शनिवार, 2 जुलाई 2011

लाटसाहब को नक्सलियों का खौफ



आंखें बंद कर लेने से अंधेरा नहीं हो जाता। क्या,नक्सलियों के भय से अकेले राजभवन को हाई सिक्युरिटी दे कर मध्यप्रदेश सरकार राज्य में नक्सली संकट के सच से इंकार कर सकती है? कौन नहीं जानता कि तकरीबन एक दशक से अकूत खनिज -वनज संपदा से भरपूर प्रदेश के बालाघाट,मंडला, डिंडौरी,सीधी,सिगरौली, शहडोल और उमरिया समेत 7 जिले नक्सलवादियों के प्रभाव में हैं। देखते ही देखते 7 साल के अंदर प्रदेश का पावर हब सिगरौली नक्सलियों का बेस कैंप बन गया है। आधा दर्जन पावर प्लांटों की स्थापना में लगे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के 40 हजार से भी ज्यादा मजदूरों के बीच माओवादी अपनी पकड़ बनाने की कोशिश में हैं। यह सुखद है कि मध्यप्रदेश में नक्सलियों ने कोई बड़ी वारदात नहीं की है ,लेकिन राजधानी भोपाल में नक्सलियों की हथियार फैक्ट्री के पर्दाफाश के साथ केंद्रीय तकनीकी समिति के सदस्य समेत 5 हार्डकोर नक्सलियों की गिरफ्तारी उनके ताकतवर मूवमेंट की पुष्टि करती है। क्या सरकारी सतर्कता के लिए इतना ही काफी नहीं कि पांच राज्यों की सीमा से जुड़ा मध्यप्रदेश नक्सलियों की खास रणनीति का सेफ जोन है। बहुत संभव है कि मजबूत रेड कॉरीडोर के विस्तार के लिए नक्सलियों को मध्यप्रदेश में पश्चिम बंगाल के लालगढ़ और उड़ीसा के नारायण पट्टन जैसे गुरिल्ला जोन के ऐसे आसार दिखते हों ,जहां अब नक्सलियों की सत्ता पर सरकार का नियंत्रण नहीं चलता। क्या ,वामपंथी आतंक की यह वही रणनीति तो नहीं जो उसे प्रदेश में बड़ी वारदातों से फिलहाल रोकती हो? सवाल संगीन है। वैसे भी नक्सलवाद अकेले मध्यप्रदेश की समस्या नहीं है। 40 साल के अंदर नक्सली देश के मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,उड़ीसा,बिहार,पश्चिमी बंगाल,झारखंड और आंध्र प्रदेश समेत 8 राज्यों
के 220 जिलों के30 फीसदी भूभाग पर काबिज हो चुके हैं। इस बीच 1 लाख से भी ज्यादा बेकसूरों की हत्याओं का इल्जाम इनके माथे पर है। सालाना 25 से 30 अरब की वसूली करने वाले इन सशस्त्र माओवादियों से निपटने के लिए अकेले केंद्र सरकार अब तक 4 हजार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। दरअसल, केंद्र की फिक्र बेमानी नहीं है। ये देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सरहद पार पोषित आतंकवादियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि इन्हें आमतौर पर स्थानीय समर्थन भी हासिल होता है। अरुन्धति राय,मीरा नायर और बिनायक सेन जैसे मार्क्‍सवादी मार्का बौद्धिक समर्थकों की बड़ी जमात भी नक्सलियों के सशस्त्र आतंकी हिंसा को हक के लिए संघर्ष की संज्ञा देती है। सवाल यह है कि अगर गरीबी से बेहाल नक्सली अपने हक के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं तो फिर वे सरकार के विकास कार्यो को बल पूर्वक बाधित क्यों करते हैं? क्या वे इतना भी नहीं जानते कि बुनियादी विकास ही गरीबी उन्मूलन का व्यावहारिक विकल्प है। सच तो यह है कि नक्सली मूवमेट अब वैचारिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के हाथ में हट कर ऐसी ताकतों के पास है, जो विदेशों से वित्त पोषित होकर देश को कमजोर करने की कोशिश करते हैं,लेकिन राज्य सरकारों की चिंताएं सिर्फ केंद्र से विशेष पैकेज की मांग पर केंद्रित होती हैं। वर्ना नक्सलियों के खिलाफ मध्यप्रदेश सरकार की नीति और रणनीति आज भी पहेली क्यों है? नक्सल प्रभावित इलाकों में भरोसेमंद पुलिस आधुनिकीकरण का सच किसी से छिपा नहीं है। प्रभावित राज्यों के बीच परस्पर सहयोगात्मक रणनीति रंग क्यों नहीं दिखा रही है? सरकार की विकास योजनाएं नक्सली विस्तार को रोक पाने में नाकाम क्यों हैं?

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