मंगलवार, 23 अगस्त 2011

शह-मात की सियासत

अण्णा आंदोलन पर संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ऐसे वक्तव्य की आशंका नहीं थी। उम्मीद लगाई जा रही थी कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संदेश के दौरान गांधीवादी अन्ना हजारे के अहिंसक आंदोलन को अलोकतांत्रिक बताने वाले प्रधानमंत्री अपनी भूल सुधारेंगे और विवाद के मसलों को सुलझाने के लिए उदारवादी रूख अपनाते हुए बीच का रास्ता बनाने के विकल्पों पर विचार के लिए सदन का साथ मांगेंगे। संसद के बाहर सड़क पर पहले ही नतमस्तक सरकार से संसद में भी समर्पण की अटकलें नाहक नहीं थीं, क्योंकि सरकार के राजनैतिक रणनीतिकार भी यह बखूबी समझ चुके हैं कि फसाद की जड़ में सत्ता की मदहोशी के सिवाय कुछ और नहीं है। अण्णा आज अगर हीरो बन बैठे हैं तो इसके पीछे शासकीय तौर पर अकुशल प्रबंधन,दूरदर्शिता का अभाव और नेतृत्व का कच्चपन है। इसके लिए टीम अन्ना पर तोहमत मढ़ने का कोई अर्थ नहीं है,लेकिन विडंबना देखिए यूपीए सरकार के हुक्मरान अभी भी अड़ी में हैं। हालत लकीर के फकीर जैसी है। अपने संसदीय व्यक्तव्य में प्रधानमंत्री ने कहा, अन्ना ने जो रास्ता अपनाया वो गलत है। इसमें शक नहीं कि सिविल सोसायटी की कुछ मांगें वाजिब नहीं है। उन्हें खारिज ही होना चाहिए ,लेकिन गणतंत्र में अगर विरोध के अनशन-उपवास जैसे शांतिपूर्ण अहिंसात्मक रास्ते ही अलोकतांत्रिक हैं तो फिर प्रधानमंत्री ही बताएं कि आखिर लोकतांत्रिक रास्ता क्या है? क्या भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार भी अलोकतांत्रिक हैं। संसद में पीएम का क्या यह हास्यास्पद तर्क नहीं कि निर्वाचित लोगों(सांसदों) को अपना काम करने दें। कम से कम ऐसा वक्तव्य उन मनमोहन सिंह को तो शोभा नहीं देता जो स्वयं मनोनीत सांसद हैं। यह निर्विवाद है कि कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद के पास है, लेकिन सवाल यह है कि जनपक्ष का प्रतिनिधत्व कर रही सिविल सोसायटी के जनलोकपाल बिल को संसद के सामने रखने में सरकार को आखिर परेशानी क्या है? यह संसद के विवेक पर था कि वह इस पर विचार करती या फिर खारिज कर देती। सच तो यह है कि चौतरफा घिरी सरकार के पास अब तार्किक तौर पर कहने को कुछ भी नहीं है। क्या संसद और क्या सड़क। मजबूत जनलोकपाल के मामले में गांधीवादी अन्ना हजारे को संसद के खिलाफ सड़क पर अकेला खड़ा करने की यूपीए सरकार की कुटिल साजिश भी अंतत: लामबंद विपक्ष ने खारिज कर दी है। सरकार अन्ना को संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने के कठिन कानूनी फंदे में फंसा कर झुलाने की कोशिश में थी ,लेकिन संसद के दोनों सदनों में हावी विपक्ष ने अण्णा पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 16 सूत्रीय वक्तव्य को शर्मनाक बताकर पलटी मार दी। कदचित कल तक सरकारी लोकपाल के पक्ष में सत्ता के साथ-साथ रहे विपक्ष से सरकार को ऐसी आशंका नहीं रही होगी, लेकिन राजनीति में अवसर ही शह-मात तय करते हैं। देश में अन्ना आंदोलन को मिल रहे अभूतपूर्व समर्थन को पॉलिटिकली हाईजैक करने की अपनी इस रणनीति को खासकर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा किस हद तक कैश करा पाती है यह तो भविष्य बताएगा? लेकिन अन्ना आंदोलन में कैसी भी सियासी भागीदारी सिविल सोसायटी के लिए आत्मघाती हो सकती है।

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