मंगलवार, 5 जुलाई 2011
संसद के सामने सिविल सोसायटी
एक ताकतवर जनलोकपाल के खिलाफ सियासतदारों की नीयत साफ है। सरकार की ओर से आम सहमति के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का सिर्फएक लाइन का निहितार्थ यही है कि लोकपाल के सरकारी मसौदे से सब सहमत हैं। अकेले अंदाज अलग -अलग हैं। संपादकों के बीच पीएम मनमोहन सिंह जहां प्रस्तावित लोकपाल की शान में कसीदे गढ़ते हैं, वहीं अपनी बिरादरी के बीच पलट कर मौन साध लेते हैं। और तो और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के इसी सवाल पर लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज हों या राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली सबकी बोलती बंद हो जाती है। वस्तुत: एक अप्रिय सत्य तो यह है कि हमाम में सब नंगें हैं। एक थाली के चट्टे-बट्टे। चोर-चोर मौसेरे भाई। कहना न होगा कि एक सांप नाथ तो दूसरा नाग नाथ। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष समवेत स्वर में अब फिक्र फकत इतनी है कि लोकपाल को शक्तियां देने से लोकतंत्र का संघीय ढांचा बिगड़ेगा। संविधान में संशोधन करने होंगे। क्या यह भारत के जनतांत्रिक संवैधानिक इतिहास में यह पहला संशोधन होगा? सरकारें जब-तब व्यापक जनहित की आड़ लेकर किस कदर संविधान संशोधन करती रही हैं। संशोधन ही संविधान को जीवंत और गतिशील बनाता है। इसमें शक नहीं कि कानून बनाना संसद का विशेषाधिकार है। यह भी सच है कि सिविल सोसायटी के कुछ सुझाव संवैधानिक लिहाज से व्यावहारिक नहीं हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि लोकतंत्र में जनपक्ष की भूमिका ही निर्थक है। एक बेहतर लोकतांत्रिक परंपरा के लिए क्या यह शुभ नहीं कि सरकार टकराव के बजाय ,बजरिए सिविल सोसायटी लोकपक्ष के सुझावों का ईमानदारी से सम्मान कर संसार के सामने विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र होने की नजीर पेश करे। सवाल यह भी है कि कानून से नियंत्रित कोई भी लोकपाल चाहे वह कितना ही स्वायत्त और शक्तिशाली क्यों न हो लोकतंत्र के लिए खतरा कैसे हो सकता है? सिविल सोसायटी स्वतंत्र लोकपाल चाहती है,स्वछंद नहीं। एक मजबूत जनलोकपाल के खिलाफ लामबंद सियासी साठगांठ के कुल जमा अपने-अपने नुकसान नफे हैं। सरकार इसे कानूनी बाधाओं और सियासी दांवपेंचों में उलझा कर जहां एक बार फिर से दबाने की कोशिश में है, वहीं विपक्ष विधेयक को शीतकालीन सत्र तक टालने के प्रयास में है। क्योंकि अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव हैं। इस बीच सरकार की एक और कोशिश सिविल सोसायटी को संसद के सामने लाकर खड़ा करने की भी है। खासकर अण्णा निशाने पर हैं अगर वह 16 अगस्त से अनशन पर जाते हैं तो उनकी इस मुहिम को सरकार संसदीय व्यवस्था के लिए खतरनाक मानते हुए लोकतंत्र पर प्रहार केआरोपी के रूप में प्रचारित करेगी।अण्णा के मजबूत जनाधार के खिलाफ चतुर यूपीए सरकार कानून और संवैधानिक मूल्यों की दुहाई को ढाल बनाकर आक्रामक रणनीति अपनाने की तैयारी में है। सियासी स्वांग कुछ भी हो लेकिन संकेत बताते हैं कि जनलोकपाल की राह आसान नहीं है। इसके घोर राजनीतिकरण से जनलोकपाल का जन हितकारी लोकपक्ष लगभग गायब हो चुका है। ताजा परिदृश्य यही है कि तनातनी के बीच सिविल सोसायटी संसद के सामने खड़ी है और सरकार उसे घेर कर मारने की साजिश में लगभग कामयाब है।
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