मंगलवार, 9 अगस्त 2011

ग्रामीण बाजार प्रबंधन में पंचायतों की भूमिका

असली भारत गांवों में रहता है। कृषि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है,लेकिन अन्नदाता किसान की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। गांवों के परंपरागत कुटीर उद्योगों के खात्मे के बाद गांवों की हाट बाजार व्यवस्था भी लगभग टूट चुकी है। किसान (उत्पादक)और उपभोक्ता के बीच बिचौलियों(दलालों)का एक बड़ा नेटवर्क सक्रि य है ,जो मात्र माध्यम होने के कारण मनमानी मुनाफा कमाता है। जबकि किसानों का वाजिब मूल्य तो दूर प्राय: लागत मूल्य तक नहीं मिल पाता है। दलालों के कारण वस्तु का दाम बढ़ने से इसका असर उपभोक्ता पर पड़ता है। जिसका लाभ सीधे बड़े व्यापारियों को मिलता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि आत्म निर्भर ग्रामीण बाजार
के अभाव के कारण जहां असली उत्पादक किसान भुखमरी का शिकार है। वहीं उपभोक्ता को सस्ती वस्तुओं के मनमानी दाम चुकाने पड़ रहे हैं और लाभ बड़े व्यापारी और दलाल कमा रहे हैं। आत्मनिर्भर ग्रामीण बाजार नहीं होने के कारण भ्रष्ट सरकारी तंत्र भी किसानों और ग्रामीण व्यापारियों का आर्थिक और मानसिक शोषण करता है।
1-हाट-बाजार :
ग्रामीण भारत की हाट की प्राचीन बाजार व्यवस्था की फिर से स्थापना ही एक मात्र रास्ता है। ताकि उत्पादक अपनी वस्तु को सीधे उपभोक्ता तक ले जाए। इससे उपभोक्ता को जहां वाजिब दाम पर वस्तु मिलेगी वहीं उत्पादक को भी उसका उचित दाम मिल सकेगा। वस्तु की गुणवत्ता की गारंटी भी सुनिश्चित हो जाएगी। निकटतम शहरों के साप्ताहिक बाजारों में पहुंच को और भी आसान किए जाने के उपाय भी इस मामले में अत्यंत लाभकारी साबित हो सकते हैं।
2- पंचायतीराज व्यवस्था:
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था वास्तव में ग्रामीण बाजार के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। गांवो का विकास मूलत: पंचायतीराज व्यवस्था पर ही निर्भर है। लेकिन सत्ता के विकेंद्रीकरण की यह व्यवस्था अभी सिर्फ ग्रामीण विकास के आधारभूत ढांचे को विकसित करने पर ही केंद्रित है। महात्मागांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा)की तर्ज पर पंचायतीराज व्यवस्था के तहत ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन को प्राथमिकता में लेकर हमारी केंद्र और राज्य सरकारें देश में जमीनी स्तर पर आर्थिक सुधारीकरण का मॉडल पेश कर सकती हैं।
3-जनभागीदारी और सरकारी सहयोग:
इसमें ज्यादा से ज्यादा जनभागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकारें समाजसेवी संगठनों और आमजन का सहयोग ले सकती हैं। इसके लिए कानून बना कर सरकार ग्राम पंचायत स्तर पर एक ऐसी एकल खिड़की खोल सकती है, जिसमें पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,कृषि,कृषि विस्तार,उद्योग,वाणिज्य एवं व्यापार विभाग और पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग जैसे संबंधित विभागों को एक छत के नीचे लाकर ग्रामीण बाजार प्रबंधन को फलीभूत किया जा सकता है।
4-कार्ययोजना:
ग्रामीण बाजार प्रबंधन में पंचायती राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसमें ग्रामीणों किसानों,गरीबों खासकर अनुसूचित जाति,अनुसूचित जन जाति, पिछड़ा वर्ग और महिलाओं की आत्म निर्भरता के लिए भी पृथक से कार्ययोजनाएं बनाई जा सकती हैं। प्रबंधन की प्रक्रिया को भी विस्तार से रेखांकित किया जा सकता है।
5- संदर्भ:
ग्रामीण बाजार के विकास और उसके प्रबंधन में पंचायती राज की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग,कृषि एवं विस्तार विभाग और वाणिज्य एवं व्यापार विभाग की विभिन्न कल्याणकारी विकास योजनाओं का भी अनुभवों को भी संदर्भ के रूप में देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ)के क्रियाकलापों का भी समग्र रूप से अध्ययन किया जा सकता है।
6- निष्कर्ष :
निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था के केंद्र ग्रामीण भारत में बाजार व्यवस्था का प्रबंधन और विकास वक्त की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह गरीबी निर्मूलन में भी अहम रोल अदा कर सकती है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि पंचायतीराज व्यवस्था इसके लिए अत्यंत आसान और कारगर मददगार साबित हो सकती है।

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