मंगलवार, 9 अगस्त 2011

सभ्य संसदीय आचरण का संकट


15 वीं लोकसभा के आठवें सत्र का दूसरा दिन भी अंतत: हंगामे की भेंट चढ़ गया। सब जानते हैं कि संसद का यह सत्र देश में व्यापक जनहित के लिए कितना महत्वपूर्ण है। देश महंगाई,भ्रष्टाचार, आतंकवाद,और अांतरिक सुरक्षा जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है । संसद पर भी निरंतर काम का बोझ बढ़ रहा है। 83 विधेयक पहले से प्रस्तावित हैं। 35 नए विधेयक कतार में हैं। लेकिन सियासी खेमे सिर्फ स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और शक्तिसंपन्न साबित करने पर तुले हुए हैं। सत्ता हो या विपक्ष सवाल यह है कि आखिर सभ्य संसदीय आचरण क्या है? संसद का शांतिपूर्ण संचालन या फिर यूं ही आरोप-प्रत्यारोप और हंगामा। संसद के मानसून सत्र से पूर्व लोक सभाध्यक्ष अध्यक्ष द्वारा सर्वदलीय बैठक के आयोजन की संवैधानिक परंपरा का अर्थ ही यही है कि विधायी कार्य प्रभावित नहीं होने पाएं लेकिन इस कयावद के फौरन बाद बजरिए बयानबाजी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस तरह से एलान-ए-जंग कर दिया उससे साफ जाहिर है कि सरकार स्वयं सदन के शांतिपूर्ण संचालन के प्रति गंभीर नहीं है। इससे पहले संसद का शीतकालीन सत्र जिस टेलीकॉम घोटाले की भेंट चढ़ गया था आज वही स्कैंप अब और भी ताकतवर हो गया है। अब तो स्वयं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी आरोपों की आंच से जल रहे हैं। संसद के विधायी कार्यो को बाधित होने से बचाना वस्तुत: सरकार की जिम्मेदारी होती है और सरकार इस दायित्व का निर्वाह सिर्फ तभी कर सकती है जब वह विपक्ष के मुद्दों को नजरअंदाज न करे मगर विडंबना यह है कि विपक्ष का ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है सरकार जिसका आंखों से आंखे मिलाकर मुकाबला कर सके। कालाधन समेत जनहित से जुड़े तमाम अहम मामलों में सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रूख, कमजोर जनलोकपाल पर अण्णा हजारे की अड़ी, तीन अति चर्चित घोटालों पर कैग की रिपोर्ट और यूपीए के आगे एकजुट विपक्ष के साथ थोड़ा कम भ्रष्ट एनडीए के मोर्चाबंदी से केंद्र सरकार बैकफुट पर है। मतदान नियम के जरिए सदन में चर्चा से बच रही सरकार यह भी जानती है कि उसके पास सच कहने के लिए कुछ भी नहीं है। भाजपा किसी भी हालत में मैनेज होने को तैयार नहीं लगती है। अंदरखाने का सच तो यह है कि संसद के अंदर कांग्रेस के नेतृत्ववाली गठबंधन सरकार सरकार में से सिर्फ कांग्रेस ही बची है। यूपीए के दीगर सहयोगी दल उसके साथ खड़े नजर नहीं आते हैं। ममता बैनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस और तृणमूल में जिस तरह से फासले बढ़े हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं। तृणमूल ने पश्चिमी बंगाल के लिए विशेष पैकेज की मांग को लेकर केंद्र पर दबाव बनाने का फरमान जारी कर जहां कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं,वहीं कनिमोझी की रिहाई पर ही डीएमके भी कांग्रेस से दिल मिलने की शर्त रख चुकी है। एक और अहम सहयोगी दल एनसीपी के मौकापरस्त शरद पवार कब,क्या गुल खिला दें कुछ कहा नहीं जा सकता है? ऐसे मौकों पर कांग्रेस की संकट मोचक सपा-बसपा भी यूपी में आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्ेनजर कांग्रेस से दूरी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझ रही हैं। सच तो यह है कि सत्ता में सहयोगी तीन सांसदों के जेल जाने और तेलंगाना मसले पर कांग्रेस के एक दर्जन सांसदों के इस्तीफे के बाद भी यूपीए सरकार सिर्फ संख्या बल की दम पर जीवित है। वह अपना नैतिक बल खो चुकी है। लोकपाल के सवाल पर सर्वदलीय एकजुटता भले ही हो लेकिन महिला आरक्षण एक ऐसा मसला है जो विपक्ष की एकजुटता को बिखेर सकता है लेकिन सरकार जानती है कि सिर्फ इतना काफी नहीं है। शायद शोर-शराबा और संसदीय कार्य में बाधा ही टाइम पास का सबसे अच्छा रास्ता है।
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Rohit Mishra

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