योजना आयोग ने नक्सल प्रभावित इलाकों का सामाजिक आर्थिक अध्ययन कर एक एक शोध पूर्ण रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह से आदिवासियों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग के हाथों से जीवन निर्वाह के संसाधन छीने गए हैं। सरकारी योजनाएं कहां विफल हुईं। मध्यप्रदेश में बघेलखंड और महाकौशल के के आठ जिले आदिवासी बहुल्य हैं। जंगल,वनोपज और खेती ही आजीविका का साधन। दशकों से हुई सरकारी कार्यवाहियों में उन्हें वन बेदखली के सिवाय कुछ नहीं मिला। बघेलखंड में इसकी शुरूआत 1937 में हुई। जब तत्कालीन रीवा रियासत ने 8 फरवरी 1937 को एक आदेश पारित कर, नगरीय सीमा तथा ग्राम की निजी भूमि या केंटूनमेंट बोर्ड की भूमि को छोड़कर शेष सभी भूमि को रीवा फॉरेस्ट एक्ट की धारा 29 के तहत वनभूमि मान ली गई। यह जमीन तब राजस्व अभिलेखों में बड़े झाड़ का जंगल, छोटे झाड़ का जंगल, पहाड़ ,चट्टान, चरनोई, घास मैदान, जंगलखुर्द और जंगलात मदों में दर्ज की गई। इससे पहले ये जमीनें गांव की सामुदायिक भूमि हुआ करती थीं। जिन पर सामाजिक रीति रिवाजों के तहत आम निस्तार होता था। पूरे समाज की सामाजिक आर्थिक गतिविधियां संचालित होती थीं। 1947 में भारत की आजादी के बाद भूमिहीनों को जमीनें देने के इरादे से स्वामित्वाधिकार उन्मूलन अधिनियम के तहत मालगुजार, जमीदार, और जागीरदारी तोड़कर भूअजर्न कर लिया गया। इससे पहले की राजस्व विभाग कुछ करता वन विभाग ने रीवा स्टेट के आदेश को मानते हुए 1950 में सर्वे और डिमार्केशन का काम शुरू कर दिया संविधान लागू होने के पश्चात अनुच्छेद 13 के तहत रीवा राजदरबार द्वारा की गई कार्यवाहियों का परीक्षण करने की बजाए, 1954 में मध्यप्रांत की सरकार तथा राज्य पुनर्गठन के पश्चात 1958 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचना का प्रकाशन कर निस्तार प्रयोजन की सामूदायिक भूमि को संरक्षित वनभूमि बना दिया गया। सीधी और अविभाजित शहडोल (शहडोल,उमरिया,अनूपपुर सहित) में भी 1970-71 तक जमीनों का सर्वे और डिमार्केशन होता रहा। 1950 से 1972 के बीच चार जिलों के हजारों गांव की लाखों हैक्टेयर भूमि शामिल की गई। जिसमें पूर्वी सीधी में 793 गांव की कुल 273428.243 हेक्टेयर भूमि, पश्चिमी सीधी की 1083 गांव की 142364.043 हेक्टेयर भूमि , उत्तर शहडोल के 621 गांव के 113700.500 हेक्टेयर भूमि दक्षिण शहडोल के 975 गांव की 132198.000 हेक्टेयर भूमि तथा उमरिया के 574 गांव की 94032.000 हेक्टेयर जमीने शामिल थीं। वन विभाग यहीं तक सीमति नहीं रहा। उसने इन जिलों की हजारों हेक्टेयर निजी भूमि भी बिना मुआवजे के वर्किग प्लान में शामिल कर ली। पूर्वी सीधी में करीब 360.052 हेक्टेयर, पश्चिमी सीधी में 583.867, उत्तर शहडोल में 1754.346, दक्षिण शहडोल में 889.017 हेक्टेयर, उमरिया में 1180.167 हेक्टेयर तथा अनूपपुर में 1235.466 हेक्टेयर निजी भूमि भी वन विभाग ने अपने अधिकार में ले ली। किसान जहां इन जमीनों की खेती से वंचित हो गए वहीं वनोपज से होने वाली आय भी उनके हाथ से चली गई। सर्वे के बाद इन जिलों में करीब 414950.821 हेक्टेयर भूमि ही संरक्षित वन के योग्य नहीं पाई गई।क्योंकि यहां या तो खेती हो रही थी या फिर ये सघन आबादी के क्षेत्र थे। यह गैर उपयोगी जमीन को वन विभाग ने राजस्व विभाग को सौंप दी । भूमि हस्तांतरण की इस प्रक्रिया में कई ऐसे भूखंड छूट गए जिन्हें वन विभाग ने अपने रिकार्ड से नहीं हटाया और ये भूखंड राजस्व के रिकार्ड में भी दर्ज हो गए। नतीजतन नई समस्याएं खड़ी हो गईं। और इस तरह से पुश्तैनी तौर पर इन लाखों एकड़ भूखंड से पेट पाल रहे लाखों लोग सरकारी भाषा में अतिक्रमणकारी कहलाए जाने लगे। उन पर बेदखली की कार्यवाही शुरू हो गई। सियासी रोटियों को सेकने का सिलसिला भी शुरू हो गया। 1970 के बाद पट्टे देने की बात चली। अब अतिक्रमणकारियों का सव्रे शुरू हुआ,लेकिन इससे पहले की पट्टे मिलते। वन संरक्षण अधिनियम 1980 आ गया और वन, राज्य सूची से हटाकर संवर्ती सूची का विषय बना दिया गया। केंद्र ने पुन: एक सव्रे की कवायद शुरू ही की थी कि 1996 की 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने टीएन गोधाबर्मन केस पर वन भूमि की व्याख्या कुछ इस तरह से कर दी कि जो भी जमीन किसी भी सरकारी रिकार्ड में संरक्षित या आरिक्षत वन रही हो उसे वनभूमि माना जाएगा, इस आदेश से तो मध्यप्रदेश के वनविभाग द्वारा बघेलखंड में की गई सारी कार्यवाहियों पर स्वीकृति की न्यायिक मुहर लग गई, फिर क्या था वन विभाग ने हजारों लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल करना शुरू किया जो अब भी जारी है।
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