बुधवार, 6 जुलाई 2011

सत्ता के संवैधानिक पतन की पीड़ा


काले धन के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट का कोड़ा पड़ते ही यूपीए सरकार के बड़बोले भूमिगत हो गए हैं। सबकी बोलती बंद है। शिखर अदालत का अगर किसी सरकार से भरोसा उठ जाए तो इसके बाद क्या बचता है? क्या यह किसी भी सरकार के संवैधानिक और नैतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है? सीधे भ्रष्टाचार से जुड़े कालेधन के मामले में सरकार की ऐसी क्या लाचारी है? आखिर , सरकार ऐसे किन काले चोरों के बचाने की कोशिश में है, जिनके लिए वह संवैधानिक सत्ता को भी दांव पर लगा सकती है? वैश्विक संधियों का हवाला देकर सरकार इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने नाम उजागर करने से इंकार कर चुकी है। सवाल यह है कि क्या किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को ऐसी विदेशी संधियां करने का संवैधानिक अधिकार है, जो भारतीय संविधान को कमजोर करती हों। क्या कोई भी विदेशी संधि भारतीय संविधान और उससे पोषित सर्वोच्च अदालत से ऊपर हो सकती है? क्या यह विदेश हाथों के साथ संवैधानिक सौदेबाजी नहीं है? तो क्या ऐसी संधियों पर दस्तखत करने वाले देशद्रोही नहीं हैं? मजबूत जनलोकपाल के सवाल पर संवैधानिक सम्मान का स्वांग रचने वाली यह वही यूपीए सरकार है, जिसने इसी कालेधन के सवाल पर अहिंसक आंदोलनकारियों पर लाठियां तोड़ी थीं। सच तो यह है कि असली चरित्र उजागर होने के बाद सरकार मुंह दिखाने के काबिल नहीं बची है। सुप्रीम कोर्ट की पीड़ा को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अगर यह मामला जनहित याचिका के जरिए संज्ञान में नहीं आता तो काला धन सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। देश की एकता,अख्ांडता , अस्मिता और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक हो चुके इस कालेधन के मामले में सरकार ने अपने संवैधानिक दायित्व तक नहीं समङो। सुप्रीम कोर्ट की सख्त चेतावनी के बाद भी सरकार इस मुद्दे की 6 माह से अनदेखी कर रही थी। सरकार नहीं चाहती थी कि मामले का जिम्मा किसी विशेष जांच दल(सिट) को सौंपा जाए। इसीलिए उसने 2 माह पहले आनन फानन में हाईलेवल कमेटी बनाकर अपने 8 सदस्यीय टॉप ब्यूरोक्रेट्स बैठा दिए थे। देश के सबसे बड़े टैक्स चोर हसन अली के खुलासों के बाद भी जिम्मेदार सरकारी एजेंसियों ने राजनेताओं ,नौकरशाहों और कारोबारी हस्तियों से पूछताछ क्यों नहीं की? कालेधन पर लगाम लगाने के लिए तैयार किया गया प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक (डीटीसी) पर लोकसभा की स्थायी समिति एक साल से विचार ही कर रही है। अब अगर यह विधेयक मानसून सत्र में आया तो भी उसे असर में आने में एक साल लगेंगे। सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि पहले से ही बदनाम स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक को देश में कारोबार के लिए खुदरा बैंकिंग का लाइसेंस क्यों दिया गया? सरकार के पास विदेशों में जमा भारतीय कालेधन का हिसाब भले ही न हो लेकिन ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी जैसी वैश्विक संस्थाओं के अनुमान के अनुसार यह रकम 5 सौ अरब डालर से लेकर 14 सौ अरब डालर तक हो सकती है। अमेरिका ,जर्मनी और यूरोपीय देश जब अपने कालेधन की वापसी को लेकर सख्त हैं ,तब भारत का बेहद उदारवादी रवैया भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है।

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