शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
एक गरीब की मौत पर संवेदनाओं का कर्मकांड
बीमारी से ज्यादा गरीबी पर कुर्बान नरपत अपने आखिरी सफर में भले ही कफन-दफन को तरस गया हो,लेकिन अपने पीछे वह सोती सरकार को झकझोर जरूर गया है। यह बूढ़ा शख्स एक ऐसा सवाल खड़ा कर गया है ,जो शायद ही इससे पहले कभी उठा हो? असल में इस खुदगर्ज जमाने से जाते-जाते नरपत गरीबों की मौत पर अंतिम संस्कार के लिए सरकारी आर्थिक सहयोग के प्रावधान की बुनियाद रख गया। छतरपुर के नारायण बाग का नरपत टीबी से तस्त्र था और बीमारी से ज्यादा गरीबी की असहनीय यंत्रणा उसे भीतर तक तोड़ चुकी थी। मौत तय थी। पत्नी सावित्री के सिवाय उसका अपना कोई नहीं था। अपना कहने को कुछ और था तो वह थी , घास फूस की छोटी सी झोपड़ी। बुजुर्ग बेसहारा दंपत्ति की महज इतनी ही दुनिया थी। कफन-दफन के लिए भीख मांग कर लकड़ियां जुटाई गईं तो वह भी कम पड़ गईं। सावित्री ने अपनी झोपड़ी के छप्पर भी चिता में स्वाहा कर दिए लेकिन बावजूद इसके लाश अधजली रह गई। इसी बीच कुछ समाजसेवियों ने मदद के लिए सरकारी नुमाइंदों के आगे हाथ पसारे मगर कलेक्टरसे कमिश्नर तक मदद का सवाल कानून-कायदे , शासकीय प्रावधान और सरकारी सिस्टम में ही उलझ कर रह गया। बदले में अफसरशाही से रटा-रटाया टका सा जवाब मिला कि सिर्फ लावारिश शवों को दफनाने के लिए पैसे का प्रावधान है। राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर भी मानते हैं कि नरपत जैसे मामलों में अंतिम संस्कार के लिए सरकारी तौर पर आर्थिक मदद का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन अब ध्यान में आई इस मांग पर विचार होगा। सवाल यह है कि निपट निर्धन नरपत को अब आखिर चाहिए ही क्या था? दो गज जमीन,थोड़ा सा कफन और महज एक चिंगारी आग ही संवेदनाओं की इस चिता के लिए बहुत ज्यादा थी। इसी छतरपुर में 6 माह के अंदर अंतिम संस्कार की ऐसी दूसरी घटना है। सच तो यह है कि प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े बुंदेलखंड में संवेदनाओं के ऐसे कर्मकांड इस अंचल की नीयति बन चुके हैं। मध्यप्रदेश का बुंदेलखंड वस्तुत: सिर्फ एक संबोधन नहीं है। खनिज-वनज संपदा से लबालब यह वही खूबसूरत अंचल है, जहां के बेशकीमती हीरों की दुनिया दीवानी है। बेहतरीन ग्रेनाइट, एक से बढ़ कर एक नैसर्गिक पर्यटन स्थल और मंदिरों के शहर। मगर इस पहचान की बुनियाद में बदहाली बहुत गहरे से पैबस्त है। केंद्र के अलावा एमपी-यूपी सरकारों को बुंदेलखंड से सालाना 500 अरब की राजस्व आय होती है। मध्यप्रदेश सरकार को अकेले पन्ना के हीरों की नीलामी से 1400 करोड़ का मुनाफा होता है। प्राय: आरोप लगते रहे हैं कि केंद्र -राज्य सरकारें स्थानीय विकास में इस आय का 20 प्रतिशत भी खर्च नहीं करती हैं। बुंदेलखंड के 56 फीसदी मूल बासिंदे पलायन कर चुके हैं। अवर्षा अभिशाप है। सात नदियों के इस अंचल की सूखा विकट समस्या है। खेत सूखे हैं और पेट भूखे । न पास में रोजगार है और न दूर-दूर व्यापार की उम्मीद है। एक सैम्पल सर्वे कहता है, बुंदेलखंड के 68 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं कि गरीबी ही इस अंचल की भाग्य रेखा है। सीमांत किसान साहूकारों के चंगुल में हैं। कहना न होगा कि नरपत ऐसे ही एक दयनीय सामाजिक जीवन की प्रतिनिधि है।
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