिए। पितृसत्तात्मक बहुरूपिया समाज सत्य है जहां शर्म तो स्त्रियों का आभूषण है लेकिन बेशर्मी भी पुरूषों का स्थाई चारित्र। महिला हिंसा । भेदभाव। घरेलू हिंसा। कामकाजी महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और उत्पीड़न।देहज प्रताड़ना और दहेज हत्या। शारीरिक यातना के अलावा ऐसी मानसिक मार जिसके जख्म जिस्म पर तो नहीं दिखते लेकिन कलेजे पर जाकर पैबस्त हो जाते हैं। ऐसी मार जो सीधे मर्म पर मार करती है। जिसका कोई कानूनी दावा । सजा और हर्जाने की शक्ल में भरपाई नहीं है। घुट-घुट कर जीने की लाचारी है। यह कम सुखद नहीं कि एक एक अच्छी शुरूआत है प्रारूप भारतीय संस्कृति और संदर्भो पर ही केंद्रित रहना चाहिए। कोशिश यह भी होनी चाहिए कि यह अभियान अकेले एलीट वर्ग की आवाज बन कर न रह जाए। देश को भोपाल का यही संदेश है।
मगर,नहीं मानेगी महंगाई
कोई कितने ही जतन क्यों न कर ले महंगाई हार मानने वाली नहीं है। महंगाई नियंत्रण पर भारतीय रिजर्व बैंक के कठोर मौद्रिक उपाय हों या फिर सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता। पूरी दुनिया में हावी खराब आर्थिक हालात और आने वाले दिन भी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। जाहिर है,इसके असर से भला भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था अछूती कैसे रह सकती है? ऐसे में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का यह पूर्वानुमान हरगिज गले नहीं उतरता कि साल के अंत तक अंतत: महंगाई काबू में आ जाएगी। देश के ताजा आर्थिक हालात पर यह रिपोर्ट तब आई है,जब आम आदमी की जान पर बन आई महंगाई के सवाल पर संसद के मानसून सत्र में शोलों की बरसात हो रही है। पेट्रोल की तरह रसोई गैस, डीजल और केरोसिन को भी नियंत्रण मुक्त कर एक मर्तबा फिर से दाम बढ़ाने की कोशिशों में जुटी केंद्र सरकार के आर्थिक सलाहकार अगर 4 माह के अंदर महंगाई दर गिराकर 6.5 कर लेने का दावा करते हैं तो वह सिर्फ भ्रम के आंकड़े परोस रहे हैं। सच तो यह है कि बेदम आर्थिक नीतियों के चलते बेलगाम हुई महंगाई को काबू में लाने के लिए सरकार और आरबीआई को अब न तो कोई उपाय सूझ रहा है और न ही उसके आर्थिक सलाहकारों को ही कुछ समझ में आ रहा है। ऐसे में इतना साफ है कि कठोर मौद्रिक उपाय जारी रहने से ऊंची ब्याज दरों को यूं ही भुगतना होगा और आम उपभोग की जरूरी खाद्य वस्तुओं के लिए आगे अभी और भी ज्यादा कीमतें चुकानी होंगी। संभव है मानसून सत्र से फुर्सत होते ही सरकार रसोई गैस, डीजल और केरोसिन को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला लेकर मूल्य निर्धारण बाजार के हवाले कर दे। यदि ऐसा हुआ तो देश की एक बड़ी आबादी के सामने दो जून की रोटी का एक बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। वैश्विक स्तर पर यह एक सिर्फ सरकारी खुशफहमी हो सकती है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में अभूतपूर्व आर्थिक तंगी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की 8.2 फीसदी की रफ्तार बेहतर है। असल में इस कागजी आंकड़े का आमआदमी की मुश्किलों से कोई वास्ता नहीं है। यहां एक सत्य यह भी है कि सस्ते पेट्रो पदार्थो की सहज उपलब्धता के मामले में हम एक खामोश खतरे की ओर तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। आज नहीं तो कल अमेरिकी दबाव के चलते भारत के साथ ईरान के तेल सौदे का दुखांत तय है। सऊदी अरब के बाद ईरान ऐसा दूसरा बड़ा देश है, जो भारत को कच्चे तेल की कुल जरूरत का 12 प्रतिशत आयात करता है। लेकिन अमेरिकी इशारे पर भारत ने ईरान के खिलाफ न केवल आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए हैं बल्कि 7 माह से तेल खरीदी के मद में5 अरब डॉलर का भुगतान भी प्रतिबंधित कर दिया है। ईरान के खिलाफ भारत असल में अमेरिका के साथ इतना आगे बढ़ चुका है, जहां से ईरान की ओर लौटने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। अमेरिका के प्रति भारत का यह पिछलग्गूपन आज नहीं तो कल भारत में गंभीर पेट्रो संकट का खामोश खतरा है। क्योंकि तब कच्चे तेल पर भारत की पूरी निर्भरता अरब देशों पर स्थिर हो जाएगी। आर्थिक मोर्चे पर भारत की यह कूटनीतिक विफलता बहुत मंहगी पड़नेवाली है।
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मां होने का मतलब..
