मंगलवार, 9 अगस्त 2011
प्रदेश सरकार का परदेशी मोह
मध्यप्रदेश के आम बजट का प्रारूप अंतरराष्ट्रीय वित्त सलाहकार संस्था प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स(पीडब्ल्यूसी)से बनवाने के राज्य शासन के फैसले पर अर्थशास्त्रियों की आपत्ति वाजिब लगती है। यह सरकारी फैसला तब और गंभीर हो जाता है, जब राजकीय अर्थव्यवस्था से जुड़े नाजुक मामले में नीतियों के निर्धारण का जिम्मा पीडब्ल्यूसी जैसी ऐसी विदेशी संस्था को सौंपे जाने की बात चलती है,जिस पर हैदराबाद के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक जैसी गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के चलते भारतीय रिजर्व बैंक ने पहले से ही उस पर पाबंदी लगा रखी हो। प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स की लेखा परीक्षा सेवाएं लेने पर प्रतिबंध का यह कोई इकलौता मामला नहीं है। सवाल यह है कि क्या मध्यप्रदेश सरकार के वित्तीय सलाहकार इतना भी नहीं जानते कि सूचना प्रौद्यागिकी के क्षेत्र में अब तक भारत की चार बड़ी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनियों में शुमार रही सत्यम कंप्यूटर कंपनी के बहुचर्चित 8 हजार करोड़ के घोटाले में पीडब्ल्यूसी की भूमिका किस कदर संदिग्ध रही है? सत्यम कंपनी के खातों में हेराफेरी की सहभागीदारी रही पीडब्ल्यूसी वही अंतरराष्ट्रीय वित्त सलाहकार संस्था है, जिसके खिलाफ मुंबई की स्माल इन्वेस्टर ग्रीवांसेज एसोसिएशन ने शेयर मार्केट की नियामक संस्था सेवी से स्थाई प्रतिबंध की मांग की थी। केतन पारेख शेयर मामले और डीएसक्यू सॉफ्टवेयर घोटाले को लेकर पीडब्ल्यूसी के खिलाफ इसकी भारत में स्थित परसंपत्तियां जप्त करने की मांग जब-तब उठती रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक हो चुकी यह कंपनी अब पूरी दुनिया में बदनामी की ओर है। दो साल पहले ही ब्रिटेन में व्यवसाय को वियनियमित करने वाली संस्था लेखा एवं बीमांकिक अनुशासन बोर्ड पशुधन लेखांकन में अनियमितिता पर इसके सब प्राइम लेंडरों के खिलाफ जांच बैठा चुकी है। जापान स्थित इसकी सहयोगी कंपनी छाओओयामा पर भी पहले से ही ऐसी ही पाबंदी है। यूं तो दुनिया की सबसे बड़ी प्रोफेशनल कंपनियों में शुमार पीडब्ल्यूसी विश्व की चार बड़ी लेखा फर्मो में भी एक है लेकिन इसका आशय यह तो नहीं कि अंतरराष्ट्रीय मानकों पर स्थानीय कर,मूल्य निर्धारण, लेनदेन ,व्यापक रिकवरी , कारपोरेट, वित्त, व्यापार, मूल्यांकन और लेखा सुधार के सेवा क्षेत्र में अग्रणी इस कंपनी पर बजट मैनुअल जैसे अहम मसले के लिए यूं ही आंख बंद करके यकीन कर लिया जाए? आरोप है कि राज्य शासन के पास पीडब्ल्यूसी के तकबरीबन दो सौ करोड़ के अनुदान भी हैं। इन आरोपों में कितना दम है यह तो जांच का विषय है? मगर इतना तय है कि कोई भी विदेशी कंपनी अनुदान देकर हमारी राजकीय वित्तीय नीतियों के निर्धारण का अधिकार आखिर कैसे हासिल कर सकती है? ऐसे में पीडब्ल्यूसी जैसी बदनामशुदा और दागदार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सलाहकार कंपनियों की सलाह पर बजट प्रारूप का निर्माण किंचित मात्र भी उचित नहीं है। दुनिया में ऐसे साफ सुथरे वित्तीय सलाहकारों और प्रबंधकों की कमी नहीं है जो राज्य शासन की इस कमी को पूरा न कर सकें। जहां तक राज्य सरकार का सवाल है तो मध्यप्रदेश की आवश्यक नीतियों के निर्धारण में विदेशी मोह कोई नई बात नहीं है। सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश सरकार की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है। स्वास्थ्य नीति के नाम पर डेनमार्क की एक कंपनी डेनिडा का 9 साल पुराना एक ड्रॉफ्ट है,जो प्रदेश में खराब स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकार के बजाय नागरिकों को दोषी मानता है और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की वकालत करता है। गनीमत है राज्य शासन की दवा नीति विदेशी प्रारूप पर निर्भर नहीं है लेकिन एक सच यह भी है कि प्रदेश में दवाओं का दर निर्धारण जहां तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कॉरपोरेशन करता है,वहीं सरकारी दवाओं की खरीदी के लिए दवा उत्पादक कंपनियों के नाम चैन्नई की आईएमएनएससी सुझाती है।
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