लंबे अर्से से सुर्खियों में रही हिंदी फीचर फिल्म आरक्षण अंतत: रूपहले पर्दे पर आकर छा गई। भयावह सियासी आशंकाओं के विपरीत आश्यर्च तो यह है कि न तो कहीं सामाजिक वैमनस्यता की सुगबुगी दिखी और ना ही शांति-व्यवस्था का संकट। अलबता,फस्र्ट डे के फस्र्ट शो ने एक बड़ी विवादास्पद बहस के तमाम भ्रम इंटरवल के पहले ही तोड़ दिए ,लेकिन बावजूद इसके राजधानी भोपाल में बनी इस मुंबइया फिल्म के इर्द-गिर्द अभी भी कई कथानक तेजी के साथ घूम रहे हैं। मसलन- उत्तरप्रदेश,पंजाब और आंध्रप्रदेश में प्रतिबंध के खिलाफ निर्देशक प्रकाश झा सुप्रीमकोर्ट चले गए हैं। अभिनय सम्राट अमिताभ बच्चन के मुंबई स्थित प्रतीक्षा और जलसा बंगलों में सुरक्षा सख्त कर दी गई है। मुंबई और मद्रास हाईकोर्ट से बाकायदा हरीझंडी के बाद भी महाराष्ट्र में छगन भुजबल की महात्मा फुले समता परिषद फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने देने की धमकियां दे रही है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने फिल्म के कुछ सीन्स और डायलॉग पर अपनी आपत्ति से सेंसर बोर्ड को अवगत करा कराकर उन्हें हटाने की अड़ी डाल दी है। आशय यह कि आरक्षण की पृष्ठभूमि से शिक्षा के व्यावसायीकरण को फोकस करती यह सामाजिक-राजनैतिक फिल्म अब थियेटर के बाहर अभिव्यक्ति की रचनात्मक स्वतंत्रता के दमन का पर्याय हो गईहै। सामाजिक सरोकार से जुड़े तमाम संजीदा संदेश पर्दे के पीछे अंधेरे में हैं। राजनैतिक निहितार्थ साफ तौर पर सामने हैं। फिल्म के विवादित संवादों को बीप और दृश्यों को संपादित करने के बाद भी विरोध के तेवर अंतत: इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं कि आरक्षण की आड़ में सियासत सिर्फ अपनी रोटियां सेंक रही है। मध्यप्रदेश समेत देश के दीगर राज्यों में आरक्षण की सुपरहिट कामयाबी इन आरोपों को और भी तल्ख करती है कि झगड़े की जड़ फिल्म की आरक्षण केंद्रित कथावस्तु और प्रस्तुति नहीं अपितु समाज के सियासी ठेकेदार ही हैं। जो अपने नफे-नुकसान के लिए न केवल सामाजिक समरसता में विष घोलते हैं बल्कि शांति व्यवस्था के खतरों का खौफ दिखाकर मनमानी भी करते हैं। आरक्षण के खिलाफ यूपी और पंजाब जैसे उत्तरभारत के जिन दो राज्यों ने सबसे ज्यादा सक्रियता दिखाई वहां अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। यूपी में दलितों की कथित हमदर्द मायावती की सरकार है। सोशल इंजीनियरिंग की दम पर एक मर्तबा फिर से सत्ता के सपने देख रहीं माया हरगिज नहीं चाहती कि ऐसे नाजुक मौके पर बोतलबंद आरक्षण का जिन्न बाहर आए। सच तो यह भी है कि केंद्रीय अनसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष पन्नालाल पुनिया को भी आरक्षण फिल्म से कोई खास लेना-देना नहीं है। पुनिया की परेशानी भी कुछ और ही है। सेवानिवृत्त आईएएस अफसर पीएल पुनिया कभी यूपी की बसपा सरकार में मुख्यमंत्री मायावती के सचिव हुआ करते थे। अब वह पाला बदल कर न केवल कांग्रेस के सांसद हैं अपितु माया से उनकी खांटी अदावत के चलते वह केंद्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष के रूप से सत्ता सुख भोग रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति मामलों में प्राय: माया सरकार को घेरने में माहिर पुनिया इससे पहले कि इसका सियासी लाभ लेने की कोशिश करते सतर्क मायावती सरकार ने आनन-फानन में आरक्षण पर उत्तरप्रदेश चल चित्र (विनियमन) 1955 की आड़ लेकर पुनिया को किनारे लगा दिया। आरक्षण फिल्म के खिलाफ पूरे देश में कमोबेश यही सियासी सच है।
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