दुनिया इन दिनों विश्व शिशु स्तनपान सप्ताह मना रही है। मध्यप्रदेश में भी सरकारी तौर पर इसका शोरशराबा है। सवाल यह है कि ऐसे सरकारी और कागजी आयोजनों की जमीनी हकीकत क्या है? सिवाय इसके कि सात दिन बैनर-पर्चे,पोस्टर और बहुत हुआ तो होर्डिग या फिर इक्का-दुक्का विचार गोष्ठियों की रस्म अदायगी के साथ बात जैसे कैलेंडर में एक तारीख की तरह आई थी वैसे ही चली जाएगी। जनजागृति और जनभागीदारी की बड़ी-बड़ी बातों के बीच ऐसी फिजूलखर्चीऔर इसी बहाने बजट के बंदरबाट से बेहतर यह नहीं कि समस्या की जड़ में जाकर समाधान को समझा जाए। सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश में महिला स्वास्थ्य सुधार एक बड़ी चुनौती है। स्वस्थ्य जननी से ही स्वस्थ्य संतान की उम्मीद की जा सकती है,लेकिन उम्मीद के एकदम विपरीत हकीकत हिला देती है। राज्य में 56 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। मां तो मां प्रदेश के 74.1प्रतिशत बच्चे भी एनमिक हैं। इनमें से लगभग 60 फीसदी से भी ज्यादा बच्चे तो गंभीर रूप से कुपोषित हैं। प्रति लाख पर मातृमत्यु दर का औसत अगर 379 है, तो शिशु मृत्युदर का यही औसत अनुमान 97 के इर्द-गिर्द बैठता है। सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलीजेंस की मानें तो मध्यप्रदेश में रोज 371नवजात और 35 प्रसूताओं की मौत होती है। इस मामले में चालू साल के लिए राज्य सरकार ने प्रतिलाख पर मातृमत्यु दर घटाकर 220 और शिशुमृत्यु दर गिराकर 62 किए जाने का लक्ष्य रखा था। ऐसे जादुई आंकड़े का लक्ष्य कैसे मुमकिन है यह तो राज्य शासन के स्वास्थ्य सलाहकार ही बता पाएंगे, लेकिन निर्धारित लक्ष्यावधि के सिर्फ 4 ही महीने बचे हैं। अलबत्ता, 82 प्रतिशत संस्थागत प्रसव के सरकारी दावे के बीच महज15 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के एक घंटे बाद मां का दूध नसीब हो पाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि किसी भी नवजात के लिए प्रसूता मां का पहले एक घंटे का दूध सचमुच अमृत के समान होता है। कुदरती तौर पर ऐसा दुग्धपान बच्चे में ताउम्र स्वस्थ्य जीवन की बुनियाद रखता है, लेकिन आखिर ऐसा संभव क्यों नहीं है? अध्ययन बताते हैं कि प्रदेश की प्रसूताओं में खून की कमी एक कॉमन डिजीज सी हो गई है। जच्चा-बच्चा के लिए जानलेवा यह चुनौती उन तमाम कारणों में से एक है ,जो सीजेरियन डिलेवरी के लिए मजबूर कर देती है। पैसे के लिए सामान्य प्रसव का ऑपरेशन या फिर प्रसव पूर्व इलाज की आड़ में सामान्य प्रसव को सीजेरियन के लिए मजबूर कर देने के चिकित्सकों के गोरखधंधे के अलावा प्रसूताओं के लिए खानपान से जुड़ी तमाम भ्रांतियों का नतीजा यह है कि सामान्य प्रसव अब गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। अध्ययन यह भी बताता है कि सीजेरियन डिलेवरी से जन्में शिशु को एक घंटे के अंदर दुग्धपान संभव नहीं है। जन्म के बाद सबसे पहले नवजात को पुराने कपड़े पहनाने,शहद चटाने और प्रसूता को दो-चार दिन तक संतुलित आहार से दूर रखने जैसे सामाजिक रीति- रिवाज भी समझ से परे हैं। विडंबना तो यह है कि बगैर किसी वैज्ञानिक और चिकित्सकीय आधार के ऐसी परंपरागत मान्यताओं को प्रदेश में एक बड़ा जनाधार है। आशय यह कि स्वास्थ्य सेवाओं के परिवार कल्याण कार्यक्रमों से जुड़े सरकारी तंत्र और सामाजिक क्षेत्र को जमीनी स्तर पर सक्रिय इन तमाम समस्याओं के समाधान पर फोकस होना चाहिए।
प्रदेश सरकार का परदेशी मोह
मध्यप्रदेश के आम बजट का प्रारूप अंतरराष्ट्रीय वित्त सलाहकार संस्था प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स(पीडब्ल्यूसी)से बनवाने के राज्य शासन के फैसले पर अर्थशास्त्रियों की आपत्ति वाजिब लगती है। यह सरकारी फैसला तब और गंभीर हो जाता है, जब राजकीय अर्थव्यवस्था से जुड़े नाजुक मामले में नीतियों के निर्धारण का जिम्मा पीडब्ल्यूसी जैसी ऐसी विदेशी संस्था को सौंपे जाने की बात चलती है,जिस पर हैदराबाद के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक जैसी गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के चलते भारतीय रिजर्व बैंक ने पहले से ही उस पर पाबंदी लगा रखी हो। प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स की लेखा परीक्षा सेवाएं लेने पर प्रतिबंध का यह कोई इकलौता मामला नहीं है। सवाल यह है कि क्या मध्यप्रदेश सरकार के वित्तीय सलाहकार इतना भी नहीं जानते कि सूचना प्रौद्यागिकी के क्षेत्र में अब तक भारत की चार बड़ी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनियों में शुमार रही सत्यम कंप्यूटर कंपनी के बहुचर्चित 8 हजार करोड़ के घोटाले में पीडब्ल्यूसी की भूमिका किस कदर संदिग्ध रही है? सत्यम कंपनी के खातों में हेराफेरी की सहभागीदारी रही पीडब्ल्यूसी