मंगलवार, 23 अगस्त 2011

एक आंदोलन का गिरफ्तारी

लोकतंत्र के विकासक्रम में वह दिन दूर नहीं जब लोक का तंत्र से सीधा मुकाबला होगा और निश्चित रूप से लोक की विजय होगी। अपनी शहादत की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा लिखे गए उनके एक आखिरी दस्तावेत की यह भविष्यवाणी आज सच साबित होने के संकेत दे रही है। जनशक्ति का यह एकदम वैसा ही उफान है जिसे 1942 में गांधी ने हवा दी थी। 1974 की जेपी की संपूर्ण क्रांति का आंदोलन एक मर्तबा फिर से तारी है। न गांधी का कोई संगठन था न जेपी का कोई गुट और नाही अण्णा की कोई लॉबी है। सिर्फ देश के नाम एक संदेश तब भी था और आज भी है। संदेश साफ है कि यह किसी सरकार के तख्ता पलट की लड़ाई नहीं है। यह संघर्ष है उस व्यवस्था के विरूद्ध जो भ्रष्टाचार पैदा करने की मशीन बन चुका है। लोकतंत्र क्या है? तंत्र के खिलाफ आज संसद के बाहर सड़क पर तिहाड़ जेल,इंडिया गेट,जेपी पार्क और देश के चप्पे-चप्पे पर चौक-चौबारों पर खड़े लोक से पूछिए। यह कोई रटी-रटाई परिभाषा नहीं है। लोकतंत्र तो एक ऐसा व्यावहारिक सच है जो आज के सत्ताधारी सियासतदारों की तरह पढ़ी-पढ़ाई परिभाषाएं नहीं रटता। परिभाषाएं गढ़ता है। वह एक ऐसी स्वस्फू र्त शक्ति है जो इस तथ्य को रेखांकित करता है कि कत्ल करने के बाद मंदिर में घुसकर बैठ जाने से कोई पुजारी नहीं हो जाता है। तभी तो जनलोकपाल के सवाल पर संसदीय अवमानना के आरोपी अण्णा हजारे परवाह नहीं करते। वह संसद और संविधान से समर्थक हैं ,लेकिन वह सांसदों से सहमत नहीं हैं। आज 150 सौ से भी ज्यादा सांसद दागी हैं। इसीलिए बुनियादी व्यवस्था बदलनी है ताकि सांसद बेदाग हों। व्यवस्था परिवर्तन की यह वही मांग है जिसके साथ पूरा देश है। आज अगर पूरा राष्ट्रआंदोलित है तो वह टू जी स्पैक्ट्रम में कमीशन नहीं मांग रहा है । उसे खामोश रहने के एवज में आदर्श घोटाले का कोई एक अदद फ्लैट नहीं चाहिए है। देश तो सिर्फ साफ सुथरा हिसाब मांग रहा है। यह उसका हक है। उसके खून पसीने की क माई है। देश चाहता है कि हिसाब मांगने की नौबत ही क्यों आए? कल तक सत्ता मद में चूर रही यूपीए सरकार के होश ठिकाने हैं।

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