वैश्विक पटल पर भारत भ्रष्टाचार के सूचकांक में 87 वें पर है। अपनी आजादी के 65 वें पायदान पर खड़ा दुनिया का सबसे बड़ा यह लोकतांत्रिक राष्ट्र क्या इतिहास दोहराने की राह पर है? या फिर यह महज भ्रम है कि इस देश की कुटिल सियासी संघीय सत्ता कूटनीतिक तौर पर एक बार फिर से लोकतांत्रिक मूल्यों को अपहृत करने की ताक में है? अभूतपूर्व भ्रष्टाचार के सवाल पर चोरी और सीना जोरी। आम आदमी को बेमौत मारती महंगाई पर आंकड़ों की हेराफेरी। सर्वोच्च अदालत, कैग और पीएसी जैसी स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं को ठेंगा दिखाते, अल्पमत लंगड़ी सरकार के सियासी झंडाबरदार आखिर चाहते क्या हैं? जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की इस सरकार को क्या लगता है कि एक अण्णा के आंदोलन को कुचल देने से देश की जनभावनाएं मर जाएंगी? शायद ऐसा ही गुमान आज सत्ता के साथ सरेआम खड़े विपक्ष को भी है। कहना न होगा कि अपनी दबाव समूह की भूमिका को विस्मृत कर विपक्ष ऐतिहासिक भूल कर रहा है। स्वतंत्रता दिवस की 64 वीं वर्षगांठ पर पिछले साल लालकिले की इसी प्राचीर से अर्थशास्त्रीय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में सिर्फ सौ दिन के अंदर महंगाई मार देने का वायदा किया था। महंगाई तो मरी नहीं मगर आम आदमी मर रहा है। अकेले यूपीए सरकार के कार्यकाल में संसद के अंदर महंगाई पर 10 बार बहस हो चुकी है मगर नतीजा क्या है? महंगाईकी बदौलत 3 साल में अगर कालाबाजारियों की जेब में 6 लाख करोड़ चले गए तो कौन जिम्मेदार है। अकेले 20 माह की महंगाई में 5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। देश की तीन चौथाई आाबादी पहले से ही यह दारूण दर्द भोग रही है। सच तो यह है कि गुलाम भारत को भुगत चुकी एक पूरी पीढ़ी का जीवन स्वतंत्र भारत में गरीबी से लड़ते-लड़ते मर गया है। नई पीढ़ी इस सच से नावाकिफ नहीं है कि इस अभिशाप की जड़ में भ्रष्टाचार है और इसके पीछे सियासतदारों और अफसरशाही का शक्तिशाली गठजोड़ है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तेजी के साथ सामाजिक चेतना का विकास हो रहा है वैसे-वैसे राजनीति का चाल,चेहरा और चरित्र भी सामने आ रहा है। बेहतर तो यह हो कि नैतिक तौर पर कोमा में जा चुकी गठबंधन सरकार इतिहास से सबक ले। 1989 में बोफोर्स तोप घोटाले पर कैग के खुलासे से दो-तिहाई बहुमतवाली तबकी राजीवगांधी सरकार बैकफुट पर आ गई थी। फर्क फकत इतना था कि तब-अब जैसा बिकाऊ विपक्ष नहीं था। वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंधी की तरह उठे राष्ट्रव्यापी आंदोलन के उफान ने 1989 के आम चुनाव में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी के र्धुे उड़ा दिए थे। यह दीगर बात है कि तब उन्हें सेंट किंट्स मामले में फंसाने की ठीक वैसी ही कोशिश की गई थी। जैसे आज गांधीवादी अण्णा हजारे पर कांग्रेस के बड़बोले कीचड़ उछाल रहे हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी के ऐसे ही नाजुक मुद्दे पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 37 साल पहले एक आंदोलन को राष्ट्रव्यापी स्वर दिए थे। यह वह दौर था जब इंदिरागांधी सरकार ने आपातकाल की दम पर लोकपक्ष का दमित करने की कोशिश की थी पर इंदिरा शासन के इस कुशासन का आखिर अंजाम क्या हुआ? एक सच यह भी है कि अब यह देश आपातकाल से नहीं डरता। इसे ऐसा डर दिखाने की भूल नहीं करनी चाहिए। सवाल अपनी जगह संजिदा हैं, क्या किसी लोकतंत्र के राज में दमन से जन भावनाएं मारी जा सकती हैं? क्या देश इतिहास दोहराने की राह पर नहीं है? लोकतंत्र में जवाबदेही और पारदर्शिता दोनों ही सत्ता के प्रति अनिवार्य शर्ते हैं लेकिन कांग्रेस की यूपीए सरकार इसकी अनदेखी कर देश को तानाशाही की ओर लिए जा रही है।
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