भारत-पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की मुलाकात का कुल जमा लब्बोलुआब यही है कि इस मसले पर भारतीय नेतृत्व की कोई भी खुशफहमी उसी पर भारी पड़ सकती है। पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के अंदाज और अंदाज-ए-बयां पर न तो मंत्र मुग्ध होने की जरूरत है और न ही आत्ममुग्ध होने की आवश्यकता है। भारतीय नेतृत्व अगर इस द्विपक्षीय वार्ता को एक बड़ी कामयाबी मानता है तो वह खुद भी धोखे में है और देश को भी धोखा दे रहा है। भारत की धरती पर कदम रखते ही हिना ने अलगाववादियों से मुलाकात कर साफ कर दिया कि चेहरे बदल लेने से मंशा नहीं बदल जाती है। हुर्रियत के दोनों नेताओं से अलग-अलग मुलाकात कर उन्होंने यह भी संकेत दे दिए हैं कि कश्मीर मसले पर भारत विरोधियों का साथ ही उनकी प्राथमिकता है। जबकि हिना को अलगाववादियों से मुलाकात की इजाजत इस शर्त पर दी गई थी कि बातचीत के दौरान विदेश मंत्री एमएम कृष्णा मौजूद रहेंगे और मुलाकात विदेश मंत्रियों के साथ बैठक के बाद ही होगी लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर प्रौढ़ भारतीय नेतृत्व में गच्च देकर हिना ने लगे हाथ यह भी बता दिया कि वह कच्ची खिलाड़ी नहीं हैं। कश्मीर पर पाक का नापाक मकसद तो साफ है लेकिन भारत सरकार की नीयत भी कुछ ठीक नहीं लगती है। क्या,लाइन ऑफ कंट्रोल में आवाजाही और कारोबार की बाधाएं दूर कर कश्मीर के लिए यात्र शर्तो में छूट देने के भारत के समझौते का यह सही वक्त है? क्या यह पाकिस्तान के सामने बिछ जाने जैसा नहीं है। भारत की पाक पर मेहरबानी का यह इकलौता उदाहरण नहीं है। याद करें, 26/11 के मुंबई धमाकों के बाद भारत ने ही पाकिस्तान के साथ बातचीत पर पाबंदी लगाई थी। बातचीत फिर से बहाल करने की पहल भी अंतत: भारत ने की और अब दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री स्तरीय बैठक तब हुई जब मुंबई में फिर से हुए धमाके के जख्म अभी भी ताजा हैं लेकिन बैठक रद्द करना तो दूर भारत ने 13/7 के मुंबई धमाकों के लिए पाकिस्तानी हाथ होने के आरोप तक नहीं लगाए। इतना ही नहीं सरकार ने सहज रूप से मान लिया कि हमले में इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू चरमपंथियों का हाथ है। इस तर्क के दौरान भारतीय गृह मंत्रलय यह भी भूल गया कि उसी की जांच और सुरक्षा एजेंसियां कई बार यह साबित कर चुकी हैं कि इंडियन मुजाहिदीन के तार विदेशी आतंकवादियों से जुड़े हैं। सब जानते है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पर सैन्य शासन चलता है। अत: ये राजनीतिक कवायदें गले नहीं उतरती हैं। अब यकीन तभी किया जा सकता है, जब बातचीत का असर जमीनी स्तर पर दिखे। सरहद पार से घुसपैठ बंद हो। पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकी अड्डे नष्ट किए जाएं और आतंकी हमलों का सिलसिला खत्म हो,लेकिन दूर-दूर तक ऐसी उम्मीद फिलहाल नहीं दिखती है। दोस्ताना रिश्तों के सवाल पर पाकिस्तान के साथ भारतीय अनुभव
बताता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। बावजूद इसके अगर पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नसीहत को भारत मान भी ले तो आप आखिर अतीत को कैसे भूल सकते हैं वह भी तब-जब राष्ट्रीय अस्तित्व और अस्मिता का संकट ही अतीत की जड़ों में पैबस्त हो । इतिहास से सबक लेने का तकाजा तो यही है कि हम अब और एतिहासिक भूलों की ओर आगे न बढ़ें। कम से कम अतीत को भूल कर पाकिस्तान से किसी नए अध्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
बताता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। बावजूद इसके अगर पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नसीहत को भारत मान भी ले तो आप आखिर अतीत को कैसे भूल सकते हैं वह भी तब-जब राष्ट्रीय अस्तित्व और अस्मिता का संकट ही अतीत की जड़ों में पैबस्त हो । इतिहास से सबक लेने का तकाजा तो यही है कि हम अब और एतिहासिक भूलों की ओर आगे न बढ़ें। कम से कम अतीत को भूल कर पाकिस्तान से किसी नए अध्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
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