वनभूमि को लेकर महाकौशल के चार जिलों की कहानी भी बघेलखंड से अलग नहीं है । यहां डिण्डोरी, मंडला, बालाघाट और सिवनी में सरकार के मुताबिक नक्सली की पैठ मजबूत हुई है। पूरे मध्यप्रदेश में बालाघाट की स्थिति सबसे संवेदनशील हैं। यहां नक्सली कितने असरदार हैं 1997 में परिवहन मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। सरकार के साथ आदिवासियों की जंगल के लिए लड़ाई यूं तो 1860 से चल रही है। वनाश्रित समुदाय जंगलों में वनोपज, निस्तार और चराई पर अधिकार चाहता है, वो जंगल से जीने के लिए न्यूनतम संसाधनों की मांग करता है, जबकि वन प्रबंधन इसे जंगलों पर बोझ मानता है। लिहाजा संघर्ष जारी है। याद करें, मंडला -बालाघाट में आदिवासियों और वनविभाग के संघर्ष ने 1990 में तब खतरनाक मोड़ ले लिया था । जब नक्सली इस क्षेत्र में दाखिल हुए। नक्सली अपनी गतिविधियों का विस्तार चाहते थे लिहाजा उन्होंने वनवासियों के साथ मिलकर 30 मई को कान्हा नेशनल पार्क में आग लगा दी। 15 दिन तक कान्हा के पांचों वनपरिक्षेत्र कान्हा, किसली(सूपखार), भैंसानघाट, और मुक्की जलते रहे। कान्हा की आग दुनियाभर में चर्चित हुई । इस वारदात के बाद वनभूमि और वनोपज पर वनाश्रित समुदाय को अधिकार दिए जाने की चर्चा और मांग गंभीरता से शुरू हुइ। अतिक्रमणकारियों का एक और सर्वे शुरू। जनवरी 1994 तक मंडला -डिण्डोरी में 20105 , बालाघाट में 6254 और सिवनी में 486 अतिक्र ामक पाए गए। मंडला डिण्डोरी में 12778 और सिवनी में 117 लोगों को और बालाघाट में 3622 को वैध मानते हुए प्रदेश सरकार ने भारत शासन की अनुमति के लिए प्रस्ताव बनाकर भेजा दिया,लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 1996 में आए सुप्रीमकोर्ट के आदेश के चलते सारी कार्यवाही थम गई। आदिवासी समुदाय एक बार फिर ठग लिया गया। बार -बार की इस हार और वन विभाग से लगातार मिल रहे विस्थापन ने उन्हे आंदोलित कर दिया। ऐसे में यह लोग नक्सलियों द्वारा आसानी से बहकाए जा सकते थे, यह बात नक्सली अच्छे से समझते थे, इधर राज्य सरकार भी केंद्र से वनाश्रितों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटाने के लिए कानून बनाने की मांग कर रही थी क्योंकि आदिवासी हमेशा से चाहते थे कि उनके क्षेत्र का प्रबंधन उनकी आवश्यक्ताओं और परम्पराओं के अनुसार हो, इसी भावना को लेकर 1996 में पेसा कानून लाया गया। संयुक्त मध्यप्रदेश भारत का वो पहला राज्य था जिसने इस कानून को गंभीरता से समझा और इसे अमली जामा पहनाने का काम शुरू किया लेकिन सारी कवायद अधूरी ही छूट गई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते बीच में कई समस्याएं सामने आ गईं। पेसा कानून पर ही यदि गंभीरता से अमल हो जाता तो समस्या इतनी बड़ी नहीं होती। पेसा कानून के पालन में दुश्वारियों के चलते एक नए कानून को बनाने की मांग उठने लगी जो वनाश्रित समुदायों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटा सके। यूपीए सरकार ने आते ही इस दिशा में प्रयास शुरू किए। फलत: अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून 2006 के रूप में हमारे सामने आया, लेकिन तब तक वन विभाग पूरे प्रदेश से 49577 काबिजों को बेदकल कर चुका था। इसके अलावा 12111 कृषि और 376 आवासीय पट्टों को भी निरस्त किया जा चुका था। आज भी इस कानून के तहत सर्वाधिक पट्टे मध्यप्रदेश में ही निरस्त हुए हैं। इतने बड़े पैमाने पर हुई बेदखली की कार्यवाही ने आदिवासियों को और आक्र ोशित कर दिया। अपने खेत- खलिहान और पारम्परिक धंधों से वंचित आदिवासी समुदाय पेट पालने के लिए आज या तो शहरों की ओर पलायन कर रहा है या फिर अपने क्षेत्रों में मजदूरी करने को मजबूर हो चुका है। ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाले काम का ही उसे एकमात्र आसरा है, लेकिन प्रदेश में मनरेगा में भी कितना भ्रष्टाचार है यह सभी जानते हैं। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बालाघाट, मंडला, डिण्डोरी, शहडोल, उमरिया और सीधी में मनरेगा के तहत भारी गड़बिड़यां होने की बात कही है। इन जिलों में अपनी रिपोर्ट में सीएजी ने मस्टररोल की विश्वसनियता पर ही कई सवाल उठाए क्योंकि अधिकांश स्थानों पर मस्टर रोल कार्यस्थल से गायब मिले। मस्टररोल को जारी करने की तिथि उस पर नहीं मिली। कार्यो का कोड नम्बर तथा जॉबकार्ड नम्बर भी मस्टररोल पर अंकित नहीं किए गए, श्रमिकों की उम्र और गांव का नाम अधिकांश जगह नहीं मिला। भुगतान के प्रमाण पत्रों के अभिलेख नहीं मिल। मस्टररोल में कांट-छांट। ओवर राइिटंग तथा सफेदी लगाकर अंक बदलने के मामले भी सामने आए। डिण्डोरी में तो नरेगा के अंतर्गत नाबालिगों को भी रोजगार दे दिया गया। सीधी की सरई ग्राम पंचायत में ग्रामीण यांत्रिक विभाग के कार्यों में तो काम होने से पहले ही मजदूरों को भुगतान करने का मामला सामने आया । सीएजी ने ऑडिट अवधि में योजना मद की राशि जनपद पंचायतों द्वारा ग्राम पंचायतों को एक से आठ मे महीने की अनावश्यक देरी से जारी करने पर भी आपत्तिा उठाई है। नरेगा में खुले आम चल रही गड़बिड़यों का अंदाजा मध्यप्रदेश राज्य रोजगार गारंटी परिषद् की शिकायत शाखा द्वारा तैयार रिपोर्ट से लगता है कि अब तक मनरेगा में गड़बड़ियों के चलते पूरे प्रदेश में 113 सरपंच अपनी कुर्सी गंवा चुके तथा 9 सरपंचों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। इसके अलावा 502 पंचायत सचिवों के खिलाफ कार्यवाही की गई है। साथ ही 140 सब इंजीनियर और 68 जनपद सीईओ के खिलाफ भी कार्यवाही हुई है जिसमें से 14 को निलंबित भी किया जा चुका है। आदिवासी समुदाय अपनी जमीन तथा पारम्परिक उद्योगधंधों से उखड़ चुके हैं, विकास की दौड़ में जनजातियों की जीविका के आधार जल जंगल और जमीन की अंधाधुंध लूट के चलते जनजातियों को तीव्र गति से हाशिए पर ला खड़ा किया है। आज़ाद भारत में आदिवासी अपनी उपेक्षा से दुखी हैं। वो शोषण की शिकायत करता है, ऑटोनामी का नारा देता है,वर्तमान को वे खण्ड खण्ड में देखने का आदि हो गया है, भविष्य का उसके पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। शायद आदिवासी हीनभावना का शिकार हो गया है। इसीलिए वर्तमान व्यवस्था के प्रति जनजातियों में घोर असंतोष है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के चमत्कारिक उदय और नक्सलवाद के प्रति बढ़ते रूझान के पीछे यही कारण है, लेकिन आज भी हम तीन तरीकों से इस समस्या से निपट सकते है, पहला आदिवासियों को उनकी भूमि पर अधिकार लौटाकर हम ऐतिहासिक अन्याय की क्षमायाचना कर सकते है ं। यह अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून के जरिए संभव है। दूसरा आदिवासियों को उनके क्षेत्नों की व्यवस्था उनके हाथों में सौंप कर, ताकि वे अपना विकास अपने तरीकों से कर सके यह पेसा कानून के तहत संभव है और तीसरा जनजातिय क्षेत्नों में मनरेगा का ईमानदारी से संचालन कर हम उन्हे तत्काल राहत दे सकते हैं, इन तीनों का एक साथ प्रयोग कर हम नक्सलवाद की समस्या से निपट सकते हैं। बस इसके लिए इमानदार प्रशासन की आवश्यकता है।
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