गुरुवार, 21 जुलाई 2011
दिग्गीलीक्स में कितना दम ?
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अर्से से एक खास किस्म के रणनीतिक आंदोलन की राह पर हैं। वह वक्त की नजाकत को भांपते हैं। छोटा सा धारदार बयान देते हैं या फिर जरा सी चुटकी लेते हैं। विपक्ष भौचक रह जाता है। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू होता है और विवाद खड़ा हो जाता है, लेकिन दिग्गीराजा की बयानबाजियों का सिलसिला थमता नहीं। वे हर बार एक नया मुद्दा उठाते हैं और बवाल खड़ा कर देते हैं। मध्यप्रदेश की राजनीति में मौजूदा सियासी तूफान इस तथ्य की ताजा मिसाल है मगर बावजूद इसके इस सवाल का जवाब अभी भी सिर्फ कयासों में है कि इसके पीछे आखिर उनका अंतत: अंतिम मंतव्य क्या हो सकता है? क्या निरंतर सुर्खियों में बने रहने का उनका यही सियासी अंदाज है? या फिर थोक वोट बैंक के लिए तुष्टीकरण कांग्रेस की पुख्ता रणनीति है? आखिर वो ऐसे मसले क्यों उठाते हैं ,जो विवाद की वजह बनें? यह तो तय है कि हिंदू संगठनों के खिलाफ मोर्चाबंदी का नेतृत्व दिग्विजय सिंह की राजनीति का स्थाई अंग बन गया है मगर सवाल यह है कि सियासी लिहाज से कांग्रेस के हक में इसके राजनैतिक नुकसान-नफे का पूर्वानुमान क्या है? भारी भ्रष्टाचार पर सिविल सोसायटी का दबाव,जानलेवा महंगाई उस पर आतंकी धमाकों के बीच चौतरफा घिरी कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार। बिहार के हाल के चुनावों में कांग्रेस की एतिहासिक पराजय। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में नए सिरे से जमीन तलाशती कांग्रेस और स्वयं दिग्गी के गृहराज्य मध्यप्रदेश में गुटीय राजनीति के चलते जमीन छोड़ती कांग्रेस के पास क्या इसके सिवाय अब और कोई रास्ता नहीं है कि वह मुंबई अटैक में बहे लहू से खुद को पुर्नजीवित करने की गुंजाइश तलाशे ?अगर ऐसा ही है तो यह रास्ता सीधे पातालपानी जैसी गहरी खाईं में खुलता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि देश के राष्ट्रवादी मुस्लिम सरहद पार से आए देश तोड़क आतंकवाद को सांप्रदायिकता की इस नई परिभाषा के रूप में स्वीकारेंगे?आतंकवाद को सांप्रदायिक रंग देने की इस कोशिश से कांग्रेस के पक्ष में अल्पसंख्यक भले ही एकजुट न हों लेकिन भाजपा के प्रति बहुसंख्यकों के रूझान को वॉकओवर जरूर मिलेगा। हिंदुत्व का हथियार हासिल करने को बेताब भाजपा के हाथ में यदि कांग्रेस ही रामबाण देना चाहती है तो फिर कहने को कुछ नहीं बचता है। इसमें शक नहीं कि सरसरी तौर पर कुछेक आतंकी मामलों में कथित हिंदू आतंकवाद के निशान मिले हैं। मगर तब तक ये सिर्फ आरोपों के ही धब्बे हैं, जब तक कि अदालत इसे अपराध नहीं मान लेती है। सच तो यह है कि आतंकवाद की आड़ में हाल ही में राजनीति का जैसा विचित्र सामने आया है, वह भयभीत बहुत करता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अस्मिता के प्रतीक संसद भवन का हमलावर अफजल गुरू अगर आज भी सरकारी मेहमान हैऔर ढाई साल के अंदर दूसरा मुंबई अटैक के बाद भी कसाब की सरकारी खातिरदारी चल रही है तो सचमुच संसदीय राजनीति खतरे में है। यही सर्वोच्च अदालत की पीड़ा है और यही देश की फिक्र भी है। अब तो तकरीबन यह भी तय हो चुका है कि देशी सियासत के बूते परदेशी आतंक से नहीं निपटा जा सकता है। नतीजतन हम मदद के लिए भारत दौरे पर आईं अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का मुह ताक रहे हैं। कट्टरता से लड़ने में परहेज कहां? लेकिन इससे राजनीतिक कुटिलता से नहीं निपटा जा सकता है।
सच यह भी है कि प्रदेश में गुटीय राजनीति की शिकार होकर पहले से ही निर्बल हो चुकी कांग्रेस वस्तुत: भाजपा को यूं नहीं घेर सकती है क्योंकि राज्य में भाजपा सरकार की स्वार्णिम मध्यप्रदेश की शानदार मार्केटिंग चमक रही है। आरएसएस के रणनीतिकारों ने अपने ही घटक दलों को सदन के बाहर सड़क पर एक मजबूत विपक्ष के रूप में खड़ा कर दिया है। जो जरूरत पड़ने पर जनभावनाओं के पोषण के लिए सरकार का विरोध करता है और आवश्यक हुआ तो सरकार के बचाव में ढाल बनकर खड़ा भी हो जाता है। मिसाल के तौर पर 2 लाख किसानों के साथ 48 घंटे तक राजधानी भोपाल को बंधक बनाए रखने के पीछे आखिर कौन था? आशय यह कि भाजपा की परस्पर नूरा कुश्ती नायाब है। राज्य में सत्ता तो भाजपा की है लेकिन विपक्ष में कांग्रेस नहीं है? गौर से देखें तो एक बड़ी रणनीति के तहत भाजपा के अनुषंगी दल ही विपक्ष की भूमिका में हैं। ऐसे में सरकार की घेराबंदी के लिए कांग्रेस को गैर सांप्रदायिक राजनीति की रणनीति ही अपनानी होगी। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में जन सरोकार से जुड़े मुद्दे नहीं हैं। भूख, भय और भयंकर गरीबी। बिजली-पानी जैसे बुनियादी मसले अभी भी जिंदा हैं। यह भी सही है कि इधर कुछ अर्से से राज्य के हर क्षेत्र में सत्तारूढ़ भाजपा का भी स्लखन हुआ है लेकिन गैरहाजिर विपक्ष के कारण सरकारी नाकामियां सामने नहीं आने पाई हैं। बेहतर हो कांग्रेस सतही सियासी शिगूफे के बजाय व्यापक जनहित से जुड़े मामलों में स्थगन के प्रस्ताव लाए। अन्यथा बेवजह न तो विधानसभा में गतिरोध का कोई अर्थ है और न तो प्रदेशव्यापी धरनों का कोई औचित्य है। कांग्रेस के सिपहसालारों को यह समझना चाहिए कि इस जुबानी जंग से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है? मगर इससे पहले स्वयं प्रदेश कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि बुनियादी मुद्दों से असली जंग के लिए उसके पास समर्पित गैंग कहां है? कुल मिलाकर कांग्रेस को अपना गिरेबान देखना चाहिए।
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