पद्मनाभ स्वामी मंदिर की संपदा में स्वामित्व जताने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी देकर सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार के तेवर ढीले कर दिए हैं। एक हजार करोड़ से भी ज्यादा पुरा संपदा से मालामाल इस मंदिर पर कल तक अपना हक जता रही वहां की कांग्रेस सरकार ने भी कदम खींच लिए हैं। इस बीच देश में मौजूद ऐसी अकूत संपदाओं के औचित्य, स्वामित्व, संरक्षण और उपयोग को लेकर बहस शुरू हो गई है। बहस बेवजह नहीं है। दरअसल इस किस्म की अपार संपदा के भंडारण के बाद भी देश में कानूनी स्तर पर कोई स्पष्ट नीति नहीं है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि अमीर हिंदू मंदिरों पर सरकार की गिद्ध दृष्टि लग गई है। मसलन दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने भी मंदिरों में मौजूद संपदा के आकलन की कवायद शुरू कर दी है। जाहिर है अब ऐसी संपदाओं को बेनामी बनाकर इसके राष्ट्रीयकरण की भी मांग उठाई जा सकती है। सवाल यह है कि क्या इन संपत्तियों को सरकार के हवाले किया जा सकता है। भारी भ्रष्टाचार के लिए पहले से ही बदनाम सरकारों के प्रति आम जनमानस में विश्वास का संकट एक बड़ी बाधा है। आजादी के बाद देश की चार बड़ी रियासतों की 4 लाख करोड़ की संपत्ति राजसात करने के मामले केंद्र की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। हैदराबाद के निजाम का 240 करोड़ का खजाना रहा हो या फिर जम्मू-कश्मीर रियासत की 20 हजार करोड़ की संपदा, सरकार ने कभी भी पारदर्शिता नहीं दिखाई है। यह संपदा अब कहां-किस हाल में है? रहस्य कायम है। कहने को तो सरकारें जनहित में काम करती हैं, लेकिन वह कितनी जन हितकारी हैं ? यह किसी से छिपा नहीं है। कालेधन के मामले में सुप्रीमकोर्ट का भरोसा खो चुकी केंद्र सरकार पर अब कौन भरोसा कर सकता है? वस्तुत: ये खजाने सिर्फ संपत्ति नहीं हैं। यह कोई खैराती खजाना नहीं है। राजशाही द्वारा दान में दी गई पूजा भेंट है, जो भगवान को समर्पित है। यह सदियों पुरानी ऐतिहासिक विरासत भी है। बेहतर तो यही हो कि इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए एक स्पष्ट राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। मंदिरों का स्वामित्व ट्रस्ट के ही पास रहे और ट्रस्ट किसी ऐसे सक्षम राष्ट्रीय आयोग से नियंत्रित और संचालित हो जो ट्रस्टियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करे। आमतौर पर अभी ट्रस्ट स्थानीय प्रशासन से ही संचालित और नियंत्रित हैं। प्रशासनिक अधिकारी ही इसके प्रशासक हैं। आशय यह कि अप्रकट रूप से ट्रस्टों की कमान राज्य सरकारों के ही हाथ में है। अकूत संपदा को आपदा राहत कोष के रूप में इस्तेमाल का सुझाव भी स्वागत योग्य है। सूखा,बाढ़,अकाल और महामारियों के दौरान मंदिरों द्वारा मदद की प्राचीन परंपरा रही है। अच्छा हो इस धन को गरीबों का जीवन स्तर सुधारने पर लगाया जाए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक स्थलों पर पूजा और इबादत के अपने -अपने तौर तरीके होते हैं,लेकिन धन के मामले में सभी धर्मों के लिए समानता का कानून होना चाहिए। ऐसे सभी खजानों को एक नीति नियम के तहत लाया जाए। इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करके सरकार के हवाले करना ठीक नहीं होगा क्योंकि आज अगर हिंदू मंदिरों के साथ ऐसा होगा तो कल मस्जिदों और गिरजाघरों के प्रति भी यही सवाल उठेगा। यह आस्था से जुड़ा बेहद संवेदनशील मामला है। कुटिलता से काम नहीं चलेगा।
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