बुधवार, 10 अगस्त 2011

कृषि कैबिनेट:नीति और नीयत


खेती को लाभ का सौदा बनाने को बेताब राज्यसरकार ने कृषि कैबिनेट को अंतत: हरी झंडी दे दी है। अब मध्यप्रदेश समूचे देश में ऐसा पहला राज्य होगा जहां ऐसे रचनात्मक नवाचार के तहत कृषि बजट के लिए पृथक से प्रावधान होगा। यह सच है कि असली अर्थो में कृषि मध्यप्रदेश के जीवन का आधार है। राज्य की तीन चौथाई से भी ज्यादा आबादी कृषि या फिर इससे जुड़े कारोबार पर ही निर्भर है, लेकिन यह भी असत्य नहीं कि राज्य में प्राकृतिक संसाधनों और कृषि क्षेत्र की तमाम संभावनाओं के बाद भी कभी इसका समुचित इस्तेमाल नहीं हुआ है, लेकिन बावजूद इसके अगर सरकारी दावों पर यकीन करें तो मौजूदा समय में प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पादन में कृषि का अंशदान 22.47 प्रतिशत है। ऐसे में तमाम प्राकृतिक विपदाओं के बीच राज्य की 7.53 फीसदी कृ षि विकास दर भी नई उम्मीदें जगाती है। यह उपलब्धि तब और भी अहम हो जाती है , जब राष्ट्रीय कृषि औसत विकास दर में सिर्फ .04 प्रतिशत वृद्धि ही दर्ज की गई हो। सरकार इसे किसी चमत्कार से कम नहीं मानती है। खुशफहमी का आलम तो यह है कि वह कृषि विकास के कथित ठोस आधारों की दम पर मध्यप्रदेश में कृषि विकास दर के कभी भी नकारात्मक नहीं होने का दावा भी करती है। विगत खेती सीजन में सामान्य से 35 प्रतिशत कम बारिश के बाद भी अप्रत्याशित विकास दर का नतीजा यह है कि केन्द्रीय योजना आयोग भी मध्यप्रदेश में दो गुना से भी अधिक वृद्धि को कृषि विकास की दृष्टि से फास्ट ट्रेक का दर्जा दे चुका है। अति उत्साहित सरकार अब कृषि विकास दर में 10 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रही है। सवाल यह है कि क्या किसानों को कृषि कैबिनेट की सौगात देने वाली सरकार वास्तव में खाद्यान्न उत्पादन को ही प्रोत्साहित करना चाह रही है। या फिर वह अपने बेहतर कृषि आधारों को सिर्फ खुले बाजार के लिए तैयार कर रही है? शक इस तथ्य पर भी स्वाभाविक है कि कृषि कैबिनेट की कवायद कहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लुभाने की महज ब्रांडिंग भर तो नहीं है? सरकारें जिस तरह से आर्थिक उदारवाद की नीतियों को नीतिगत रूप से स्वीकार कर चुकी है। ऐसे में यह आशंका नाहक नहीं कही जा सकती है। सरकारी तौर पर अब तक खाद्यान्न उत्पादन की बजाय सोयाबीन, जेट्रोपा और कपास जैसी नकदी फसलों के उत्पादन का प्रोत्साहन हो या फिर फल-सब्जियों की अनुबंधित खेती। ऐसी ही आशंकाओं की पुष्टि करते हैं। कृषि क्षेत्र के प्रति तेजी के साथ निजी कंपनियों का बढ़ता रूझान भी किसी से छिपा नहीं है। नई कृषि नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब बाजार की मांग के मुताबिक किसानों से फसलों का उत्पादन करा सकेंगी। मसलन-आलू सिर्फ सब्जी के लिए नहीं चिप्स के लिए भी पैदा किया जाएगा। इससे सरकार और बाजार को तो बहुत कुछ मिलेगा,लेकिन किसान को क्या मिलेगा? ऐसे में संभव है उसे एक ऐसा बाजारू वातावरण मिले जहां उसकी हैसियत उत्पादक नहीं अपितु उपभोक्ता जैसी ही हो। ऐसे में हमें यह भी सोचना होगा कि धन का बहाव बढ़ाने की कोशिश में कहीं हमारी खाद्य सुरक्षा किसी गंभीर संकट में न फंस जाए। वैश्विक आर्थिक मंदी के इस विकट दौर में घरेलू अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए बाजारीकरण से परहेज नहीं ,लेकिन इसकी भी सीमाएं होनी ही चाहिए। नीयत साफ होनी चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें