स्वतंत्र भारत के संसदीय न्यायिक इतिहास में यह पहला अवसर है, जब हाईकोर्ट के किसी न्यायाधीश के खिलाफ संसद के उच्च सदन ने महाभियोग के प्रस्ताव को पारित किया है। यह इस मायने में दूसरा दुर्भाग्य पूर्ण मौका है, जब 1993 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में ऐसा ही महाभियोग कांग्रेस के बायकाट के कारण खारिज हो गया था। लिहाजा रामास्वामी संसद में पेशी से पहले ही बाल-बाल बच गए थे, लेकिन राज्यसभा में 2 घंटे की दलीलों के बाद भी 53 साल की उम्र में वित्तीय कदाचार में फंसे कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन खुद को नहीं बचा पाए। इसे इत्तफाक ही कहें कि राज्य सभा में कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन के खिलाफ भी एक महाभियोग लंबित था, लेकिन इससे पहले कि फाइल खुलती दिनाकरन ने त्याग पत्र देकर महाभियोग के औचित्य को निर्थक कर दिया। शीर्ष न्यायिक प्रणाली में प्रदूषण के ये वो संगीन मामले हैं जो इस दावे को और भी पुख्ता करते हैं कि न्यायपालिका में आत्मनियंत्रण की नैतिकता मूलक प्रक्रिया प्राय: नाकाम हो चुकी है। शर्मशार करते ये वही साक्ष्य हैं जो नए सिरे से न्यायिक सुधारों के रोडमैप की जरूरत को रेखांकित करते हैं और इसी बहाने न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही पर राष्ट्रीय बहस का रास्ता बनाते हैं। वैसे भी महाभियोग के ये पóो तब फड़ फड़ाए हैं, जब पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभूतपूर्व माहौल है और सर्वोच्च अदालत को भी मजबूत लोकपाल के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए जादुई आंदोलन उफान पर है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर भ्रष्टाचार मुक्त न्यायिक व्यवस्था के लिए किस किस्म के भरोसेमंद और टिकाऊ प्रबंधों को अपनाया जाए? खासकर विरोधाभास इस तथ्य को लेकर है कि कमोवेश सभी राजनीतिक दल जहां सिविल सोसायटी के लोकपाल से राजी नहीं हैं ,वहीं वे न्यायिक शुचिता के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के प्रबल पक्षधर हैं। सवाल अकेले भ्रष्टाचार में फंसे उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को दंडित करने का नहीं है। चुनौती इनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया को अधिकतम निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने की भी है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आरोपी सिद्ध होने पर महाभियोग के जरिए न्यायाधीशों को अपदस्थ करने की प्रक्रिया जहां जटिल है, वहीं इसके राजनीतिक प्रभावों की आशंका से इंकार कर पाना भी कठिन है। रामास्वामी मामले में सत्तारूढ़ कांग्रेस के बायकट को इन्ही अर्थो में समझा जा सकता है। यह कहने में हर्ज नहीं कि देश की शीर्ष न्यायिक सेवा के शुद्धिकरण की दिशा में अब तक कोई ठोस उपाय नहीं किए गए हैं। मौजूदा समय में प्रचलित 1968 का न्यायाधीश जांच अधिनियम अकेले न्यायाधीशों की अवमानना प्रक्रि या पर केंद्रित है। यूपीए सरकार के एक दावे को मानें तो केंद्र के पास एक ऐसा विधेयक प्रस्तावित है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ न केवल न्यायाधीशों से निपटने में सक्षम है, अपितु उन्हें और ज्यादा उत्तरदायी बनाने की ताकत भी रखता है। इसे विडंबना ही कहें कि न्यायपीठ पर बैठे न्यायपालक को जब हम कानून से नियंत्रित करने की कल्पना करते हैं तो न्याय में नैतिकता ,आत्मनियंत्रण अर्थात् अंतरआत्मा की आवाज का कोई अर्थ नहीं रह जाता है,मगर बावजूद इसके उम्मीद नहीं मरती है।
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