सुप्रीम कोर्ट ने भारत की शान, स्वाधीनता और संप्रभुता के प्रतीक लाल किले पर हमले के दोषी लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक की सजा-ए-मौत पर अपनी मुहर लगा दी है। यह दशक बाद ही सही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल राष्ट्रीय हित में जनभावनाओं का सम्मान है,अपितु यह सरहद पार बैठे देश के दुश्मनों के बीच गया एक कठोर संदेश भी है। इस फैसले का बुनियादी पहलू तो यह भी कि जांच अधिकारियों के सामने यह मामला अंधेरे में सुई खोजने जैसा था। कोई सुराग नहीं,सिर्फ एक पर्ची थी। इसी सहारे जांच टीम पूरी तरह से निष्पक्ष, स्वतंत्र और फोरेंसिक पड़ताल में कामयाब रही। किसी विदेशी आतंकवादी को फांसी की सजा देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। वर्ष 2001 में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत, संसद भवन पर हमले के गुनाहगार जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी मोहम्मद अफजल गुरू को भी सर्वोच्च अदालत फांसी की सजा दे चुकी है। अफजल की सजा कम करने बावत एक दया याचिका राष्ट्रपति के समक्ष विचाराधीन है। हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से यह याचिका खारिज कर देने की सिफारिश की है। सरकार की इस सिफारिश के बाद अफजल गुरु को भी सजा-ए-मौत तय है। इसी तरह 26/11 के मुंबई अटैक के आतंकी अजमल कसाब को भी आरोप प्रमाणित होने पर मुंबई हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुना रखी है। सजा कम करने की याचिका के साथ कसाब भी सुप्रीम कोर्ट की शरण में है। कसाब को अगर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती है तो वह अफजल गुरू की तरह राष्ट्रपति के पास जा सकता है। अशफाक के सामने भी यही विकल्प खुला है। राष्ट्रपति के पास दया याचिका के लगभग 50 मामले लंबित हैं । इतना तो तय है कि देश के इन विदेशी दुश्मनों को राष्ट्रपति से दयादान संभव नहीं है,लेकिन सवाल यह है कि आखिर इन खतरनाक आतंकवादियों को यूं जिंदगी और मौत के बीच लटकाए रखने का फायदा क्या है? जेल में कैद इंसानियत के इन दुश्मनों की गिरफ्तारियों को क्या हम देश हित में इस्तेमाल कर पाए हैं? क्या हम इनसे इनके भारतीय संबंधों का पता लगा पाए हैं? सुरक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि देश में ऐसे आतंकी हमले बगैर लोकल सपोर्ट के संभव नहीं हैं। क्या इनका इस्तेमाल आस्तीन के सांपों को सामने लाने में नहीं किया जा सकता था? और अगर वास्तव में ऐसा संभव नहीं है तो फिर कसाब जैसे कसाइयों की हिफाजत में करोड़ों खर्च करने का आखिर अर्थ क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कंधार मामले में भारतीय विमान के अपहरण के दौरान भारत सरकार को आतंकियों के सामने किस तरह से घुटने टेकने पड़े थे। खूंखार साथियों की रिहाई के लिए आतंकी नीचता की किस हद तक जा सकते हैं ,यह किसी से छिपा नहीं है। यह भी कम हैरतंगेज नहीं कि देश में फांसी की सजाएं तो हो रही हैं, लेकिन फांसी देने की व्यवस्था दम तोड़ चुकी है। 16 साल से फांसी की एक भी सजा अमल में नहीं लाई जा सकी है। जबकि देश में 7 साल के अंदर ऐसी 279 से भी ज्यादा सजाएं सुनाई गई हैं। देश में एक भी जल्लाद नहीं बचा है। फंदे पर लटका कर फांसी देने की ब्रिटिशकालीन प्रथा के इतर मौत की सजा के दीगर उपायों पर भी विचार करना होगा।
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