वही अंतरराष्ट्रीय वित्त सलाहकार संस्था है, जिसके खिलाफ मुंबई की स्माल इन्वेस्टर ग्रीवांसेज एसोसिएशन ने शेयर मार्केट की नियामक संस्था सेवी से स्थाई प्रतिबंध की मांग की थी। केतन पारेख शेयर मामले और डीएसक्यू सॉफ्टवेयर घोटाले को लेकर पीडब्ल्यूसी के खिलाफ इसकी भारत में स्थित परसंपत्तियां जप्त करने की मांग जब-तब उठती रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक हो चुकी यह कंपनी अब पूरी दुनिया में बदनामी की ओर है। दो साल पहले ही ब्रिटेन में व्यवसाय को वियनियमित करने वाली संस्था लेखा एवं बीमांकिक अनुशासन बोर्ड पशुधन लेखांकन में अनियमितिता पर इसके सब प्राइम लेंडरों के खिलाफ जांच बैठा चुकी है। जापान स्थित इसकी सहयोगी कंपनी छाओओयामा पर भी पहले से ही ऐसी ही पाबंदी है। यूं तो दुनिया की सबसे बड़ी प्रोफेशनल कंपनियों में शुमार पीडब्ल्यूसी विश्व की चार बड़ी लेखा फर्मो में भी एक है लेकिन इसका आशय यह तो नहीं कि अंतरराष्ट्रीय मानकों पर स्थानीय कर,मूल्य निर्धारण, लेनदेन ,व्यापक रिकवरी , कारपोरेट, वित्त, व्यापार, मूल्यांकन और लेखा सुधार के सेवा क्षेत्र में अग्रणी इस कंपनी पर बजट मैनुअल जैसे अहम मसले के लिए यूं ही आंख बंद करके यकीन कर लिया जाए? आरोप है कि राज्य शासन के पास पीडब्ल्यूसी के तकबरीबन दो सौ करोड़ के अनुदान भी हैं। इन आरोपों में कितना दम है यह तो जांच का विषय है? मगर इतना तय है कि कोई भी विदेशी कंपनी अनुदान देकर हमारी राजकीय वित्तीय नीतियों के निर्धारण का अधिकार आखिर कैसे हासिल कर सकती है? ऐसे में पीडब्ल्यूसी जैसी बदनामशुदा और दागदार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सलाहकार कंपनियों की सलाह पर बजट प्रारूप का निर्माण किंचित मात्र भी उचित नहीं है। दुनिया में ऐसे साफ सुथरे वित्तीय सलाहकारों और प्रबंधकों की कमी नहीं है जो राज्य शासन की इस कमी को पूरा न कर सकें। जहां तक राज्य सरकार का सवाल है तो मध्यप्रदेश की आवश्यक नीतियों के निर्धारण में विदेशी मोह कोई नई बात नहीं है। सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश सरकार की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है। स्वास्थ्य नीति के नाम पर डेनमार्क की एक कंपनी डेनिडा का 9 साल पुराना एक ड्रॉफ्ट है,जो प्रदेश में खराब स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकार के बजाय नागरिकों को दोषी मानता है और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की वकालत करता है। गनीमत है राज्य शासन की दवा नीति विदेशी प्रारूप पर निर्भर नहीं है लेकिन एक सच यह भी है कि प्रदेश में दवाओं का दर निर्धारण जहां तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कॉरपोरेशन करता है,वहीं सरकारी दवाओं की खरीदी के लिए दवा उत्पादक कंपनियों के नाम चैन्नई की आईएमएनएससी सुझाती है।
राजधानी भोपाल में मेट्रो रेल के सपने
क्या राजधानी भोपाल को वास्तव में मेट्रो रेल की जरूरत है? क्या यहां इसकी संभावनाएं मौजूद हैं? आखिर कैसे साकार होगा मेट्रोरेल का सपना? अंतत: इन उत्सुकता भरे तमाम सवालों को गिराते हुए मेट्रो मैन और दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन लिमिटेड(डीएमआरसी) के एमडी डॉ.ई श्रीधरन ने साफ कर दिया कि यह राज्य शासन का सही समय पर लिया गया दूरदर्शी निर्णय है। वास्तव में डीएमआरसी के फीजिबिलिटी सव्रे ने भोपाल में मेट्रो रेल के सपने को साकार करने की बुनियाद रख दी है। राजधानी भोपाल की तरह प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर को भी ग्रीन सिगनल मिलना भी सुखद है। इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य के भोपाल,इंदौर,ग्वालियर और जबलपुर जैसे महानगरों समेत कोई भी नगर, नियोजन के पैमाने की कसौटी पर खरा नहीं है। जरा सी बरसात में राजधानी का अनियंत्रित यातायात बताता है कि नगरीय निकाय अब तक जल निकासी जैसे जरूरी प्रबंध तक नहीं कर पाया है। इंदौर हो या भोपाल दोनों महानगरों में जहां तेजी के साथ आबादी का दबाव बढ़ रहा है, वहीं इनके विस्तार में भी तेजी आई है। दोनों की शहरी बसाहट भी कुछ ऐसी है कि अब यातायात को नियंत्रित और व्यवस्थित कर पाना संभव नहीं है। बायपास और नो पार्किग जोन जैसे वैकल्पिक उपाय भी अब अल्पकालिक हो चुके हैं। यह कहना अनुचित नहीं कि इसके विपरीत राज्य के महानगरीय अधोसंरचना विकास,आवासीय प्रबंध और नगरीय यातायात के विकास के लिए किसी दीर्घकालिक योजना पर कभी गंभीरता के साथ विचार नहीं किया गया है। नतीजा यह है कि अभी भी राजधानी में मेट्रो रेल परियोजना की सबसे बड़ी तकनीकी और व्यावहारिक बाधा सिटी मोबेलिटी प्लान और कंप्रेहेन्सिव ट्रांसपोर्ट प्लान का अभाव है। ये वो कार्ययोजना है जो मेट्रो रेल से संबंधित