सोमवार, 18 जुलाई 2011

मगर शर्म इन्हें आती नहीं





धुर धर्मनिरपेक्ष भारत और कट्टर इस्लास्मिक मुल्क पाकिस्तान के सियासी चरित्र में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। कश्मीर की आड़ में भारत विरोधी भावनाएं भड़का कर अगर पाकिस्तान के सियासत दार सत्ता सुख भोग रहे हैं ,तो उसी सरहद पार से आए आतंकवाद के सियासी इस्तेमाल को भारत के राजनैतिक रणनीतिकार भी बखूबी समझ चुके हैं। वर्ना तिहाड़ जेल में सरकारी दामाद बनकर बैठे कसाब और अफजल गुरू को अब तक ठिकाने नहीं लगाने की आखिर और क्या मजबूरी है? देश के सबसे ताकतवर शख्स के तौर पर तकरीबन स्थापित हो चुके सत्तारूढ़ कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दो टूक कहते हैं,ये अटैक रोकने की शक्ति उनकी सरकार में नहीं है। बेशर्मी की हद तो यह है कि पूरी कांग्रेस राहुल को सही ठहराने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है। और तो और कांग्रेस के बड़बोले दिग्विजय सिंह को सीरियल ब्लास्ट में आरएसएस का हाथ होने की आशंका डरा रही है। दावे तो ऐसे-ऐसे हैं, जैसे यही विषय के विशेषज्ञ हैं और देश की खुफिया एजेंसियां सीधे इन्हीं को रिपोर्ट करती हैं। यह दीगर बात है कि मुंबई हमले के पूरे 48 घंटे बाद यूपीए सरकार के आंतरिक सुरक्षा सचिव का नकारा सा राजनीति प्रेरित बयान आता है कि सभी आतंकी संगठनों पर साजिश का शक है। इन्हें अभी भी सिर्फ शक है। वह भी सब पर। क्या यह नपुंसक सत्ता और नकारा खुफिया एजेंसियों की बुझदिली नहीं कि जब मर्जी पड़ी तब सीमा पार से आए चंद बेखौफ आतंकी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के कलेजे पर ब्लास्ट के खूनी घाव देकर आराम से निकल जाते हैं और हम सलाम मुंबई का स्वांग रच कर सब कुछ भूल जाते हैं। देश आतंकवाद जैसे गंभीर संकट से जूझ रहा है । ऐसे में बेसिर पैर के सियासी आरोप-प्रत्यारोप क्या अप्रकट रूप से मूल संकट से ध्यान हटाने की सोंची-समझी साजिश नहीं हैं? यह साजिश आतंकवादियों को सुरक्षित रास्ता देने जैसी भले ही न हो लेकिन स्वयं की नाकामियां छिपाने जैसी तो है ही। सत्तारूढ़ दल होने के नाते क्या देश और समाज के प्रति कांग्रेस की यही जिम्मेदारी और जवाबदेही है? ढाई साल के अंदर मुंबई में दूसरे धमाके बताते हैं कि हमारी सरकार ने 26/11 से सबक लेने की जरूरत नहीं समझी है। लिहाजा आतंकियों के हौसले बुलंद हैं। सरकार कितनी गंभीर है, अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व केंद्रीय गृहसचिव राम प्रधान ने केंद्र को मुंबई बम ब्लास्ट की जांच रिपोर्ट एक साल पहले सौंप दी थी पर आज तक इस रिपोर्ट की सरकारी तौर पर समीक्षा तो दूर अध्ययन की आवश्यकता तक नहीं समझी गई। आतंक के खिलाफ हमारे सरकारी सुरक्षा उपायों का यही सच है। प्रधान की रिपोर्ट कई खुलासे करती है। मसलन-ऐसे हमले आईबी और सीबीआई के बूते नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर तैयार किए गए मजबूत नेटवर्क से ही रोके जा सकते हैं। आतंकी भी स्थानीय मदद से ही वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। खतरनाक यह भी है कि आतंकियों की नजर अब जहां जम्मू- कश्मीर, हिमाचल और पंजाब पर है। वहीं इसके तार मध्यप्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से भी जुड़ते नजर आ रहे हैं। सरकार को यह समझना चाहिए कि आतंक के इस देशव्यापी नेटवर्क की आंशका के बीच नक्सलियों के पास आतंकवादियों के हथियारों का मिलना देश के लिए कितना खतरनाक है?

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