मंगलवार, 23 अगस्त 2011

संसद के सामने सड़क पर खड़े अण्णा

सत्ता अंतत: निर्लज्जता की किस हद तक जा सकती है? मशहूर गांधीवादी अण्णा हजारे की उनके घर से गिरफ्तारी इसी तथ्य की ताजा मिसाल है। अण्णा का कसूर समूचा देश ही नहीं पूरी दुनिया जानती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत जनलोकपाल के लिए राष्ट्रीय जनपक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे अण्णा हजारे आज लोकनायक की भूमिका में हैं। दरअसल सत्ता इसी जनशक्ति से इस कदर भयभीत है कि वह अपना संतुलन खो बैठी है। बात-बात में लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने वाली यूूपीए सरकार की मनोदशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्वाधीनता दिवस के 65 वें समारोह को लगातार 8 वीं बार राष्ट्र के नाम संबोधित करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जनतंत्र में विरोध के सत्याग्रह,अनशन और उपवास जैसे अहिंसक उपायों को ही खारिज कर देते हैं और अण्णा हजारे को ऐसा नहीं करने की नसीहत दे बैठते हैं। क्या प्रधानमंत्री को भारत के स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मागांधी के 35 वर्षीय सक्रिय योगदान तक का ज्ञान नहीं है? क्या उन्हें नहीं मालूम कि ताकतवर सशस्त्र अंग्रेजी हुकूमत के समूल खात्मे में यही सत्याग्रह,अनशन और उपवास गांधी जी के अहिंसक हथियार थे? सवाल यह भी है कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संबोधन से पहले प्रधानमंत्री के राजघाट जाकर बापू के स्मारक में पुष्पांजलि समर्पित करने के स्वांग का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? इस लोकतांत्रिक राष्ट्र की इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक अहिंसक उपवास के लिए किसी बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को पहले तो जगह तक नहीं दी जाती है। फिर प्रतिबंधात्मक कार्यवाही की धमकी दी जाती है और अंतत: उसे घर से गिरफ्तार कर लिया जाता है। अण्णा को किस इल्जाम में गिरफ्तार किया गया है? क्या अण्णा ने जेपी पार्क पहुंचकर धारा 144 तोड़ दी थी? सरकारी दावे की मानें तो अण्णा पर सिर्फ एक आरोप प्रायोजित है। सरकार को लगता है कि अण्णा की लड़ाई उससे है और वह सुनियोजित तरीके से संसद की आड़ में है। वह सिविल सोसायटी के हर हमले संसद की ढाल से निढाल करने की रणनीति पर काम कर रही है और यह प्रचारित करने की कोशिश में है कि यह संसदीय अपमान है। जबकि सरकार भी इस सच से नावाकिफ नहीं है कि सिविल सोसायटी का संघर्ष संसद या सरकार से नहीं अपितु समूची व्यवस्था परिवर्तन से है। सरकार ने संसद के सामने साजिशन अण्णा और उनकी सिविल सोसायटी को खड़ा करने की रणनीति को उसी वक्त अंजाम दे दिया था जब लोकपाल के गैर सरकारी मसौदे को सर्वदलीय विमर्श के लिए ले जाया गया था। कुल मिलाकर सरकार इस मसले को कानूनी बाधाओं और सियासी दांवपेंचों में कुछ इस तरह से उलझा दिया कि सियासतदारों को अण्णा संसदीय लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक नजर आने लगे। अण्णा के मजबूत जनाधार के खिलाफ चतुर यूपीए सरकार कानून और संवैधानिक मूल्यों की दुहाई को ढाल बनाकर आक्र ामक अब आक्रामक रणनीति अपना चुकी है। की तैयारी में है। सियासी स्वांग कुछ भी हो लेकिन संकेत बताते हैं कि जनलोकपाल की राह आसान नहीं है। ताजा परिदृश्य यही है कि तनातनी के बीच सिविल सोसायटी संसद के सामने खड़ी है और सरकार पूरी कुटिलता के साथ उसे घेर कर मारने का भ्रम पाल बैठी है। बेहतर तो यही होगा कि सरकार को यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि अन्ना अब देश के व्यापक लोकपक्ष का प्रतिनिधित्व करने की हैसियत में हैं।

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