मंगलवार, 23 अगस्त 2011

मीडिया: आप तो ऐसे न थे

लोक के कदमों पर नतमस्तक तंत्र की लोकतांत्रिक शक्ति का यह अद्भुत दृश्य देखकर दुनिया दंग है। सिर्फ चंद घंटों में एक अभियान के यूं आंदोलित हो जाने का ऐसा अचरज सिर्फ विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में ही संभव है। गांधी की समाधि के समक्ष ध्यानस्थ एक गांधीवादी के शांत-चित्त चित्र जैसे ही दिलों में उतर कर मर्म तक मार करते हैं,दिल वालों की दिल्ली राजघाट की ओर सरपट दौड़ पड़ती हैऔर देखते ही देखते अहिंसा की अपार शक्ति से अभिभूत देश की तस्वीर तब देखते बनती है। संजीदा माहौल मगर तनाव का विचलन तक नहीं। चौतरफा जोश के साथ होश और गजब का जुनून। अतिशयोक्ति नहीं कि इसी क्षण अण्णा हजारे सविनय अवज्ञा के एक नए प्रबोधक बन कर उभरते हैं और किसी लोकनायक की तरह एक व्यापक जनवाद के स्वर मुखर होते हैं। ऐसा कैसे संभव है? महज 12 घंटे के भीतर कोई अभियान आखिर आंदोलन की शक्ल कैसे ले सकता है? किसी को जनमत एक झटके में बतौर लोकनायक कैसेअंगीकृत कर सकता है? असल में इस आंदोलन के नेपथ्य में एक ऐसा अभियान था जिसकी बुनियाद स्पष्टत: चार कारकों पर केंद्रित है। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार और जानलेवा महंगाई से आहत और तिरस्कृत बहुसंख्यक मध्यमवर्ग, न्यायिक सक्रियता की तर्ज पर मीडिया की अप्रत्याशित रूप से अति सक्रियता,सटीक मसले पर गैर राजनैतिक नि:स्वार्थ नेतृत्व की गारंटी और निरंकुश सत्ता के गलियारों में नक्कारखाने की तूती। यह श्रेय किसी एक को नहीं जाता है। इसमें अप्रकट रूप से उस आम धारणा की भी बड़ी भूमिका है जो सत्ता के साथ नौकरशाही और पूंजीपतियों के गठजोड़ को भ्रष्टाचार और इस भ्रष्टचार को महंगाई के लिए जिम्मेदार मानती है। कहना न होगा कि सोशल मीडिया के रास्ते एक ओर जहां यह अभियान नई पीढ़ी के फेसबुकिया इंडिया के कान भरता है वहीं अति उत्साही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने लाइव कवरेज में कदम-दर-कदम फॉलोअप और हर पल ताजा अपडेट से आंखे खोलता है।अपने परंपरागत आचरण के एकदम विपरीत मीडिया सरकारी कोपभाजन के दूरगामी नतीजों की फिक्र तक नहीं करता है। प्रोफेशनल मीडिया एकबारगी मार्गदर्शी मीडिया की नई भूमिका में अवतरित हो जाता है। सधे -सधाए संयमित न्यूज एंकर और सतर्क रिपोर्टर सनसनीखेज मसाला खबरों से बहुत दूर बमुश्किल तभी सूत्रों का हवाला देते हैं ,जब उन्हें लोगों से सीधे संवाद में अड़चन लगती है। चाहे वह तिहाड़ से अण्णा की रिहाई की अटकलें हों या फिर हिरासत में तबियत नासाज होने की अफवाहें। देश के साथ मीडिया निरंतर संवाद करता है। यह वही अभियान है जिसने एक अभियान को आंदोलन की शक्ति दे दी है। देश को मीडिया का स्वस्फू र्त समर्थन न केवल उससे जुड़े अब तक के तमाम मिथकों को तोड़ता है, अपितु सामाजिक सरोकार के प्रति अपनी संजीदगी को विश्वसनीय भी बनाता है। लोकपक्ष के इस दिव्य प्रकटीकरण के पीछे बेशक मीडिया की सकारात्मक समझ है। अखिल भारतीय स्तर पर यह पहला चमत्कारिक अनुभव है। जो साबित करता है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा पाया यूं ही नहीं है। बेलगाम विधायिका और अराजक कार्यपालिका के खिलाफ जब न्यायपालिका सक्रिय हो सकती है तो प्रेस अपनी भूमिका के प्रति निष्क्रिय कैसे रह सकता है?

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