मार्गो,मानकों और जरूरतों के निर्धारण में मददगार साबित होती। अब ये वहीं बाधाएं हैं जो आज नहीं तो कल डीपीआर(डीटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) तैयार करने के दौरान डीएमआरसी के सामने मुश्किलें खड़ी करेंगी। कहना न होगा कि राज्य में नगरीय विकास के लिए अब तक व्यवहारिक निर्णय नहीं लिए जानें की ऐसी ही भूलों के मद्देनजर मेट्रो ट्रेन परियोजना भूल सुधार का एक अहम उपाय कही जा सकती है। बेहतर पार्किग प्रबंधन,सुगम माल परिवहन और तेज रफ्तार सड़क यातायात के बीच सुरक्षित सफर के लिए भूमिगत मेट्रो रेल सर्विस वास्तव में न केवल वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है अपितु समय पर लिया गया एक दूरदर्शी फैसला भी है। इस सुविधा से पर्यावरण के भी अपने अनगिनत फायदे हैं। राज्य के सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाले इंदौर-भोपाल को आबादी के दबाव से बचाने के लिए शासन स्तर पर छोटे नगरों में रोजगार मूलक अधोसंरचना के विकास की भी कारगर रणनीति बनानी होगी। बेहतर हो यह रणनीति कम से कम 20 वर्षीय पूर्वानुमानों के आकलन पर केंद्रित हो। मध्यप्रदेश में 20.3 प्रतिशत की गति से बढ़ रही जनसंख्या दर के दौरान राज्य के इंदौर-भोपाल जैसे शहरों में आबादी का 32.7 फीसदी की दर से बढ़ना एक बड़े खतरे की ही घंटी है।
मुख्यमंत्री का प्रशासनिक प्रबंधन
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दूसरे कार्यकाल की तीसरी कमिश्नर-कलेक्टर कांफ्रेंस सरसरी तौर पर गहरी छाप छोड़ने में कामयाब रही है। प्रशासनिक कसावट और प्रशासनिक सजर्री के परंपरागत उपायों के एकदम इतर प्रशासनिक प्रबंधन की रचनात्मकता से साफ है कि सरकार को अफसरशाही पर भरोसा तो है लेकिन अब वह सिर्फ अफसरों के भरोसे नहीं है। सीधे संवाद और समन्वय के बीच मुख्यमंत्री ने अपनी अपेक्षाएं और इरादे जिस कुशलता से स्पष्ट किए हैं, इससे नौकरशाही का यह मिथक भी तकरीबन टूट चुका होगा कि शिवराज अब अनाड़ी नहीं रहे। अब वह संभवत:सरकार बना भी सकते हैं और यकीनन चला भी सकते हैं। शिव सरकार के शुरूआती कार्यकाल में यह आम धारणा बनी थी कि उनमें प्रशासनिक पकड़ की कुशलता नहीं है ,लेकिन मिशन-2013 के आसन्न सियासी घमासान के मद्देनजर मुख्यमंत्री की बारीक प्रशासनिक बुनावट बताती है कि अकेले विकास की बुनियाद पर खड़ी सरकार की बेदाग छवि ही बेड़ा पार लगा सकती है। शायद यही वजह है कि शिवराज मैदानी इलाकों में प्रशासनिक अफसरों की एक ऐसी यंग टीम खड़ी करना चाहते हैं जो नित नई रचनात्मक सोच, ताजा उमंग और उर्जा के साथ लक्ष्य भेदने की कूबत रखती हो। वह ऐसी ही एक और अनुभवी टीम वल्लभ भवन ,सतपुड़ा और विंध्यांचल में भी चाहते हैं। प्रशासनिक सुधारों की इस कवायद से पहले मंत्रियों,प्रमुख सचिवों और सचिवों के साथ चली साझा मैराथन बैठकों के सिलसिले को इन्हीं अर्थो में समझा जा सकता है। समय-समय पर माननीयों के साथ नौकरशाहों के तल्ख होते रिश्तों पर तालमेल की पहल रही हो या जब-तब पार्टी गाइड लाइन की पटरी छोड़ते मंत्रियों को नसीहत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बेहतर प्रबंधन की ही रणनीति अपनाते रहे हैं। बेशक, दो दिन तक चली कमिश्नर-कमिश्नर कांफ्रेंस में मुख्यमंत्री का रचनात्मक प्रबंधन काबिले गौर रहा। उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रशासनिक अफसरों को पुरुस्कृत करने का प्रहसन रहा हो या फिर दंडित करने की दो टूक चेतावनी। या फिर दिन में इन दोनों विकल्पों के बीच प्रशासनिक अधिकारियों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धापूर्ण अवसर खड़े करने की रणनीति रही हो और रात में सीएम हाउस में इन्हीं अफसरों को डिनर देकर दिल जीत लेने वाली मेजबानी। कहीं सपाट तो कहीं सांकेतिक अर्थो में मुख्यमंत्री यह संदेश देने में कामयाब रहे हैं कि वह सरकारी योजनाओं का लाभ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के पक्ष में हैं। अफसर सिर्फ शो पीस नहीं हैं और अगर वह ऐसा करते हैं तो यह प्रदेश की 7 करोड़ आबादी के साथ अन्याय दंडनीय अपराध है। एन वक्त पर डिंडौरी कलेक्टर का विकेट चटका कर सीएम ने यह भी साबित कर दिया है कि देर नहीं लगेगी। लापरवाही नहीं चलेगी। चलेगा वही जो खुद को साबित करेगा। एक समय इसी सरकार की खासी किरकिरी करा चुके चंद नौकरशाह अब बंद एसी चेंबरों में ऊंघते नहीं हैं अलबत्ता पसीने में तरबतर फाइलों के ढेर में मिलते हैं। असल में अब सबके रिपोर्ट कार्ड सीएम के हाथ में हैं। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का मौजूदा प्रशासनिक प्रबंधन किस हद तक सरकार की सार्वजनिक छवि को सुधार पाता है? यह देखना वास्तव में बेहद दिलचस्प होगा। मगर इतना तय है कि आगाज तो अच्छा है,अंजाम खुदा जाने..
