सवारी बैठाने को लेकर हुए विवाद में एक बस के ड्राइवर-क्लीनर ने दूसरी बस के गेट बंद कर यात्रियों को बंधक बनाया और आग लगा दी। बड़वानी जिले में सेंधवा के करीब दिनदहाड़े हुई इस लोम हर्षक वारदात में 10 यात्री जलकर भस्म हो गए। 4 मरणासन्न हैं। गंभीर रूप से जख्मी 15 अन्य यात्रियों का इलाज चल रहा है। मरने वालों में ज्यादातर बच्चे और महिलाएं हैं क्योंकि वे लोग खिड़कियों से कूद कर भाग नहीं पाए थे। बालसमुद स्थित जिस चेक पोस्ट पर यह नरसंहार हुआ वह राज्य की अंतरराज्यीय सीमा पर स्थित प्रदेश सरकार की सबसे लाड़ली चेकिंग चौकी है। यह चौकी सरहद पर स्थित कुल 24 चेकपोस्टों में से न केवल सबसे ज्यादा कमाऊ है बल्कि मध्यप्रदेश का इकलौता हाईटेक चेक पोस्ट भी है। हर माह लगभग 50 लाख का राजस्व कमाने वाला यह वही चेकपोस्ट है, जहां तैनाती के लिए पुलिस-परिवहन और वाणिज्यिक विभाग का अमला बड़ी से बड़ी बोली लगाने में भी पीछे नहीं रहता है। सवाल यह है कि वारदात के समय ये सरकारी सूरमा आखिर कहां थे? इस लोमहर्षक कांड पर मुख्यमंत्री के दर्द को भी समझा जा सकता है। जिन परिवारों पर पीड़ा का असहनीय पहाड़ टूटा है, उन्हें शायद ही अधिकतम सरकारी इमदाद भी जरा सी राहत दे पाए? लेकिन कानून अपना काम कर रहा है। कलेक्टर ने मजिस्ट्रीयल जांच के आदेश दे दिए हैं। कहते हैं, अपराधी भी पुलिस के हाथ लग गए हैं। बिस्तर पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे यात्रियों को अफसर अस्पताल पहुंच कर पुचकार आए हैं। फौरी तौर पर सरकार जो कर सकती थी कर रही है। इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है। दोष तो उन बेकसूरों का था जो बेमौत मारे गए। उनका गुनाह यही था कि वे अराजक व्यवस्था में रहने को मजबूर थे। एक ऐसी व्यवस्था जहां किसी को यह जानने की फिक्र नहीं है कि यात्री बसें आखिर एक ही रूट पर एक ही समय पर परस्पर ओवरटेक करते हुए किस नियम के तहत चलती हैं? प्रदेश की कमोबेश सभी 681 अराष्ट्रीयकृत मार्गो पर बेलगाम दौड़ रहीं 15 हजार से भी ज्यादा यात्री बसों का यही रवैया है। लंबी दूरी की बसों के टुकड़ों में परमिट देखने वाला कोई नहीं है। अवैध बसों का भी कोई हिसाब नहीं है। यात्री सुविधा,सुरक्षा और किराया दर की निगरानी के सरकारी उड़न दस्ते कागजों पर दौड़ रहे हैं। मनमानी मुनाफे के लिए देखते ही देखते राज्य सड़क परिवहन निगम को ताकतवर परिवहन माफिया किस तरह खा गया,सब जानते हैं। निगम के बंद होने के बाद निजी बसों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रदेश के भौगोलिक हालात ऐसे हैं कि रेल का व्यापक विस्तार संभव नहीं है। आज भी तमाम जिला मुख्यालयों में रेल की कल्पना तक कठिन है। स्लीपर कोच बसों के लिए कानून तो है लेकिन किराए का कंट्रोल सरकार के पास नहीं है। खुली परमिट नीति, एकीकृत व्यवस्था की जगह स्वस्फूर्त किराया नीति,मोटरयान कर के त्रिस्तरीय परंपरागत प्रबंधों के विपरीत मुक्त सरल कराधान जैसे बस ऑपरेटर्स को उपकृत करते उपाय अपनाने में तो सरकार सबसे आगे है,लेकिन राजमार्गो पर ट्रामा सेंटर,ट्रांजिट सिस्टम,इलेक्ट्रॉनिक चेकपोस्ट और फिटनेस चेकिंग जैसे उसके अपने ही नीतिगत दावे धूल फांक रहे हैं। ऐसे में यह भ्रम स्वाभाविक है कि शायद सरकार परिवहन माफिया के कदमों पर नतमस्तक है। सड़क पर जिस की लाठी उसी की भैंस है।
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