दुनिया इन दिनों विश्व शिशु स्तनपान सप्ताह मना रही है। मध्यप्रदेश में भी सरकारी तौर पर इसका शोरशराबा है। सवाल यह है कि ऐसे सरकारी और कागजी आयोजनों की जमीनी हकीकत क्या है? सिवाय इसके कि सात दिन बैनर-पर्चे,पोस्टर और बहुत हुआ तो होर्डिग या फिर इक्का-दुक्का विचार गोष्ठियों की रस्म अदायगी के साथ बात जैसे कैलेंडर में एक तारीख की तरह आई थी वैसे ही चली जाएगी। जनजागृति और जनभागीदारी की बड़ी-बड़ी बातों के बीच ऐसी फिजूलखर्चीऔर इसी बहाने बजट के बंदरबाट से बेहतर यह नहीं कि समस्या की जड़ में जाकर समाधान को समझा जाए। सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश में महिला स्वास्थ्य सुधार एक बड़ी चुनौती है। स्वस्थ्य जननी से ही स्वस्थ्य संतान की उम्मीद की जा सकती है,लेकिन उम्मीद के एकदम विपरीत हकीकत हिला देती है। राज्य में 56 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। मां तो मां प्रदेश के 74.1प्रतिशत बच्चे भी एनमिक हैं। इनमें से लगभग 60 फीसदी से भी ज्यादा बच्चे तो गंभीर रूप से कुपोषित हैं। प्रति लाख पर मातृमत्यु दर का औसत अगर 379 है, तो शिशु मृत्युदर का यही औसत अनुमान 97 के इर्द-गिर्द बैठता है। सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलीजेंस की मानें तो मध्यप्रदेश में रोज 371नवजात और 35 प्रसूताओं की मौत होती है। इस मामले में चालू साल के लिए राज्य सरकार ने प्रतिलाख पर मातृमत्यु दर घटाकर 220 और शिशुमृत्यु दर गिराकर 62 किए जाने का लक्ष्य रखा था। ऐसे जादुई आंकड़े का लक्ष्य कैसे मुमकिन है यह तो राज्य शासन के स्वास्थ्य सलाहकार ही बता पाएंगे, लेकिन निर्धारित लक्ष्यावधि के सिर्फ 4 ही महीने बचे हैं। अलबत्ता, 82 प्रतिशत संस्थागत प्रसव के सरकारी दावे के बीच महज15 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के एक घंटे बाद मां का दूध नसीब हो पाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि किसी भी नवजात के लिए प्रसूता मां का पहले एक घंटे का दूध सचमुच अमृत के समान होता है। कुदरती तौर पर ऐसा दुग्धपान बच्चे में ताउम्र स्वस्थ्य जीवन की बुनियाद रखता है, लेकिन आखिर ऐसा संभव क्यों नहीं है? अध्ययन बताते हैं कि प्रदेश की प्रसूताओं में खून की कमी एक कॉमन डिजीज सी हो गई है। जच्चा-बच्चा के लिए जानलेवा यह चुनौती उन तमाम कारणों में से एक है ,जो सीजेरियन डिलेवरी के लिए मजबूर कर देती है। पैसे के लिए सामान्य प्रसव का ऑपरेशन या फिर प्रसव पूर्व इलाज की आड़ में सामान्य प्रसव को सीजेरियन के लिए मजबूर कर देने के चिकित्सकों के गोरखधंधे के अलावा प्रसूताओं के लिए खानपान से जुड़ी तमाम भ्रांतियों का नतीजा यह है कि सामान्य प्रसव अब गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। अध्ययन यह भी बताता है कि सीजेरियन डिलेवरी से जन्में शिशु को एक घंटे के अंदर दुग्धपान संभव नहीं है। जन्म के बाद सबसे पहले नवजात को पुराने कपड़े पहनाने,शहद चटाने और प्रसूता को दो-चार दिन तक संतुलित आहार से दूर रखने जैसे सामाजिक रीति- रिवाज भी समझ से परे हैं। विडंबना तो यह है कि बगैर किसी वैज्ञानिक और चिकित्सकीय आधार के ऐसी परंपरागत मान्यताओं को प्रदेश में एक बड़ा जनाधार है। आशय यह कि स्वास्थ्य सेवाओं के परिवार कल्याण कार्यक्रमों से जुड़े सरकारी तंत्र और सामाजिक क्षेत्र को जमीनी स्तर पर सक्रिय इन तमाम समस्याओं के समाधान पर फोकस होना चाहिए।
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