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गुरुवार, 28 जुलाई 2011
खुशरंग हिना की खुशफहमी के खतरे
भारत-पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की मुलाकात का कुल जमा लब्बोलुआब यही है कि इस मसले पर भारतीय नेतृत्व की कोई भी खुशफहमी उसी पर भारी पड़ सकती है। पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के अंदाज और अंदाज-ए-बयां पर न तो मंत्र मुग्ध होने की जरूरत है और न ही आत्ममुग्ध होने की आवश्यकता है। भारतीय नेतृत्व अगर इस द्विपक्षीय वार्ता को एक बड़ी कामयाबी मानता है तो वह खुद भी धोखे में है और देश को भी धोखा दे रहा है। भारत की धरती पर कदम रखते ही हिना ने अलगाववादियों से मुलाकात कर साफ कर दिया कि चेहरे बदल लेने से मंशा नहीं बदल जाती है। हुर्रियत के दोनों नेताओं से अलग-अलग मुलाकात कर उन्होंने यह भी संकेत दे दिए हैं कि कश्मीर मसले पर भारत विरोधियों का साथ ही उनकी प्राथमिकता है। जबकि हिना को अलगाववादियों से मुलाकात की इजाजत इस शर्त पर दी गई थी कि बातचीत के दौरान विदेश मंत्री एमएम कृष्णा मौजूद रहेंगे और मुलाकात विदेश मंत्रियों के साथ बैठक के बाद ही होगी लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर प्रौढ़ भारतीय नेतृत्व में गच्च देकर हिना ने लगे हाथ यह भी बता दिया कि वह कच्ची खिलाड़ी नहीं हैं। कश्मीर पर पाक का नापाक मकसद तो साफ है लेकिन भारत सरकार की नीयत भी कुछ ठीक नहीं लगती है। क्या,लाइन ऑफ कंट्रोल में आवाजाही और कारोबार की बाधाएं दूर कर कश्मीर के लिए यात्र शर्तो में छूट देने के भारत के समझौते का यह सही वक्त है? क्या यह पाकिस्तान के सामने बिछ जाने जैसा नहीं है। भारत की पाक पर मेहरबानी का यह इकलौता उदाहरण नहीं है। याद करें, 26/11 के मुंबई धमाकों के बाद भारत ने ही पाकिस्तान के साथ बातचीत पर पाबंदी लगाई थी। बातचीत फिर से बहाल करने की पहल भी अंतत: भारत ने की और अब दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री स्तरीय बैठक तब हुई जब मुंबई में फिर से हुए धमाके के जख्म अभी भी ताजा हैं लेकिन बैठक रद्द करना तो दूर भारत ने 13/7 के मुंबई धमाकों के लिए पाकिस्तानी हाथ होने के आरोप तक नहीं लगाए। इतना ही नहीं सरकार ने सहज रूप से मान लिया कि हमले में इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू चरमपंथियों का हाथ है। इस तर्क के दौरान भारतीय गृह मंत्रलय यह भी भूल गया कि उसी की जांच और सुरक्षा एजेंसियां कई बार यह साबित कर चुकी हैं कि इंडियन मुजाहिदीन के तार विदेशी आतंकवादियों से जुड़े हैं। सब जानते है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पर सैन्य शासन चलता है। अत: ये राजनीतिक कवायदें गले नहीं उतरती हैं। अब यकीन तभी किया जा सकता है, जब बातचीत का असर जमीनी स्तर पर दिखे। सरहद पार से घुसपैठ बंद हो। पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकी अड्डे नष्ट किए जाएं और आतंकी हमलों का सिलसिला खत्म हो,लेकिन दूर-दूर तक ऐसी उम्मीद फिलहाल नहीं दिखती है। दोस्ताना रिश्तों के सवाल पर पाकिस्तान के साथ भारतीय अनुभव
बताता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। बावजूद इसके अगर पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नसीहत को भारत मान भी ले तो आप आखिर अतीत को कैसे भूल सकते हैं वह भी तब-जब राष्ट्रीय अस्तित्व और अस्मिता का संकट ही अतीत की जड़ों में पैबस्त हो । इतिहास से सबक लेने का तकाजा तो यही है कि हम अब और एतिहासिक भूलों की ओर आगे न बढ़ें। कम से कम अतीत को भूल कर पाकिस्तान से किसी नए अध्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
बताता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। बावजूद इसके अगर पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नसीहत को भारत मान भी ले तो आप आखिर अतीत को कैसे भूल सकते हैं वह भी तब-जब राष्ट्रीय अस्तित्व और अस्मिता का संकट ही अतीत की जड़ों में पैबस्त हो । इतिहास से सबक लेने का तकाजा तो यही है कि हम अब और एतिहासिक भूलों की ओर आगे न बढ़ें। कम से कम अतीत को भूल कर पाकिस्तान से किसी नए अध्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
भारत रत्न: खेलधर्म और धर्मसंकट
खेल के क्षेत्र में भारत रत्न का रास्ता साफ होने के बाद समर्थकों की शक्ल में फिलहाल इसके दो दावेदार सामने हैं। एक क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर और दूसरे हैं ,राष्ट्रीय खेल हॉकी के जादूगर स्वयर्गीय ध्यानचंद। इसमें शक नहीं कि क्रिकेट परदेशी खेल होने के बाद भी आज लगभग राष्ट्रीय धर्म बन गया है। इसके लाखो लाख अनुयायी हैं और सचिन तेंडुलकर इन्ही अनुयायियों के लिए क्रिकेट के भगवान हैं लेकिन खेल के क्षेत्र में इस प्रतिष्ठा पूर्ण प्रथम भारत रत्न की दावेदारी का एक और पक्ष भी है। ध्यानचंद के समर्थन में खड़े मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राय में कम से कम खेल जगत का पहले भारत रत्न पर तो मेजर ध्यानचंद का ही असली अधिकार है। इसका आशय यह नहीं कि महान क्रिकेटर सचिन इसके हकदार नहीं हैं। इस मसले पर मुख्यमंत्री या फिर ध्यानचंद समर्थकों के अपने निहितार्थ हो सकते हैं, मगर इतना तय है कि अगर यह मांग जोर पकड़ती है तो देश के प्रति सचिन की जिम्मेदारी संवेदनशीलता की हद तक बढ़ सकती है। यह वही नाजुक अवसर होगा जब इस मामले में सियासी सक्रियता के खतरे बढ़ेंगे। क्या ,ऐसी सूरत में विश्व के महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भारत रत्न के लिए ध्यानचंद के नाम का प्रस्ताव करने का साहस जुटा पाएंगे? देश में उनके लाखों लाख समर्थक अगर उन्हें क्रिकेट का भगवान मानते हैं तो क्या राष्ट्रीयता के प्रति उनके इस बलिदान से देश को एक अच्छा संदेश नहीं जाएगा? बेशक, ऐसा कर वह क्रिकेट में अपने कृतित्व के ही नहीं अपितु व्यक्तित्व से भी भगवान होने की पुष्टि कर सकते हैं। दुनिया को एक ऐसा संदेश दे सकते हैं, जैसा जवाब आज से 75 साल पहले जर्मनी के तानाशाह हिटलर को ध्यानचंद ने दिया था। बहुत कम लोग जानते हैं कि 1936 में बर्लिन ओलपिंक में जब भारत ने जर्मनी को 8-1 से रौंद दिया तो इस खेल के चश्मदीद हिटलर ने ध्यानचंद के सामने जर्मनी की ओर से खेलने का प्रस्ताव रखा। बदले में जर्मन सेना में जनरल बना देने का प्रलोभन भी था। यह वह दौर था जब भारत गुलाम था और जर्मनी दुनिया का दूसरा सबसे शक्तिशाली राष्ट्र ,लेकिन ध्यानचंद को पद,पैसा और प्रतिष्ठा नहीं डिगा पाए। कहते हैं, देश और खेल को समर्पित ध्यानचंद ने हिटलर से दो टूक कहा कि मैं भारतीय हूं और सिर्फ भारत के लिए खेलूंगा। सचिन को क्रिके ट का भगवान मानने वाली आज की पीढ़ी संभव है ध्यानचंद से अपरचित हो,लेकिन यह वस्तुत: देश के प्रति उनका अतुलनीय और निरपेक्ष योगदान था। कहना न होगा कि क्रिकेट में बेमिसाल सचिन इसी बहाने अपने उन चंद विरोधियों की भी जबान बंद कर सकते हैं ,जो गाहे-बगाहे उनकी राष्ट्रीय निरपेक्षता और समर्पण पर सवाल उठाते रहे हैं। उन पर आरोप लगते रहे हैं कि वह सिर्फ अपने लिए खेलते हैं ऑस्ट्रेलियाई क्रि केटर सर डॉन ब्रेडमैन की सेंचुरी के कीर्तिमान की बराबरी करने पर इटली की कार कंपनी फिएट से गिफ्ट में मिली फेरारी कार का टैक्स बचाने की कोशिश रही हो या फिर साउथ अफ्रीका के दौरे के दौरान पोर्ट एलिजाबेथ में दूसरे टेस्ट मैच में बॉल टैम्परिंग की तस्वीर का कैमरे में कैद होना । टेस्ट मैच खेलने पर पाबंदी और या फिर ट्वेंटी-20 से बचने और आईपीएल जरूर खेलने के आरोप। यह देश के प्रति उनकी निरपेक्षता को साबित करने का बड़ा अवसर है। क्या, खिलाड़ी होने के नाते सचिन का यही खेल धर्म नहीं है। क्या खेल का धर्म देश को एक बड़े धर्मसंकट से बचाना नहीं है?
