मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सिविल सोसायटी पर सियासी साया

भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए जादुई अंदाज में उमड़ा अण्णा हजारे का आंदोलन क्या जाने-अनजाने पॉलीटिकली हाई जैक होता जा रहा है? कम से कम ताजा तस्वीर तो ऐसे ही संकेत देती है। सिविल सोसायटी और सरकारी लोकपाल के बीच एनसीपीआरआई के तीसरे रहस्यमयी लोकपाल का प्रकटीकरण, यूपी में बरेली से कांग्रेस के सांसद प्रवीण ऐरन का अण्णा मोह, यूपी के ही पीलीभीत से भाजपा सांसद वरूण गांधी द्वारा सिविल सोसायटी के जन लोकपाल को संसद में पेश करने का एलान, दिल्ली की सांसद शीला दीक्षित के सांसद बेटे संदीप दीक्षित का अण्णा गान , गतिरोध तोड़ कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का टीम अण्णा से बातचीत के लिए रास्ता बनाने की बेचैनी, महाराष्ट्र के अतिरिक्त गृह सचिव उमेश चंद्र सारंगी की अण्णा से मुलाकात। तेजी के साथ सामने आए ये तमाम ऐसे राजनीतिक नाटकीय मोड़ हैं, जो सरकार के निरंतर दबाव में आने की गवाही देते हैं। बेशक सरकार ने भी वैकल्पिक राह पकड़ने के लिए तरह-तरह के टोटके आजमाने शुरू कर दिए हैं। मसलन- कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएससी )की अरूणा राय का जन लोकपाल पर एक और मसौदा सरकार की ऐसी ही किसी रणनीति का हिस्सा कहा जा सकता है। अरूणा एनएससी के अलावा नेशनल कम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की भी सदस्य हैं और जनलोकपाल का यह तीसरा ड्रॉफ्ट कथित तौर पर इसी एनसीपीआरआई ने बनाया है। खासियत यह भी है कि यह प्रस्ताव सिविल सोसायटी के मसौदे से तकरीबन-तकरीबन मेल खाता है। खासकर कांग्रेस के दो सांसदों प्रवीण ऐरन और संदीप दीक्षित की अण्णा के प्रति पैरवी भी सरकारी रणनीति का ही कूटनीतिक हिस्सा लगती है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि सरकार गतिरोध तोड़कर टीम अण्णा के साथ बैक डोर से कोई बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश में है लेकिन अड़चन यह है कि भारी जन समर्थन से अभिभूत सिविल सोसायटी सत्ता को शिकस्त देने की राह पर भटक सी रही है। अण्णा की इच्छा सूची बढ़ती ही जा रही है। लगता नहीं कि यह किसी समाधान का सकारात्मक रास्ता है। सिविल सोसायटी को यह नहीं भूलना चाहिए कि आंदोलन आज निर्णय के जिस नाजुक मुकाम पर है उसके नीचे एक सियासी जमीन बनती जा रही है। आशय यह कि जन दबाव के चलते सरकार के दबाव में आने का भ्रम पालना ठीक नहीं है। सच तो यह है कि अगर सत्ता को घेरने का अवसर कैश कराने की कोशिश में लामबंद विपक्ष उसके बचाव में नहीं आया होता तो सिविल सोसायटी को उसकी संवैधानिक हैसियत बताकर सरकार संसदीय अवमान के आरोप में उसे कब का घेर कर घायल कर चुकी होती। सिविल सोसायटी के जनलोकपाल को संसद में ले जाने के भाजपा सांसद वरूण गांधी के एलान का तीर चलाकर पार्टी के रणनीतिकारों ने इस आंदोलन को एक नया मोड़ देने की कोशिश की है। इसे इत्तफाक ही कहें कि देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इन्हीं वरूण गांधी के पितामह फिरोज गांधी पहली बार 1956 में संसदीय कार्यवाही संरक्षण विधेयक ले कर आए थे। भाजपा के इस दाव को सत्तारूढ़ कांग्रेस की बैचेनी को यूं भी देखा जा सकता है। ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल की पीएम पद पर ताजपोशी की अटकलें भी लाजिमी ही हैं।

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