सोमवार, 4 जुलाई 2011

संस्कृत से दुराग्रह और देशद्रोह



संस्कृत से दुराग्रह क्या देशद्रोह नहीं? थोड़ी देर के लिए यह सवाल हास्यास्पद लग सकता है,लेकिन संस्कृत के संवैधानिक संरक्षण और इसके प्रति सर्वोच्च अदालत का सम्मान कमोबेश ऐसा ही संगीन सवाल उठाता है। संसद से पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति का त्रिभाषायी फामरूला हो या यूजीसी के दिशा निर्देश या फिर संस्कृत कमीशन की सिफारिशें सब को दर किनार करते हुए सीबीएसई ने एक ताजा फरमान जारी कर 9वीं-10वीं के पाठ्यक्रम से संस्कृत को बाहर कर दिया है। इस आदेश के बाद पब्लिक स्कूलों ने संस्कृत की जगह जर्मन और फ्रेंच पढ़ानी शुरू कर दी है। बोर्ड की इस द्विभाषा नीति से दस हजार वर्षो से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की संवाहिका रही देववाणी संस्कृत अपने ही घर में पराई हो गई है। 1994 की 4 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में स्कूली पाठ्यक्र म में संस्कृत भाषा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया था कि देश की सीमा की तरह उसकी सांस्कृतिक रक्षा भी मुख्य राष्ट्रीय दायित्व है। संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन का उद्ेश्य देश की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीएसई में संस्कृत को एक वैकिल्पक विषय के रूप में पढ़ाने का आदेश दिए थे। क्या सीबीएसई के पाठय़क्रम निर्माताओं को यह भी नहीं मालूम कि देश की संस्कृति को स्वर देने वाली हिंदी शब्दावली के विकास में संस्कृत के योगदान के चलते इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया है? भारतीय संसद द्वारा स्वीकृत संस्कृत कमीशन की राय में संस्कृत भाषा राष्ट्रीय अस्मिता है। यह देश की सांस्कृतिक परंपराओं का ज्ञान कराती है। 1988 की यूजीसी की रिपोर्ट के अनुसार चरित्र निर्माण, बौद्धिक विकास तथा राष्ट्रीय धरोहर के संरक्षण में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। सब जानते हैं कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति में संस्कृत शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। यह कैसी विडंबना है कि जब अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों में संस्कृत का पठन- पाठन निरंतर लोकप्रिय हो रहा है, तब अपने ही देश में यह साजिश की शिकार है। कभी मातृभाषा तो कभी क्लासिकल भाषा के नाम पर संस्कृत को मुख्यधारा से बाहर करने की यह साजिश कोई नई बात नहीं है। 1986 में नई शिक्षा के निर्माण के दौरान तो सीबीएसई ने संस्कृत विषय को ही समाप्त कर दिया था। सवाल यह है कि क्या सीबीएसई बोर्ड भारतीय संविधान और सर्वोच्च न्यायालय से ऊपर है। बात -बात में संविधान की दुहाई देने वाली यूपीए सरकार का क्या यह दायित्व नहीं कि वह संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण करे और इस अपराध को इरादतन राष्ट्रदोह के रूप में संज्ञान में लेते हुए देशद्रोहियों के खिलाफ मुकदमा चलाए ,अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो क्या वह ऐसे तत्वों का पोषण करने की अपराधी नहीं जो सांस्कृतिक हत्या की साजिश रच कर देश को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। धर्म और संस्कृति के नाम पर वोट की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल इस मसले पर रहस्यमयी अंदाज में खामोश क्यों हैं? बहरहाल, सीबीएसई का यह संविधान विरूद्ध भाषाई दुराग्रह समझ से परे है? बेहतर हो कि संस्कृत को जन सामान्य से दूर करने और इसके राष्ट्रीय प्रसार पर प्रतिबंध की गहरी साजिश को वक्त रहते समझ लिया जाए।

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