औरत खड़ी बाजार में
हिन्दुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। औरत की देह इस समय मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकिप्रय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। समय-समय पर देहव्यापार को कानूनी अधिकार देने की बातें इस देश में भी उठती रहती हैं। हर मामले में दुनिया की नकल करने पर आमादा हमारे लोग वैसे ही बनने पर उतारू हैं। जाहिर तौर पर यह संकट बहुत बड़ा है। ऐसा अधिकार देकर हम देह के बाजार को न सिर्फ कानूनी बना रहे होंगें वरन मानवता के विरूद्ध एक अपराध भी कर रहे होगें। हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद एक बार फिर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की बातचीत तेज हो गयी है।
यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि ‘‘मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।’’ प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।
दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्न बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमशरें के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमति था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्न- पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शिक्त दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।
बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्नी है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अिस्मता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अिस्मता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्न में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।
सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्नी की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रि या को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।
स्त्नी आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षति आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्नी को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बिच्चयों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्नी सही मायने में इस दौर में ज्यादा शिक्तशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शिक्त का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्नी पर मुग्ध बाजार उसकी शिक्त तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पिब्लसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समङो जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते हैं।
संजय द्विवेदी: साभार-विस्फोट डॉट कॉम
यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि ‘‘मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।’’ प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।
दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्न बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमशरें के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमति था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्न- पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शिक्त दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।
बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्नी है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अिस्मता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अिस्मता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्न में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।
सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्नी की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रि या को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।
स्त्नी आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षति आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्नी को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बिच्चयों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्नी सही मायने में इस दौर में ज्यादा शिक्तशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शिक्त का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्नी पर मुग्ध बाजार उसकी शिक्त तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पिब्लसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समङो जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते हैं।
संजय द्विवेदी: साभार-विस्फोट डॉट कॉम
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
महाकौशल में नक्सली उत्पात
