मुंबई बम ब्लास्ट के असली सूत्रधार जहां कहीं भी होंगे,मध्य प्रदेश में सड़क से लेकर सदन तक चल रहे मौजूदा सियासी स्वांग पर ठहाके लगा रहे होंगे। क्या खूब नाटक है? किसी को मुंबई के कलेजे पर लगे जख्मों की फिक्र नहीं है। सबको फिक्र है तो सिर्फ सियासी रोटियों की। सबने देखा कैसे? उज्जैन और शाजापुर की सड़कों से सरेआम उठा बवंडर सोमवार को विधानसभा तक पहुंच गया। कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने सत्तारूढ़ भाजपा सरकार पर गुंडागर्दी का आरोप लगाया तो जवाब में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बयानवीर दिग्विजय सिंह पर राज्य में अराजकता फैलाने का आरोप लगाने से नहीं चूके। आरोप-प्रत्यारोप का यह खेल इससे पहले जिस तरह से हाथापाई पर आ चुका है,वह किसी से छिपा नहीं। सचमुच यह देश की एकता और अखंडता पर अटैक है ,मगर हमारे सत्ता भोगी सियासी झंडाबरदार इतने खुदगर्ज हैं कि संक ट की इस घड़ी में भी वे एक जुट होने को राजी नहीं हैं। इस नाजुक मौके पर भी इनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। राजनैतिक हित साधने की इस शह-मात में क्या सड़क और क्या सदन? सब एक समान है। सवाल यह है कि आखिर ये हीरोइक स्टोरियां गढ़ता कौन है? कुछ टीवी पत्रकारों के बीच घिरे दिग्विजय सिंह से सवाल पूछा जाता है कि क्या मुंबई सीरियल ब्लास्ट में आरएसएस का हाथ हो सकता है? सिर्फ 25 सेकंड की एक बाइट के लिए मीडिया को जवाब मिलता है,आशंका से इंकार नहीं । यहां गौरतलब है, यह शकनुमा सवाल किधर से आया है? क्या किसी भी दल के किसी भी पदाधिकारी से ऐसे किसी गंभीर मामले में ऐसा कोई सवाल बनता है? दिग्विजय आखिर हैं ,क्या? रॉ,एनआईए,सीबीआई,आईबी या फिर मुंबई पुलिस के डीजीपी? अब सतही तर्क यह है कि उन्होंने जो कहा वह मीडिया या तो समझ नहीं पाया या फिर वह, मीडिया को समझा नहीं पाए। कुल मिलाकर झगड़ा नासमझी का है। तकनीकी तौर पर यह सही है कि मीडिया ने जो खबर चलाई वैसा दिग्गी ने कहा नहीं ,लेकिन क्या मीडिया को अब यह कहने का हक है कि उसने वही खबर बनाई जो दिग्विजय सिंह कहना चाहते थे। उन्होंने क्या कहा यह महत्वपूर्ण था न कि यह कि वह क्या कहना चाहते थे? सच तो यह है कि अगर सियासत का कोई धर्म नहीं है तो मीडिया की भी कोई आचार संहिता नहीं है। उसमें नैतिकता और जवाबदेही का बोध बड़ी तेजी के साथ तिरोहित हो रहा है। सामाजिक सरोकार कब के पीछे छूट चुके हैं। मुर्दो पर कैमरा लगाकर स्माइल प्लीज बोलने वाले पत्रकारों की बढ़ती नौसिखिया जमात की व्यावहारिक समझ महज इतनी ही है कि सबसे बेहतर पोज लेने की काल्पनिक ललक में ही उन्हे टीआरपी की असली उछाल दिखता है। क्या ऐसा गैर जिम्मेदाराना बर्ताव कर मीडिया बड़ी तेजी के साथ स्वयं का भरोसा नहीं खो रहा है? ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ठीक ही तो कहते हैं कि टीवी मीडिया नान इश्यू को इश्यू बना रहा है। मसलन ऐश्वर्या राय का गर्भवती होना न तो देश की समस्या है और नाही संकट मगर बावजूद इसके मीडिया का फोकस इसी के इर्द-गिर्द स्थिर हो जाता है। कहना न होगा कि आज अगर थूक कर चाटने की सियासी फितरतअपडेट खबरों की शक्ल में मीडिया का स्थाई चरित्र बनती जा रही है। तो यह खांटी किस्म के सियासतदारों की कुटिल कूटनीतिक कुशलता है। असल में वे जल्दबाज और गैर जिम्मेदार मीडिया की इस कमजोर नासमझी को बेहतर समझते हैं कि मीडिया उनके मंतव्य को अपने ताने बाने में बुनकर वही अर्थ निकालेगा जो वह कहना तो चाहते हैं पर नहीं कह कर भी सब कुछ कह देते हैं। और अगर ऐसे में नेताजी पलट गए तो मीडिया के पास पलट कर जवाब देने के लिए आखिर कौन सा मुंह बचेगा? यह भी एक सवाल है।
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