मंगलवार, 9 अगस्त 2011

आरक्षण पर अब सियासी सेंसर


यदि आपके पास सिर्फ दो ही विकल्प हों तो आप क्या करेंगे? इलाज के लिए उच्चवर्ग के उस डॉक्टर के पास जाएंगे ,जिसने डोनेशन देकर मेडिकल में दाखिल लिया था या फिर ऐसे डॉक्टर के पास जिसने आरक्षित कोटे से मेडिकल की पढ़ाई पूरी की है? शायद दोनों के पास नहीं। तो फिर क्या आप बगैर इलाज के मर्ज से ही मर जाना चाहेंगे..असल में देश में आरक्षण की राजनीति ने इस नाजुक मसले को कुछ यूं ही अनुत्तरित कर दिया है । न्याय और नैतिकता का तकाजा तो यह है कि आरक्षण के सवाल पर शर्मसार करती सियासत के लिए चुल्लूभर पानी ही काफी है। बेशक,आरक्षण एक संवैधानिक सत्य है और प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इसका पालन एक कानूनी बाध्यता है,लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि आरक्षण के पैरोकार कभी यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करते कि इस संवैधानिक व्यवस्था के अब तक के नतीजे क्या रहे हैं? क्या वाजिबों को वाकई उनका हक मिल रहा है? या फिर आरक्षण की आड़ में अकेले क्रीमीलेयर ही मलाई मार रहे हैं? यह जाने बगैर कि सच क्या है,आरक्षण का नाम आते ही राजनीति के सामाजिक ठेकेदार उग्रता की हद तक आंदोलित हो जाते हैं। आज अगर आरक्षण का नाम ही आग का पर्याय है तो दोषी कौन है? प्रदर्शन को तैयार हिंदी फीचर फिल्म आरक्षण को लेकर कमोबेश पूरे उत्तर भारत में उठे बवाल के पीछे आखिर कौन लोग हैं? मध्यभारत के इसी भोपाल शहर में बनी इस मुंबइया फिल्म का मध्यप्रदेश में भले ही बेसब्री से इंतजार चल रहा हो मगर, अगर यूपी में पिछड़ों के पैरोकार विरोध कर रहे हैं ,तो राजस्थान में अगड़े भी पीछे नहीं हैं। मुंबई हाईकोर्ट में मामला विचाराधीन है तो बिहार में अभिनय सम्राट अमिताभ बच्चन के खिलाफ मुकदमा कायम हो चुका है। और तो और बगैर फिल्म दिखाए प्रदर्शन की अनुमति देने पर राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड(सीबीएफसी) की अध्यक्ष लीला सेमसन पर लालपीले हो रहे हैं। सब जानते हैं कि सेंसर बोर्ड भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय के अधीन एक ऐसा विनियामक आयोग है, जो भारत में फिल्मों, टीवी धारावाहिकों,टीवी विज्ञापनों और विभिन्न प्रसारण सामाग्री की समीक्षा कर अतिवाद को नियंत्रित करता है। आमतौर पर चार सदस्यीय सेंसर बोर्ड किसी भी फिल्म को हरी झंडी देने के लिए काफी होता है लेकिन आरक्षण का 9 सदस्य इंतजार कर रहे थे। जिसमें आरक्षण से लाभान्वित समुदाय विशेष के प्रतिनिधि, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक पूर्व जज भी शामिल थे। सेंसर बोर्ड ने बगैर कैंची चलाए फिल्म जाने दी हंगामा शुरू हो गया। विरोध के आधार क्या हैं? किसी को कुछ भी नहीं मालूम। अकेले प्रोमो झगड़े की जड़ है। इसमें शक नहीं कि उत्तेजक प्रोमो का उदे्श्य बॉक्स ऑफिस में फिल्म को सुपर हिट करना है। जहां तक सवाल आरक्षण के निर्देशक प्रकाश झा का है तो उनकी फिल्मों से विवाद का गहरा नाता रहा है। दामुल,मृत्युदंड,गंगाजल,राजनीति और अब आरक्षण उनकी फिल्मों की कथा वस्तु ही कुछ ऐसी होती है जो राजनीतिक-सामाजिक सच को कुरेदने के कारण प्रदर्शन से पहले तूफान जरूर लाती है। आरक्षण को लेकर उठी आग के पीछे अगर फिल्म प्रोमटरों की मार्केटिंग को भी देखें तो 90 के दशक में वीपी सिंह सरकार के पतन का कारण रहा यह वही आरक्षण है जिसके सियासीकरण ने उसे सरेबाजार नीलाम कर दिया है।

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