वनभूमि को लेकर महाकौशल के चार जिलों की कहानी भी बघेलखंड से अलग नहीं है । यहां डिण्डोरी, मंडला, बालाघाट और सिवनी में सरकार के मुताबिक नक्सली की पैठ मजबूत हुई है। पूरे मध्यप्रदेश में बालाघाट की स्थिति सबसे संवेदनशील हैं। यहां नक्सली कितने असरदार हैं 1997 में परिवहन मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। सरकार के साथ आदिवासियों की जंगल के लिए लड़ाई यूं तो 1860 से चल रही है। वनाश्रित समुदाय जंगलों में वनोपज, निस्तार और चराई पर अधिकार चाहता है, वो जंगल से जीने के लिए न्यूनतम संसाधनों की मांग करता है, जबकि वन प्रबंधन इसे जंगलों पर बोझ मानता है। लिहाजा संघर्ष जारी है। याद करें, मंडला -बालाघाट में आदिवासियों और वनविभाग के संघर्ष ने 1990 में तब खतरनाक मोड़ ले लिया था । जब नक्सली इस क्षेत्र में दाखिल हुए। नक्सली अपनी गतिविधियों का विस्तार चाहते थे लिहाजा उन्होंने वनवासियों के साथ मिलकर 30 मई को कान्हा नेशनल पार्क में आग लगा दी। 15 दिन तक कान्हा के पांचों वनपरिक्षेत्र कान्हा, किसली(सूपखार), भैंसानघाट, और मुक्की जलते रहे। कान्हा की आग दुनियाभर में चर्चित हुई । इस वारदात के बाद वनभूमि और वनोपज पर वनाश्रित समुदाय को अधिकार दिए जाने की चर्चा और मांग गंभीरता से शुरू हुइ। अतिक्रमणकारियों का एक और सर्वे शुरू। जनवरी 1994 तक मंडला -डिण्डोरी में 20105 , बालाघाट में 6254 और सिवनी में 486 अतिक्र ामक पाए गए। मंडला डिण्डोरी में 12778 और सिवनी में 117 लोगों को और बालाघाट में 3622 को वैध मानते हुए प्रदेश सरकार ने भारत शासन की अनुमति के लिए प्रस्ताव बनाकर भेजा दिया,लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 1996 में आए सुप्रीमकोर्ट के आदेश के चलते सारी कार्यवाही थम गई। आदिवासी समुदाय एक बार फिर ठग लिया गया। बार -बार की इस हार और वन विभाग से लगातार मिल रहे विस्थापन ने उन्हे आंदोलित कर दिया। ऐसे में यह लोग नक्सलियों द्वारा आसानी से बहकाए जा सकते थे, यह बात नक्सली अच्छे से समझते थे, इधर राज्य सरकार भी केंद्र से वनाश्रितों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटाने के लिए कानून बनाने की मांग कर रही थी क्योंकि आदिवासी हमेशा से चाहते थे कि उनके क्षेत्र का प्रबंधन उनकी आवश्यक्ताओं और परम्पराओं के अनुसार हो, इसी भावना को लेकर 1996 में पेसा कानून लाया गया। संयुक्त मध्यप्रदेश भारत का वो पहला राज्य था जिसने इस कानून को गंभीरता से समझा और इसे अमली जामा पहनाने का काम शुरू किया लेकिन सारी कवायद अधूरी ही छूट गई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते बीच में कई समस्याएं सामने आ गईं। पेसा कानून पर ही यदि गंभीरता से अमल हो जाता तो समस्या इतनी बड़ी नहीं होती। पेसा कानून के पालन में दुश्वारियों के चलते एक नए कानून को बनाने की मांग उठने लगी जो वनाश्रित समुदायों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटा सके। यूपीए सरकार ने आते ही इस दिशा में प्रयास शुरू किए। फलत: अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून 2006 के रूप में हमारे सामने आया, लेकिन तब तक वन विभाग पूरे प्रदेश से 49577 काबिजों को बेदकल कर चुका था। इसके अलावा 12111 कृषि और 376 आवासीय पट्टों को भी निरस्त किया जा चुका था। आज भी इस कानून के तहत सर्वाधिक पट्टे मध्यप्रदेश में ही निरस्त हुए हैं। इतने बड़े पैमाने पर हुई बेदखली की कार्यवाही ने आदिवासियों को और आक्र ोशित कर दिया। अपने खेत- खलिहान और पारम्परिक धंधों से वंचित आदिवासी समुदाय पेट पालने के लिए आज या तो शहरों की ओर पलायन कर रहा है या फिर अपने क्षेत्रों में मजदूरी करने को मजबूर हो चुका है। ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाले काम का ही उसे एकमात्र आसरा है, लेकिन प्रदेश में मनरेगा में भी कितना भ्रष्टाचार है यह सभी जानते हैं। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बालाघाट, मंडला, डिण्डोरी, शहडोल, उमरिया और सीधी में मनरेगा के तहत भारी गड़बिड़यां होने की बात कही है। इन जिलों में अपनी रिपोर्ट में सीएजी ने मस्टररोल की विश्वसनियता पर ही कई सवाल उठाए क्योंकि अधिकांश स्थानों पर मस्टर रोल कार्यस्थल से गायब मिले। मस्टररोल को जारी करने की तिथि उस पर नहीं मिली। कार्यो का कोड नम्बर तथा जॉबकार्ड नम्बर भी मस्टररोल पर अंकित नहीं किए गए, श्रमिकों की उम्र और गांव का नाम अधिकांश जगह नहीं मिला। भुगतान के प्रमाण पत्रों के अभिलेख नहीं मिल। मस्टररोल में कांट-छांट। ओवर राइिटंग तथा सफेदी लगाकर अंक बदलने के मामले भी सामने आए। डिण्डोरी में तो नरेगा के अंतर्गत नाबालिगों को भी रोजगार दे दिया गया। सीधी की सरई ग्राम पंचायत में ग्रामीण यांत्रिक विभाग के कार्यों में तो काम होने से पहले ही मजदूरों को भुगतान करने का मामला सामने आया । सीएजी ने ऑडिट अवधि में योजना मद की राशि जनपद पंचायतों द्वारा ग्राम पंचायतों को एक से आठ मे महीने की अनावश्यक देरी से जारी करने पर भी आपत्तिा उठाई है। नरेगा में खुले आम चल रही गड़बिड़यों का अंदाजा मध्यप्रदेश राज्य रोजगार गारंटी परिषद् की शिकायत शाखा द्वारा तैयार रिपोर्ट से लगता है कि अब तक मनरेगा में गड़बड़ियों के चलते पूरे प्रदेश में 113 सरपंच अपनी कुर्सी गंवा चुके तथा 9 सरपंचों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। इसके अलावा 502 पंचायत सचिवों के खिलाफ कार्यवाही की गई है। साथ ही 140 सब इंजीनियर और 68 जनपद सीईओ के खिलाफ भी कार्यवाही हुई है जिसमें से 14 को निलंबित भी किया जा चुका है। आदिवासी समुदाय अपनी जमीन तथा पारम्परिक उद्योगधंधों से उखड़ चुके हैं, विकास की दौड़ में जनजातियों की जीविका के आधार जल जंगल और जमीन की अंधाधुंध लूट के चलते जनजातियों को तीव्र गति से हाशिए पर ला खड़ा किया है। आज़ाद भारत में आदिवासी अपनी उपेक्षा से दुखी हैं। वो शोषण की शिकायत करता है, ऑटोनामी का नारा देता है,वर्तमान को वे खण्ड खण्ड में देखने का आदि हो गया है, भविष्य का उसके पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। शायद आदिवासी हीनभावना का शिकार हो गया है। इसीलिए वर्तमान व्यवस्था के प्रति जनजातियों में घोर असंतोष है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के चमत्कारिक उदय और नक्सलवाद के प्रति बढ़ते रूझान के पीछे यही कारण है, लेकिन आज भी हम तीन तरीकों से इस समस्या से निपट सकते है, पहला आदिवासियों को उनकी भूमि पर अधिकार लौटाकर हम ऐतिहासिक अन्याय की क्षमायाचना कर सकते है ं। यह अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून के जरिए संभव है। दूसरा आदिवासियों को उनके क्षेत्नों की व्यवस्था उनके हाथों में सौंप कर, ताकि वे अपना विकास अपने तरीकों से कर सके यह पेसा कानून के तहत संभव है और तीसरा जनजातिय क्षेत्नों में मनरेगा का ईमानदारी से संचालन कर हम उन्हे तत्काल राहत दे सकते हैं, इन तीनों का एक साथ प्रयोग कर हम नक्सलवाद की समस्या से निपट सकते हैं। बस इसके लिए इमानदार प्रशासन की आवश्यकता है।
