क्षेत्रीय विकास के लिए सांसद निधि में150 प्रतिशत की वृद्धि के साथ ही इस मद के औचित्य पर बहस शुरू हो गई है। इससे पहले बिहार में विधायक निधि बंद करने के राज्य सरकार के फैसले के बाद कमोबेश ऐसे ही सवाल उठे थे। तमाम विरोधों के बीच सरकार का यह फैसला तब आया है,जब पूरा देश भारी भष्टाचार की आग में सुलग रहा है। संसद के अंदर सांसदों को जनलोकपाल के दायरे में लाने की मांग पर बवाल है। 90 से ज्यादा सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। तकरीबन 180 सांसद तो ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में अपराधिक चारित्र रखते हैं। वैसे भी यह आम धारणा बन चुकी है कि सांसद मद भ्रष्टाचार का पोषण करता है। आंध्र प्रदेश के 6 जिलों के लिए इसी मद से आवंटित 64 करोड़ बैंक में एफडी की ब्याजखोरी किसी से छिपी नहीं है। चार साल पहले एक स्टिंग के जरिए कुछ सांसदों को ठेके के लिए कमीशनबाजी करते रंगे हाथ पकड़े जाने का मामला पहले ही शर्मशार कर चुका है। आरोप है कि जमीनी स्तर पर विकास के लिए आवंटित यह रकम आमतौर पर या तो राजनीतिक लाभ के लिए खर्च की जाती है। या फिर खर्च ही नहीं की जाती है। सच तो यह है कि इस भारी भरकम फंड के साथ कमीशनबाजी का ख्ेाल काल्पनिक नहीं है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक सांसद निधि के इस्तेमाल में ठेकाप्रथा और कमीशनखोरी के तौर तरीकों पर पहले ही अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। कैग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि नियम विरूद्ध सांसद निधि से 11 राज्यों में किस तरह से पीएम-सीएम राहत कोष को 7 करोड़ 37 लाख दिए गए। 14 राज्यों में सांसदों ने एयरकंडीशनरऔर फर्नीचर के अलावा ट्रस्ट के अस्पतालों और स्कूलों को किस प्रकार 6 करोड़ की रकम आवंटित की गई। देश के 6 राज्यों में इसी मद से नामवर लोगों के नाम पर 7 करोड़ खर्च करके निर्माण कार्य कराए गए। सांसद निधि के बेजा इस्तेमाल के मामले में महाराष्ट्र सबसे आगे है। तमिलनाडु दूसरे और पश्चिम बंगाल तीसरे स्थान पर है। इसके बाद क्रमश: असम, सिक्किम, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, नागालैंड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान का नंबर आता है। सरकारी दावे के विपरीत कैग की राय में योजना लागू होने के डेढ़ दशक बाद भी इस मद के 1053.63 करोड़ रुपए आज तक खर्च ही नहीं किए गए हैं। आमतौर पर चुनावी वर्षो में इसे दिल खोल कर खर्च किया जाता है। जाहिर है इस फंड का इस्तेमाल सियासी प्रयोजन के लिए किया जा रहा है। दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी सांसद निधि को समाप्त करने की सिफारिश की है। आयोग का तर्क है कि सांसदों का काम प्रशासनिक खर्च पर नजर रखना है न कि स्थानीय निकायों के काम हथियाना। नेशनल कमीशन फॉर रिव्यू ऑफ द वर्किग ऑफ कांस्टीटय़ूशन और 2005 में स्वयं सत्तारूढ़ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षतावाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति भी सांसद निधि के पक्ष में नहीं थी। मगर बावजूद इसके केंद्र सरकार ने सांसदों की सालाना निधि 2 करोड़ से बढ़ाकर 5 करोड़ कर दी। सवाल यह है कि क्या राजनैतिक नफे-नुकसान के लिए सांसदों को उपकृत करना ही यूपीए सरकार की प्राथमिकता है। क्या यह जानने की जरूरत नहीं कि सांसद निधि का आखिर औचित्य क्या है? क्या वाकई इससे विकास का सरकारी संकल्प पूरा होता है?
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