शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

नकली दवाओं के असली खतरे





खाओ तो जहर और नहीं खाओ तो मर्ज से मौत..बाजार में नकली दवाओं के असर का यही सच है। नकली जीवन रक्षक दवाओं का यह जानलेवा जहर बाजार से पसर कर अब कमीशनखोर सरकारी सप्लाई तक पहुंच गया है। राजधानी भोपाल के सबसे बड़े शासकीय अस्पताल हमीदिया समेत 4 अस्पतालों में नकली दवाओं का यूं पकड़ा जाना हालांकि अब चौंकाता नहीं है, लेकिन इसके पीछे छिपा खेल बेहद खतरनाक है। कहने को तो स्वास्थ्य नीति की मोहताज मध्यप्रदेश सरकार की अपनी दवा नीति भी है ,लेकिन दवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता की गारंटी देनेवाली इस नीति के तहत जहां राज्य में दवाओं का दर निर्धारण तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कॉरपोरेशन के सुझावों पर निर्भर है। वहीं सरकारी खरीदी के लिए दवा कंपनियों के नाम चैन्नई की आईएमएनएससी सुझाती है। रोजमर्रा के लिए जरूरी 201 ऐसी जीवन रक्षक दवाओं की सरकारी खरीदी की जाती है,जो 96 प्रतिशत बीमारियों के लिए कारगर है। कुल दवा खरीदी का 80 फीसदी बजट प्रदेश के जिला स्तर पर आवंटित है। शेष 20 प्रतिशत राजधानी स्तर पर आरक्षित है। नीति के अनुसार सीएमएचओ और सिविल सजर्न स्थानीय स्तर पर निविदा के आधार पर दवाएं खरीद कर मरीजों को मुफ्त में दे सकते हैं। साफ है कि दवा नीति के इसी लचीलेपन से सौदेबाजी की गुंजाइश बनती है। जाहिर है,सरकारी चिकित्सा तंत्र का एक बड़ा हिस्सा इस काले कारोबार को ताकत दे रहा है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि राज्य में इंदौर नकली दवाओं का गढ़ है। मध्यप्रदेश समेत देश के 9 राज्यों में नकली दवाओं का सालाना कारोबार 7 हजार करोड़ के आसपास है। एक अनुमान के अनुसार इसमें प्रति पंचवर्षीय दो गुना दर से इजाफा हो रहा है। सितंबर 2008 में अमेरिका ने भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीन जैनरिक दवाओं के खरीदी पर पाबंदी लगा दी थी। अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के मुताबिक मध्यप्रदेश के देवास में निर्मित दवाएं अमेरिका में निर्मित दवाओं के मुकाबले मानक स्तर की नहीं पाई गईं थीं। रैनबैक्सी अकेले अमेरिका को सालाना पौन दो सौ करोड़ डॉलर मूल्य की जेनैरिक दवाओं का आयात करती है। एक विडंबना यह भी है कि सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में ड्रग इंस्पेक्टर हैं और न ही नमूनों की जांच के लिए सक्षम लैब हैं। नकली दवा माफिया इस कदर हावी है कि उसे केंद्रीय औषधीय एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के गैर जमानती और आजीवन कारावास जैसे सख्त प्रावधानों की भी परवाह नहीं है। सात साल पहले लिए गए केंद्र सरकार के एक फैसले के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आसानी से सस्ती दर पर पूरी सुरक्षा के साथ ड्रग ट्रायल कर सकती हैं। मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था का साइड इफैक्ट यह है कि मौजूदा समय में देश के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भागीदारी 70 प्रतिशत से भी ज्यादा है। राज्य सरकार पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि हाल ही में 50 दवाओं के लिए 23 सौ मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया गया। जिनमें से 1644 बच्चे और 6 सौ वयस्क थे। असल में दवा कारोबार में लगे मौत के सौदागर बड़े चतुर हैं। वे सरकार की सुस्ती को भी समझते हैं और अफसरशाही की कमजोरियों को भी जानते हैं। जरूरत नकली दवाओं के इन असली खतरों से सतर्क रहने की है।

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