बघेलखंड में नक्सली आहट
योजना आयोग ने नक्सल प्रभावित इलाकों का सामाजिक आर्थिक अध्ययन कर एक एक शोध पूर्ण रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह से आदिवासियों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग के हाथों से जीवन निर्वाह के संसाधन छीने गए हैं। सरकारी योजनाएं कहां विफल हुईं। मध्यप्रदेश में बघेलखंड और महाकौशल के के आठ जिले आदिवासी बहुल्य हैं। जंगल,वनोपज और खेती ही आजीविका का साधन। दशकों से हुई सरकारी कार्यवाहियों में उन्हें वन बेदखली के सिवाय कुछ नहीं मिला। बघेलखंड में इसकी शुरूआत 1937 में हुई। जब तत्कालीन रीवा रियासत ने 8 फरवरी 1937 को एक आदेश पारित कर, नगरीय सीमा तथा ग्राम की निजी भूमि या केंटूनमेंट बोर्ड की भूमि को छोड़कर शेष सभी भूमि को रीवा फॉरेस्ट एक्ट की धारा 29 के तहत वनभूमि मान ली गई। यह जमीन तब राजस्व अभिलेखों में बड़े झाड़ का जंगल, छोटे झाड़ का जंगल, पहाड़ ,चट्टान, चरनोई, घास मैदान, जंगलखुर्द और जंगलात मदों में दर्ज की गई। इससे पहले ये जमीनें गांव की सामुदायिक भूमि हुआ करती थीं। जिन पर सामाजिक रीति रिवाजों के तहत आम निस्तार होता था। पूरे समाज की सामाजिक आर्थिक गतिविधियां संचालित होती थीं। 1947 में भारत की आजादी के बाद भूमिहीनों को जमीनें देने के इरादे से स्वामित्वाधिकार उन्मूलन अधिनियम के तहत मालगुजार, जमीदार, और जागीरदारी तोड़कर भूअजर्न कर लिया गया। इससे पहले की राजस्व विभाग कुछ करता वन विभाग ने रीवा स्टेट के आदेश को मानते हुए 1950 में सर्वे और डिमार्केशन का काम शुरू कर दिया संविधान लागू होने के पश्चात अनुच्छेद 13 के तहत रीवा राजदरबार द्वारा की गई कार्यवाहियों का परीक्षण करने की बजाए, 1954 में मध्यप्रांत की सरकार तथा राज्य पुनर्गठन के पश्चात 1958 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचना का प्रकाशन कर निस्तार प्रयोजन की सामूदायिक भूमि को संरक्षित वनभूमि बना दिया गया। सीधी और अविभाजित शहडोल (शहडोल,उमरिया,अनूपपुर सहित) में भी 1970-71 तक जमीनों का सर्वे और डिमार्केशन होता रहा। 1950 से 1972 के बीच चार जिलों के हजारों गांव की लाखों हैक्टेयर भूमि शामिल की गई। जिसमें पूर्वी सीधी में 793 गांव की कुल 273428.243 हेक्टेयर भूमि, पश्चिमी सीधी की 1083 गांव की 142364.043 हेक्टेयर भूमि , उत्तर शहडोल के 621 गांव के 113700.500 हेक्टेयर भूमि दक्षिण शहडोल के 975 गांव की 132198.000 हेक्टेयर भूमि तथा उमरिया के 574 गांव की 94032.000 हेक्टेयर जमीने शामिल थीं। वन विभाग यहीं तक सीमति नहीं रहा। उसने इन जिलों की हजारों हेक्टेयर निजी भूमि भी बिना मुआवजे के वर्किग प्लान में शामिल कर ली। पूर्वी सीधी में करीब 360.052 हेक्टेयर, पश्चिमी सीधी में 583.867, उत्तर शहडोल में 1754.346, दक्षिण शहडोल में 889.017 हेक्टेयर, उमरिया में 1180.167 हेक्टेयर तथा अनूपपुर में 1235.466 हेक्टेयर निजी भूमि भी वन विभाग ने अपने अधिकार में ले ली। किसान जहां इन जमीनों की खेती से वंचित हो गए वहीं वनोपज से होने वाली आय भी उनके हाथ से चली गई। सर्वे के बाद इन जिलों में करीब 414950.821 हेक्टेयर भूमि ही संरक्षित वन के योग्य नहीं पाई गई।क्योंकि यहां या तो खेती हो रही थी या फिर ये सघन आबादी के क्षेत्र थे। यह गैर उपयोगी जमीन को वन विभाग ने राजस्व विभाग को सौंप दी । भूमि हस्तांतरण की इस प्रक्रिया में कई ऐसे भूखंड छूट गए जिन्हें वन विभाग ने अपने रिकार्ड से नहीं हटाया और ये भूखंड राजस्व के रिकार्ड में भी दर्ज हो गए। नतीजतन नई समस्याएं खड़ी हो गईं। और इस तरह से पुश्तैनी तौर पर इन लाखों एकड़ भूखंड से पेट पाल रहे लाखों लोग सरकारी भाषा में अतिक्रमणकारी कहलाए जाने लगे। उन पर बेदखली की कार्यवाही शुरू हो गई। सियासी रोटियों को सेकने का सिलसिला भी शुरू हो गया। 1970 के बाद पट्टे देने की बात चली। अब अतिक्रमणकारियों का सव्रे शुरू हुआ,लेकिन इससे पहले की पट्टे मिलते। वन संरक्षण अधिनियम 1980 आ गया और वन, राज्य सूची से हटाकर संवर्ती सूची का विषय बना दिया गया। केंद्र ने पुन: एक सव्रे की कवायद शुरू ही की थी कि 1996 की 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने टीएन गोधाबर्मन केस पर वन भूमि की व्याख्या कुछ इस तरह से कर दी कि जो भी जमीन किसी भी सरकारी रिकार्ड में संरक्षित या आरिक्षत वन रही हो उसे वनभूमि माना जाएगा, इस आदेश से तो मध्यप्रदेश के वनविभाग द्वारा बघेलखंड में की गई सारी कार्यवाहियों पर स्वीकृति की न्यायिक मुहर लग गई, फिर क्या था वन विभाग ने हजारों लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल करना शुरू किया जो अब भी जारी है।
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